गाँव की खेती से जुडी अधिकाँश आबादी की ज़िंदगी में पिछले कुछ सालों से
भयंकर संकट छाया हुआ है जिस पर इनका आक्रोश समय-समय विभिन्न रूप से प्रकट होता रहता
है। पहले से ही यह छोटे-मध्यम किसानों-खेत मजदूरों की बढ़ती आत्महत्याओं
के रूप में प्रकट हो रहा था। फिर यह
विभिन्न राज्यों की तुलनात्मक रूप से संपन्न मानी जाने वाली किसान जातियों द्वारा आरक्षण
की माँग के रूप में सामने आया। बीजेपी-संघ
द्वारा अपने भारतीय किसान संघ के जरिये इसे नियंत्रित ढंग से निर्देशित और हड़पने का प्रयास भी किया गया है। फिर भी महाराष्ट्र,
मध्यप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, पंजाब,
उप्र, आदि राज्यों में किसान हड़ताल व प्रदर्शन के रूप में यह विक्षोभ सामने आता ही रहा है। इसके कारणों को समझने के लिए हमें वर्तमान
उत्पादन संबंधों में कृषि की स्थिति को गहराई से समझने की आवश्यकता है।
पर यहाँ सबसे पहले हमें बहुत
संक्षेप में भारतीय वामपंथी आंदोलन के सिर पर लंबे समय से चढ़े बैठे एक बड़े भूत से
निपटना होगा। यह भूत है भारतीय कृषि में सामंतवाद का सवाल। बिना किसी
विस्तृत चर्चा में जाये भी हम देख सकते हैं कि यह भूत अब सिर्फ वामपंथी आंदोलन के
एक हिस्से पर ही छाया है जबकि भारत भर के वास्तविक किसान आंदोलन में आज एकमात्र
सवाल कृषि के लाभकारी या अलाभकारी होने का ही है। लेकिन सामंतवाद में तो कृषि
उत्पादन का मकसद मूलतः बाजार में बेचने वाले माल का उत्पादन नहीं है,
फिर लाभ का प्रश्न उसमें उठता ही कैसे है? किंतु अभी भारतीय कृषि
में मुख्य सवाल ही लाभ की गणना का है। एक ओर सरकार का कहना है कि उसके द्वारा
घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभकारी हैं। उधर विभिन्न किसान संगठनों के अनुसार मौजूदा
समर्थन मूल्य वास्तव में भुगतान की गई मजदूरी व अवयवों की लागत (ए2) के साथ बिना
भुगतान के पारिवारिक श्रम का अनुमानित मूल्य (एफ़एल) जोड़कर आई लागत पर आधारित होने
के कारण वास्तविक लाभकारी मूल्य नहीं है। उनके अनुसार सर्वांगीण लागत (सी2) की
गणना हेतु इसमें अनुमानित भूमि लगान तथा किसान की पूँजी पर अनुमानित ब्याज को
जोड़कर तब उसके आधार पर लाभप्रद समर्थन मूल्य तय किया जाना चाहिये। किसान आंदोलन के
इस सबसे बड़े सवाल से ही हम समझ सकते हैं कि वर्तमान भारत में कृषि एक पूंजीवादी
उद्यम है जिसका लक्ष्य बाजार में विक्रय के लिए माल के उत्पादन द्वारा लाभ प्राप्त
करना है, जिस लाभ का प्रयोग निजी उपभोग के लिये अन्य
उद्योगों के उत्पादों की ख़रीदारी तथा अतिरिक्त पूँजी निवेश द्वारा विस्तारित
पुनरुत्पादन दोनों में किया जाता है। अतः यहाँ सामंती कृषि जैसा कुछ नहीं है।
साथ ही हमें इस समझ से भी छुटकारा पाना होगा कि मौजूदा वक्त में किसान
नाम का कोई एकरूप वर्ग है जिसमें सब किसानों के एक समान वर्गीय आर्थिक हित हैं। 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे तथा
2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के कुल 18 करोड परिवारों में से 30% खेती,
14% सरकारी/निजी नौकरी व 1.6% गैर कृषि कारोबार पर निर्भर हैं; जबकि बाकी 54% श्रमिक
हैं। खेती आश्रित 30% (5.41 करोड) का आगे विश्लेषण करें तो इनमें से 85% छोटे (1 से
2 हेक्टेयर) या सीमांत (1 हेक्टेयर से कम) वाले किसान हैं। बाकी 15% बडे-मध्यम किसानों
के पास कुल जमीन का 56% हिस्सा है। ये 85% छोटे-सीमांत किसान खेती के सहारे कभी भी
पर्याप्त जीवन निर्वाह योग्य आमदनी नहीं प्राप्त कर सकते और अर्ध-श्रमिक बन चुके हैं। किसानों के सैम्पल सर्वे 2013 का आंकडा
भी इसी की पुष्टि करता है कि सिर्फ 13% किसान (अर्थात बडे-मध्यम) ही न्यूनतम समर्थन
मूल्य से फायदा उठा पाते हैं। मोदी सरकार के आने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद
और भी कम हुई है तथा हाल की ख़बरों के अनुसार सिर्फ 6% किसान ही इसके दायरे में आ पाते
हैं। सैम्पल
सर्वे के ही आंकडों के अनुसार देश में लगभग 60% किसान आबादी कर्ज ग्रस्त है।
श्रम शक्ति के प्रयोग के
आधार पर देखें तो भारत में तीन प्रकार के किसान हैं। एक वे सीमांत-छोटे किसान हैं
जो उजरती श्रम शक्ति का प्रयोग बिल्कुल नहीं या विरले ही बहुत जरूरत होने पर करते
हैं। ये खुद अपने परिवार के श्रम से अपने जमीन के छोटे टुकड़े में गुजरबसर वाली
खेती करते हैं। इनके उत्पाद का मुख्य हिस्सा अपने ही उपभोग में प्रयुक्त होता है
और एक छोटा अतिरिक्त हिस्सा ही बाजार में बेचने के लिये उपलब्ध होता है। इन्हें हम
सरल माल उत्पादक कह सकते हैं। इनमें से अधिकांश के लिये यह खेती जीवनयापन के लिये
पर्याप्त नहीं है और आय को बढ़ाने हेतु ये साथ में कुछ मजदूरी या छोटा काम धंधा भी
करते हैं। दूसरे, वे मध्यम किसान हैं जो खेती में उजरती श्रम
का प्रयोग तो करते ही हैं मगर उससे इतना अधिशेष नहीं जुटा पाते कि खुद को उत्पादक
श्रम से मुक्त कर सकें। इसलिए साथ में ये खुद और इनका परिवार भी उत्पादक श्रम में
हिस्सेदारी करता है। अतः ये मजदूरों के शोषण से लाभ तो प्राप्त करते हैं मगर
इन्हें अभी पूँजीपति नहीं कहा जा सकता। तीसरा बड़े भूपति किसानों का वह वर्ग है जो
कई मजदूर रखकर उनकी श्रम शक्ति के बल पर खेती करते हैं। ये मजदूरों के श्रम से
उत्पादित अधिशेष मूल्य को हस्तगत कर लाभ कमाते हैं। उत्पादक श्रम में इनकी
हिस्सेदारी नहीं है और ये पूरी तरह प्रबंधन का ही काम देखते हैं। अतः इन्हें
पूँजीपति फार्मर कहना ही उचित है। साथ ही पूँजीपति फार्मरों का एक वह वर्ग भी है
जो स्वयं तो मध्यम या बड़े किसान हैं ही, साथ ही अपने
मालिकाने की जमीन के अतिरिक्त अन्य विशेषतया गैरहाजिर भू मालिकों की जमीन सालाना
लगान पर लेते हैं। स्पष्ट है कि ये अपने पूँजी निवेश पर मुनाफा कमाने हेतु खेती को
शुद्ध पूंजीवादी उद्यम की तरह ही चलाते हैं।
किसानों में हुये इस वर्ग
विभाजन से समझा जा सकता है कि इन सभी वर्गों के हित एक समान होना नामुमकिन है।
किंतु अभी सभी प्रचार माध्यम,
अर्थशास्त्री, किसान संगठन और राजनीतिक दल पूरे किसान असंतोष को सिर्फ एक बिंदु अर्थात
न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवाल तक सीमित करने का प्रयास करने में जुटे हैं। बताया जा रहा है कि अगर स्वामीनाथन आयोग
की सिफारिश के अनुसार उत्पादन लागत से 50% अधिक समर्थन मूल्य निर्धारित कर दिया जाये
तो कृषि किसानों के लिए लाभकारी हो जायेगी और उनका आर्थिक संकट दूर हो जायेगा। सरकार के साथ इनका मतभेद या विरोध का बिंदु केवल यही है जबकि सरकार के अनुसार
वह 50% लाभ सुनिश्चित करने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य पहले ही घोषित कर चुकी है। लेकिन हमने ऊपर किसानों में जो वर्ग भेद
देखा है क्या
इन सब वर्गों के लिए कृषि की उत्पादन लागत और लाभकारी मूल्य समान होना संभव है?
पूंजीवादी माल उत्पादन में पूँजी के दो घटक
होते हैं - स्थिर पूँजी (मशीनरी, तकनीक, कच्चा व सहायक माल) और परिवर्तनशील पूँजी (श्रम शक्ति)|
कृषि के लिये अभी हम अगर भूमि के किराये को सबके लिये समान भी मान लें तो भी अन्य घटक की
लागत सभी किसानों के लिये समान नहीं हो सकती। उदाहरण के लिये मशीनरी जैसे ट्रैक्टर,
थ्रेशर, हार्वेस्टर, टिलर-कल्टीवेटर, आदि को ही लें तो इसकी लागत जितनी कम जोत वाला
किसान हो उतनी ज़्यादा होती है क्योंकि उसे प्रति एकड़ जमीन के लिये ज़्यादा पूँजी निवेश
करना पड़ता है। अगर खरीदने
की बजाय भाड़े पर भी लेकर प्रयोग हो तो भी लागत ज्यादा आती है और समय पर उपलब्ध होने में दिक्कत
से अवसर की लागत भी साथ में जुड़ जाती है| इसी तरह खाद, बीज, दवायें जैसे कच्चे माल
की लागत भी खरीदने की कम मात्रा के साथ बढ़ती है| लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कम जोत वाले
किसान द्वारा अनिवार्यतः पिछड़ी तकनीक के इस्तेमाल और परिमाण की मितव्ययता के अभाव में प्रति इकाई उत्पादन
के लिये अधिक श्रम शक्ति का प्रयोग। कृषि
विशेषज्ञों के अनुमान से छोटे किसान की प्रति इकाई उत्पादन लागत बड़े किसानों से
25% अधिक होती है। बड़े और छोटे किसानों के बीच लागत मूल्य में यह अंतर उनके लिए एक समान लाभकारी
मूल्य के विचार को ही मूलतः ही ख़ारिज कर देता है। जो बाजार या समर्थन मूल्य बड़े किसान के लिए लाभकारी
है, वही छोटे किसान के लिए अलाभकारी हो सकता है। इस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन संबंधों में
अधिक पूँजी और उन्नत तकनीक के प्रयोग से कम उत्पादन लागत वाले पूँजीपति द्वारा कम पूँजी
और पिछड़ी तकनीक द्वारा अधिक उत्पादन लागत पर उत्पादन करने वाले पूँजीपति को बाजार से बाहर कर देने का नियम कृषि उत्पादन
में भी लागू होता है।
समर्थन मूल्य पर सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीद की गारंटी का अभाव इस स्थिति
को और भी बदतर
कर देता है। 2013
में उत्पादित गेहूँ का मात्र 25% ही सरकार ने खरीदा था। बाद के सालों में यह मात्रा और भी कम हुई
है। छोटा
किसान आम तौर पर कर्ज या उधार के सहारे उत्पादन करता है और फसल की कटाई के समय उसे बेचकर कर्ज लौटाना
उसके लिये आवश्यक होता है नहीं तो ब्याज बढ़ जाता है। अक्सर कर्ज देने वाला ही फसल का खरीदार
भी होता है। इस हालत
में छोटा किसान गरजबेचा होता है और खरीदार की मर्जी के दामों पर बेचने को मजबूर। जबकि बड़ा किसान एक और तो प्रशासनिक पहुँच से न्यूनतम समर्थन
मूल्य का लाभ उठा पाने की स्थिति में भी होता है। दूसरे, वह बाजार कीमतों का फायदा उठा पाने के लिये उत्पादित माल के भंडारण द्वारा ठहरने की स्थिति में भी होता है। अक्सर यह बड़ा किसान खुद ही छोटा व्यापारी भी होता है जो छोटे किसानों से कम दाम पर खरीद कर बाद में उसे अधिक दाम पर बेचकर भी लाभ
कमाता है। वैसे भी सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य
पर खरीदारी की गारंटी के अभाव में ख़राब फसल की स्थिति को छोड़कर यह असल में न्यूनतम
नहीं बल्कि अधिकतम मूल्य की तरह कार्य करता है। कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुसार तो अभी भी
सरकार लागत पर मुनाफे के साथ ही समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित यह लाभकारी
समर्थन मूल्य अधिकाँश किसानों
के लिये अलाभकारी है क्योंकि उनकी उत्पादन लागत, जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं, सामान्य
से अधिक होती है।
किंतु इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दो हेक्टेयर तक की खेती कर रहे
किसान के पास बाजार में बेचने वाला अधिशेष उत्पाद इतना होता ही नहीं कि लाभकारी मूल्य
मिल जाने पर भी उसे जीवन निर्वाह योग्य आमदनी हो सके। इसके विपरीत उसे बाजार से उद्योग ही नहीं कृषि के
भी बहुत सारे उत्पाद भोजन के लिये खरीदने होते हैं जिनकी बढ़ती कीमत उसे और संकट में
डाल देती है| इसलिये कृषि उत्पादों सहित बाजार में किसी भी प्रकार के उत्पादों और सेवाओं
की कीमतें बढाने की बात
इन छोटे और सीमांत किसानों का आर्थिक संकट कम करने के बजाय उसे बढ़ाती है। साथ ही इन्हें अपने ही जैसी मेहनतकश खेत
मजदूरों और शहरी मजदूरों और निम्न मध्य वर्ग के भी खिलाफ खड़ा करती है जो महँगाई के
इस हमले के सबसे बड़े शिकार होते हैं।
यूपीए सरकार के समय, जब समर्थन मूल्यों में तुलनात्मक रूप से तेजी से वृद्धि
हुई थी, तब कृषि सहित तमाम उत्पादों-सेवाओं के मूल्यों में भारी महँगाई का अधिकाँश
किसानों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा था? क्या उससे किसानों के जीवन स्तर में
कोई सुधार हुआ? उलटे हम पाते हैं कि उस दौरान किसानों पर कर्ज में भारी इजाफा
हुआ। 2003-2013 के दस वर्षों में किसानों पर कर्ज 24% बढ़ा जबकि कृषि उत्पादन
मात्र 13%। यही स्थिति
2014-16 की है जब कर्ज 17% बढ़ गया जबकि कृषि उत्पादन सूखे की वजह से मुश्किल से 3%
ही बढ़ा। इसका कारण है कि बढ़े समर्थन मूल्य से अच्छे लाभ की लालसा और
भ्रम में किसानों ने कर्ज लेकर पूँजी निवेश बढ़ाया किंतु उनकी आय में वृद्धि पूँजी
पर ब्याज दर और सामान्य महँगाई की तुलना में कम रही। नतीजा यह हुआ कि सैंपल सर्वे के अनुसार
60% से अधिक किसान कर्ज में हैं और बैंकों और साहूकारों दोनों से कर्ज की मात्रा बढ़ी है। अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्यों के बढ़ने
से किसानों का लाभ बढ़कर कर्ज कम होने के बजाय कर्ज बढ़ता चला गया। लाभकारी मूल्यों के दौर में भी अधिकाँश
किसान घाटे में थे और उनकी आमदनी कम हो रही थी जो बढ़ते कर्ज (किसान क्रेडिट कार्ड आदि
इसी समय शुरू किये गए थे जिनमें उदारता से लिमिट बढ़ाई गई!) के पीछे कुछ समय तक छिपी
हुई थी। लेकिन
यह कर्ज कभी तो वापस करना ही था अपने को असमर्थ पा किसान भयंकर निराशा-हताशा के शिकार होकर आत्महत्याओं की ओर बढ़ने को विवश हुये।
एक और तरह से देखें तो औद्योगीकरण के बाद सम्पूर्ण उत्पादन में खेती का हिस्सा
लगातार घटा है, भारत में भी अब यह घटकर लगभग 10% ही रह गया है। हालाँकि खेती में उत्पादकता बढ़ने की संभावनायें अभी भी
हैं लेकिन उद्योग/सेवा क्षेत्रों में उसके मुकाबले बहुत ज़्यादा विस्तार होना है। अतः कृषि का हिस्सा और भी घटने वाला है। अब कुल उत्पादन के इस छोटे, घटते हिस्से
पर जनसँख्या के इतने
बड़े हिस्से की निर्भरता रहेगी तो उनका ग़रीबी-कंगाली में रहना निश्चित ही है। उनमें भी जो 85% छोटे-सीमांत किसान हैं
(2 हेक्टेयर से कम वाले), आज की पूँजी आधारित खेती में कम उत्पादकता, अधिक श्रम, कम
मात्रा में खरीदारी से बीज/खाद
आदि की अधिक लागत, कम जोत में ट्रैक्टर आदि यंत्र खरीदने या किराये पर लेने में आने वाली ज़्यादा लागत,
साहूकारों-आढ़तियों से सूद पर ली गई पूँजी, सरकारी तंत्र का धनी किसानों के साथ खड़े
होने आदि के बहुत सारे कारणों से इनके लिए खेती घाटे का सौदा बन चुकी है।
ऐसा भी नहीं है कि खुद
पूंजीवादी सत्ता समस्या के चरित्र से अनजान है। केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने
23 दिसंबर 2018 को कृषि उत्पादन और पशुपालन में कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने
के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा बनाये जाने वाले कानून का एक मॉडल मसौदा प्रस्तुत
किया है। इस प्रस्तावित कानून का मुख्य प्रावधान है कि किसान अपनी जमीन के मालिक
रहते हुए समूहबद्ध होकर उत्पादक संघ या कंपनी बना सकेंगे। ये संघ कृषि माल
क्रेताओं से सीधे अग्रिम विक्रय करार कर सकेंगे, उन्हें मंडियों/कृषि उपज समितियों के जरिये सौदा
करना जरुरी नहीं होगा। खरीदारों के अतिरिक्त कर्ज देने वाले बैंक, बीमा कंपनी, अन्य कृषि
सम्बंधित कंपनियां भी इस करार में भागीदार बन सकेंगी। यह व्यवस्था फसलों, पशु-मुर्गी-मछली-सूअर, आदि पालन, मधुमक्खी, रेशम, वन उत्पादों, आदि विभिन्न
कृषि सम्बंधित उद्योगों पर लागू होगी। माल क्रेता करार की शर्तों के अंतर्गत
उत्पादन प्रक्रिया में भी हिस्सेदारी और बीज, खाद, तकनीकी, यंत्रों, प्रबंधन, आदि की आपूर्ति कर सकेंगे अर्थात मालिकाना के
बग़ैर पूरी प्रक्रिया को अपने हाथ में ले सकेंगे। कृषि आदि उत्पादों की प्रोसेसिंग
(शोधन और प्रसंस्करण) - चाहे हाथ से हो या मशीनों, रसायनों, आदि से - भी इसके अंतर्गत आएगी अर्थात खेत में
उत्पादन से कृषि और कृषि सम्बंधित उद्योगों के उत्पादों के उपभोक्ता तक पहुंचने तक
होने वाली सारी प्रक्रियाएं। इन करारों के तहत कृषि उत्पादों की खरीदारी/व्यापार
करने वाली कंपनियों पर उत्पादों के स्टॉक, आदि की मौजूदा सीमाएं आयद नहीं होंगी। इन करारों
का पंजीकरण और इन्हें लागू कराने, सम्बंधित विवाद निपटाने, नियम-प्रक्रियाएं
बनाने हेतु राज्य नियामक संस्थाऐं भी बनाएंगे जो इन करारों पर 0.3% तक शुल्क वसूल
सकेगी।
इस मसौदे को तैयार करने
वाली कमिटी ने इसके मकसद और वजहों को भी स्पष्ट किया है। इसके अनुसार देश के 12
करोड़ किसान परिवारों में 86% छोटे (2 हेक्टेयर तक जमीन) तथा सीमांत (1 हेक्टेयर
तक) हैं और औसत किसान के पास 1.1 हेक्टेयर जमीन है। कृषि जोत के छोटे आकार ने इनके
अस्तित्व को ही संदेहास्पद बना दिया है क्योंकि इनकी उत्पादकता और कुशलता बहुत कम
है। जब तक खेती का मूल चरित्र मात्र किसान परिवार की गुजर-बसर था, उसके उत्पाद
उनके उपभोग की जरूरतों को पूरा कर देते थे और बहुत कम अधिशेष उत्पाद ही माल के रूप
में बाजार में आता था, तब तक उत्पादकता और कुशलता का सवाल ज्यादा अहमियत नहीं रखता था। किंतु आज
अधिकांश कृषि उत्पादों का बाजार विक्रय वाले अधिशेष का अनुपात निरंतर बढ़ रहा है और
किसान परिवारों की खेती के उत्पाद से पूरी न होने वाली उपभोक्ता आवश्यकताएं भी
लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसलिए कृषि जोत की उत्पादकता, कुशलता और
लाभप्रदता का सवाल महत्वपूर्ण हो गया है।
मसौदे में आगे कहा गया है
कि कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुमानों के अनुसार उत्पादन लागत साल दर साल बढ़ रही
है जिससे किसानों की शुद्ध आय पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसलिए कृषि में निवेश
और उत्पाद के बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है, जिसका मुख्य निर्धारक उत्पादन/परिचालन का पैमाना
है। अगर मालिकाना समाप्त किये बगैर ही छोटे व सीमांत किसानों की जोतों को परिचालन
की एक सामूहिक इकाई में जोड़ दिया जाये तो बड़े पैमाने के उत्पादन से होने वाली
किफ़ायत का फायदा उठाकर उनकी उत्पादकता और आय को बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिए करार
आधारित खेती या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक बेहतर उपाय है। हालाँकि इस मसौदे में
बाजार भाव के जोखिम को कम करने हेतु व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किसानों द्वारा
प्रायोजक या उत्पाद क्रेता के साथ उत्पादन
पूर्व मूल्य करार को इस कानून का मुख्य आधार बताया गया है, इस कानून के
वास्तविक प्रावधान से इससे कहीं अधिक व्यापक हैं। इस करार के अंतर्गत प्रायोजक माल
खरीदार तकनीक, कृषि पद्धति, फसल सम्बंधी सभी आवश्यक यंत्र, बीज, खाद जैसी आवश्यकताएं व सेवाएं और पेशेवर प्रबंधन
भी प्रदान कर सकता है। संक्षेप में कहा जाये तो एक पूर्व निश्चित रकम के बदले में
वह पूरे कृषि कार्य का संचालन अपने प्रबंधन में संभाल ले सकता है।
इस बात से तो कोई इंकार
नहीं कर सकता कि छोटे और सीमांत ही नहीं बहुत से मंझोले किसानों द्वारा की जाने
वाली खेती भी आज पूरी तरह घाटे का सौदा है क्योंकि उनके उत्पादन की ऊँची लागत कृषि
उत्पादों की बाजार कीमतों से अधिक पड़ती है। इसका कारण छोटे पैमाने के उत्पादन में
प्रति इकाई अधिक श्रम का उपयोग, जरुरत के वक्त ट्रैक्टर आदि यंत्रों को ऊँचे
भाड़े पर लेने की मज़बूरी और कम मिक़दार में उत्पादन सामग्री खरीदने पर ऊँचे दाम
अर्थात कम पूंजी से पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में होने वाले सभी नुकसान शामिल
हैं। इसका नतीजा छोटे-सीमांत किसानों के भारी कर्ज में डूबने, उनके जीवन में
भारी दुःख तकलीफ और नतीजतन बढ़ती आत्महत्याओं के रूप में हम सबके सामने है। लेकिन
क्या यह करार आधारित खेती इसका कोई समाधान प्रस्तुत कर सकती है?
भारत में अभी सामंती कृषि
(अधिशेष सामंती शोषकों को सौंप बचे हिस्से से जीवनयापन करने के लिए उत्पादन) नहीं
है। यहां कृषि में माल उत्पादन अर्थात बाजार में विनिमय के लिए उत्पादन ही प्रभावी
है और विनिमय में प्राप्त धनराशि से ये किसान बाजार से उपभोग के लिए अन्य जरुरी
माल खरीदते हैं जो पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का आधार है। लेकिन भारतीय राज्य ने
कृषि में उत्पादन के जैविक संघटन में पूंजी निवेश की गति को नियंत्रित रखा है
क्योंकि वह बड़े पैमाने के उत्पादन द्वारा कृषि की जरूरतों के लिए फालतू हुई श्रम
शक्ति को उद्योगों में खपा पाने की क्षमता नहीं रखता था। इसलिए छोटे पैमाने का
कृषि उत्पादन अभी भी बहुत व्यापक है यद्यपि यह किसानों के बड़े हिस्से के लिए
कंगाली का ही उत्पादन करता है क्योंकि छोटी पूंजी वाला उत्पादक बडी पूंजी वाले
उत्पादक के मुकाबले अधिक लागत पर उत्पादन करता है और हानि में रहता है, यह हानि का
नतीजा उसे खुद अपने श्रम की कीमत भी न मिल पाने में अभिव्यक्त होती है। इसलिए बड़ी
संख्या में सीमांत किसान परिवार आज पूरी तरह श्रमिक बन चुके परिवारों से भी अधिक
कंगाल हैं। फिर छोटे पैमाने पर उत्पादन के कारण भारत में कृषि की उत्पादकता बहुत
कम है - वैश्विक स्तर पर उत्पादन की आधी-तिहाई या और भी कम। इसी वजह से पिछले
सालों में कृषि से पलायन तेज हुआ है।
पर नियंत्रित गति के बावजूद
भी कृषि में पूंजी निवेश और यंत्रीकरण की प्रक्रिया निरंतर तेज हुई है - कृषि उत्पादन
का मुख्य आधार अब मानवीय श्रम और हल-बैल नहीं है। 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण के
अनुसार अभी कृषि में 91% चालक शक्ति यांत्रिक या विद्युत है। दूसरे, सभी किसानों के
लिए खेती अलाभकारी नहीं है। धनी किसानों द्वारा पूंजी निवेश और यंत्रों के उपयोग
से बड़ी जोतों पर की जाने वाली खेती बड़े पैमाने के उत्पादन की किफ़ायत और प्रति इकाई
उत्पादन की कम लागत के कारण लाभप्रद है। इसीलिए बड़े भूपतियों, अमीर किसानों के
साथ ही जमीन की किस्म, सिंचाई, अन्य संरचनात्मक सुविधाओं, आदि की उपलब्धता के आधार पर प्रति हेक्टेयर 60
हजार से सवा-डेढ़ लाख रुपये प्रति वर्ष पर जमीन किराये पर लेने वाले ग्रामीण कृषि
व्यवसाइयों का एक वर्ग भी अस्तित्व में आया है। यह तबका श्रमिकों की श्रम शक्ति
खरीद कर लाभप्रद खेती करता है, साथ ही छोटे-सीमांत किसानों और बाजार के बीच का
बिचौलिया बनकर भी लाभ कमाता है; सरकारी समर्थन मूल्यों का लाभ भी यही तबका
लेता है (हाल की रिपोर्टों के अनुसार किसानों का मात्र 5-6% हिस्सा ही सरकारी
न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रयोग कर पाता है।)
छोटे पैमाने की कृषि में
लाभ की संभावना के भ्रम को खुद अधिकाँश किसान सचेत सैद्धांतिक रूप में तो नहीं लेकिन व्यवहार में
अच्छी तरह समझ चुके हैं और खेती में कोई भविष्य नहीं देखते। दूसरा कोई भी विकल्प हासिल होने पर खेती
को तुरंत छोड़ने के लिए तैयार हैं, छोटी-मोटी नौकरी के लिए रिश्वत देने के लिए खेत तक
बेचने को तैयार हैं। जो किसान
जातियां एक समय नौकरी-चाकरी करने को ही बेइज्जती का काम मानती थीं उनके लिए भी आरक्षण
इस लिये जीवन-मरण
का प्रश्न बन गया है हालाँकि उस रास्ते इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। खेत मजदूरों के लिए तो पहले ही पूरे साल
रोजगार मौजूद नहीं है, दूसरे पिछले कुछ साल से महँगाई के मुकाबले कृषि में मज़दूरी की दर लगातार घट रही है। अतः किसानों और खेत मजदूरों दोनों के लिए
पहले ही मुख्य सवाल वैकल्पिक रोजगार और जीवन निर्वाह योग्य मज़दूरी बन चुका है। उनके लिए असली सवाल समर्थन मूल्य का नहीं,
बल्कि जीवन निर्वाह योग्य रोजगार प्राप्त करना
है। इस लिए लाभकारी
मूल्य की यह सारी लड़ाई मुख्यतः पूंजीवादी फार्मरों की लड़ाई है| यहाँ स्पष्ट करना है कि इसका
अर्थ यह नहीं है कि किसानों-खेत मजदूरों की तात्कालिक माँगों के लिए कोई संघर्ष नहीं
हो सकता। हो सकता
है, ऐसी माँगों के साथ जो किसानों-खेत मजदूरों की एकता को मजबूत करें और साथ में उन्हें
शहरी मजदूरों-निम्न मध्य वर्ग के खिलाफ खड़ा न करें।
लेकिन यह वैकल्पिक रोजगार मिले कहाँ? इज़ारेदार पूँजीवाद अब उद्योगों-सेवाओं को और विस्तार देने में सक्षम नहीं रहा, अति-उत्पादन
की समस्या से जूझ रहा है, बाजार में खरीदारों की कमी से पहले ही लगे उद्योगों को
70% से अधिक क्षमता पर नहीं चला पा रहा, नया निवेश लगातार घट रहा है, तो और व्यापक औद्योगीकरण कैसे करे? वह तो पहले
ही इतने ही उद्योगों में आधुनिक तकनीक के प्रयोग और ऑटोमेशन से श्रमिकों की सँख्या कम कर मुनाफा बढाने के तरीके ढूँढ रहा है। यही वजह है कि अभी बेरोजगारी 45 वर्ष के उच्च स्तर पर है। इसलिए भारतीय पूंजीवाद अभी भी
बहुत सारे लोगों को इस अलाभकारी/अनुत्पादक छोटी खेती में उलझा कर रखे हुए है ताकि बेरोजगारी
की समस्या अपने असली विकराल रूप में सामने न आये। लेकिन इस अति-उत्पादन का कारण यह नहीं
कि समाज की जरूरतें पूरी हो गईं हैं। पूँजी
मालिकों के मुनाफ़े के बजाय अगर सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन मकसद हो
तो इसको बहुत गुना बढाने की ज़रूरत होगी जिससे बेरोज़गारों की इस बड़ी फ़ौज को रोजगार मिल सकता है। लेकिन उसके लिए पहले निजी मालिकाने पर
आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर सामूहिक मालिकाने पर आधारित समाजवादी व्यवस्था
की स्थापना करनी पड़ेगी।
अगर भारत का पूंजीवाद
व्यापक औद्योगीकरण का दरवाजा खोलने में सक्षम होता तो कृषि में भी उत्पादन के समाजीकरण
का दरवाजा पूरी तरह खुल जाता, पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के नियम से कृषि में
भी पूंजी और उत्पादन का केन्द्रीकरण तेज होता तथा वर्ग विभाजन पूरी तरह स्पष्ट हो
जाता। पूंजी निवेश और उन्नत तकनीक के उपयोग से उत्पादकता भी बढ़ती किंतु उसी से अति
उत्पादन और संकट के दौर भी आते और संकट के हर दौर में तुलनात्मक रूप से छोटे उत्पादकों के
विनाश के द्वारा और अधिक इजारेदारी स्थापित होती। किंतु भारत के पहले से ही अति
उत्पादन के संकट के शिकार पूंजीवाद ने स्थिति को बेहद विकराल बना दिया है। इससे
बड़े पैमाने पर छोटे, सीमांत एवं मंझोले किसानों का सर्वहाराकरण की प्रक्रिया बेहद दर्दनाक और
तकलीफदेह हो गई है। एक ओर ये खेती को छोड़कर कस्बों-शहरों में रोजगार ढूँढने को
विवश तो हो रहे हैं मगर दूसरी ओर औद्योगिक क्षेत्र के उतने ही गहरे संकट के कारण
गाँव और जमीन के छोटे टुकड़े से पूरी तरह मुक्त भी नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि
उद्योगों के बंद होने की स्थिति में जमीन का यह टुकड़ा उन्हें किसी प्रकार जिंदा
रहने का आसरा देता है।
किंतु इसका एक विशिष्ट पहलू
यह भी है कि जमीन के छोटे टुकड़ों से जुड़े ये अर्धश्रमिक पूरी तरह सर्वहाराकरण न हो
पाने के कारण पुराने भू संबंधों के प्रतिगामी सांस्कृतिक प्रभाव से भी मुक्त नहीं
हो पा रहे। शहरों में एक ही मजदूर बस्ती में रहकर ये जितना वर्ग चेतना विकसित करते
हैं, गाँव से जुड़े होने के कारण जब भी ये छठे चौमासे गाँव जाते हैं
तो पितृसत्ता और जातिवाद के प्रतिगामी विचारों की डोज़ लेकर लौटते हैं। इस तरह कृषि
संकट का वर्तमान दौर इन्हें प्रतिक्रियावादी विचारों और शक्तियों के चंगुल में भी
फंसाये हुये है और ये फासिस्ट मुहिम की रिजर्व फोर्स बने हुये हैं।
इसके आधार पर हम क्या
निष्कर्ष निकाल सकते हैं? एक, जमीन
के छोटे टुकड़ों पर खेती का कोई भविष्य नहीं है अतः जमीन के बँटवारे का सवाल अब एक
वास्तविक राजनीतिक प्रश्न नहीं रह गया है। दूसरे, किसान अब
समान हित वाला एक वर्ग नहीं है। लाभकारी मूल्य के हित वाले पूंजीपति किसानों के
हित श्रमिकों व अर्धश्रमिक गरीब किसानों के हित के विरुद्ध हैं जिनकी स्वाभाविक
एकता शहरों के श्रमिकों एवं निम्न मध्यवर्ग के साथ बनती है। तीसरे, पूंजीवाद में समाज के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया यही है - उत्पादन के समाजीकरण-केन्द्रीकरण
द्वारा किसानों के सर्वहाराकरण का मुकाबला पीछे जाकर छोटे पैमाने के कुटीर उत्पादन
की रुमानियत में नहीं बल्कि आगे बढ़कर निजी संपत्ति के उन्मूलन और सामूहिक
स्वामित्व में सामूहिक आवश्यकताओं के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था में ही है
जिसमें कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण कर सामूहिक और राजकीय खेती की व्यवस्था स्थापित
कर पूरे समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन होगा। गांवों से उजड़ते गरीब किसानों को
अपने हित खुद को कंगाली की जिंदगी देते जमीन के छोटे टुकड़ों में नहीं बल्कि मजदूर
वर्ग के साथ मिलकर निजी स्वामित्व की पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने
में देखने होंगे।
समयांतर, जनवरी 2020
बढ़िया है हर तरह से.गांव में है और समयांतर की लेखकीय प्रति भी नहीं मिल रही है ब्लॉग पर आज पढ़ सका
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