भारत
का शासक पूँजीपति वर्ग किस तरह सार्वजनिक उद्यमों और बैंकों का प्रयोग
निजी पूँजीपतियों के हितों में करता है उसका सटीक उदाहरण है 8 जनवरी को देश
के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) द्वारा लाई गई होम लोन की नई
वापसी योजना। इस योजना के अनुसार अगर क़र्ज़ लेने वाले ने जिस बिल्डर से
फ्लैट खरीदा है वह फ्लैट का निर्माण समय से नहीं करे तो बैंक खरीदार द्वारा
चुकाये गये पूरे मूलधन को उसे को वापस कर देगा।
यह योजना उन बिल्डरों से खरीदे लोन पर लागू होगी जिन्हें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इमारत बनाने के लिए कर्ज़ दिया हुआ है। अभी यह योजना 7 शहरों में ढाई करोड़ रुपये तक मूल्य वाले फ्लैट के लिए है और आगे इसे 10 और शहरों तक विस्तार दिया जायेगा। बैंक ने अभी एक बिल्डर सनटेक रियल्टी के साथ ऐसा समझौता किया है, आगे बैंक 50 से 400 करोड़ रुपये के क़र्ज़ लेने वाले अन्य बिल्डरों के साथ भी ऐसे करार करने वाला है।
सवाल है कि निजी बिल्डरों द्वारा निर्माण पूरा न करने पर होने वाले जोखिम को मूलधन की वापसी की गारंटी द्वारा एसबीआई अपने जिम्मे क्यों ले रहा है? इस संदर्भ में हमें नोएडा में जेपी इंफ्राटेक, आम्रपाली, आदि बिल्डरों द्वारा ऋण व बिक्री से प्राप्त रकम का गबन कर 30 हजार फ्लैट का निर्माण अधर में छोड़ने के मामले व देश के अन्य हिस्सों में ऐसे ही अन्य बहुत से मामलों को याद रखना होगा। इन मामलों में एक और तो बिल्डरों ने बैंकों से कर्ज लिए हुये थे, दूसरी ओर फ्लैट बेचकर ग्राहकों से भी बड़ी रकम वसूल की थी। किंतु उन्होंने फ्लैट निर्माण का काम अधर में छोड़ दिया और ऋण व बिक्री से प्राप्त रकम को गबन कर अपने दूसरे खातों में पहुँचा दिया। इससे यह कंपनियाँ दिवालिया हो गईं। परिणाम यह हुआ कि एक और तो ऋणदाता बैंकों की रकम डूब गई, दूसरी और फ्लैट खरीदने वाले भी अपने फ्लैट व चुकाई गई रकम दोनों से हाथ धो बैठे।
पर इससे एक और बड़ी मुश्किल पैदा हुई। जब दिवालिया होने का मामला बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए कंपनी अदालत में पहुँचा तो फ्लैट मालिकों ने भी अपनी डूबी रकम के लिए वहाँ दावा किया। फ्लैट मालिकों की दिक्कत यह भी थी कि उन्होने फ्लैट खरीदने के लिए भी इन बैंकों से ऋण लिया हुआ था और फ्लैट न मिलने पर भी बैंक ऋण वसूली को रद्द करने वाले नहीं थे। दूसरी और यही बैंक यह भी दावा कर रहे थे कि पूरी इमारत उनके पास रेहन रखी गई है और फ्लैट मालिकों का संपत्ति पर कोई दावा नहीं बनता। अर्थात बैंक फ्लैट ख़रीदारों पर दोहरी मार कर रहे थे – फ्लैट की संपत्ति से उनको वंचित कर देना और ऋण की वसूली के लिए भी दबाव देना। अतः यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और उसका समाधान अभी तक भी पूर्णतया नहीं हो पाया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते संकट से घटती आमदनी और बढ़ती बेरोजगारी के साथ ही देश भर में बिल्डरों द्वारा किए गये ऐसे गबन भी संपत्ति खरीदारों में घबराहट पैदा कर उन्हें ऋण लेकर संपत्ति खरीदने से प्रोत्साहित करने के लिए बड़े जिम्मेदार थे। इससे देश भर में संपत्ति की बिक्री में भारी गिरावट आई है जिसने अर्थव्यवस्था के संकट को और भी गंभीर बना दिया है। 2019 की दूसरी छमाही में ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, मुंबई, बैंगलोर सहित 6 बड़े शहरों में पहली छमाही की तुलना में बिक्री में 22% की कमी हुई है।
खास तौर पर पिछले दो दशकों से गृह निर्माण का क्षेत्र कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त हो गये श्रमिकों को भवन निर्माण के काम में मजदूरी द्वारा खपाने का एक बड़ा जरिया होने से अर्थव्यवस्था में रोजगार देने वाला का एक मुख्य क्षेत्र था। इसमें आए संकट से भवन निर्माण के काम में भारी गिरावट हुई है और बड़ी तादाद में श्रमिकों के काम से वंचित होने के कारण बेरोजगारी के बढ़ते संकट में भी इसका योगदान है। इसके अतिरिक्त भवन निर्माण के काम में आने वाले ईंट, सरिया, सीमेंट, काँच, आदि उद्योगों की बिक्री पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव हुआ है।
साथ ही इसका नतीजा यह भी हुआ है कि एचडीआईएल जैसी कुछ बड़ी कंपनियों सहित चार सौ से अधिक रियल स्टेट कंपनियाँ दिवालियाँ हो गईं हैं और बैंकों तथा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा इन्हें दिये गये ऋण भी डूब गये हैं। परिणामस्वरूप पीएमसी जैसा सहकारी बैंक व दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस व अल्टिको सहित आवासीय व व्यावसायिक संपत्ति ऋण देने वाली कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ भी दिवालिया होने के कगार पर हैं। सिर्फ दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस पर ही बैंकों की 97 हजार करोड़ रुपये की बड़ी रकम बकाया है। इससे बैंकों के पहले से ही ऊँचे एनपीए अर्थात डूबे ऋणों की मात्रा में और वृद्धि का खतरा पैदा हो गया है।
जब सरकार पहले ही आर्थिक संकट, उच्च बेरोजगारी दर व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर के 5% से भी नीचे आने से जूझ रही है, तब संपत्ति क्षेत्र की बिक्री में आई गिरावट व उसके चलते बिल्डरों, बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तथा बैंकों सभी के सामने आए संकट ने सरकार की चिंता को और भी बढ़ा दिया है। इससे उसके ऊपर भारी दबाव है कि वह अन्य कारोबारी क्षेत्रों की ही तरह इन सब को भी संकट से राहत देने के लिए कुछ बड़े कदम उठाये। एसबीआई की यह नई ऋण योजना इसी दिशा में एक कदम है। सरकार व बैंक को उम्मीद है कि इससे वर्तमान में ख़रीदारों में जड़ जमाने वाली घबराहट कुछ हद तक कम होगी और कम से कम मूलधन वापसी की इस गारंटी से लोग फ्लैट खरीदने के लिए प्रोत्साहित होंगे तथा संपत्ति की बिक्री तेज होगी।
किंतु इसका नतीजा होगा कि निजी बिल्डरों की व्यवसायिक गलतियों से हुई हानि या उनके द्वारा किए गए गबन का बोझ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के जिम्मे आ जायेगा। बैंक द्वारा बिल्डर को दिया गया कर्ज तो डूबेगा ही मकान खरीदने वाले द्वारा चुकायी राशि को भी बैंक वापस करेगा न कि बिल्डर जिसे वह रकम मिली थी। बिल्डर पूँजीपति आराम से रकम का हेरफेर कर खुद को दिवालिया घोषित कर साफ निकाल भागने में सक्षम होगा। साथ ही बैंकिंग व्यवस्था में जिसे नैतिक जोखिम या मॉरल हजार्ड कहा जाता है उसका खतरा भी बढ़ जायेगा। इसका अर्थ होता है कि अगर किसी को हेराफेरी करने से सजा के बजाय लाभ मिलने वाला हो तो उसकी हेराफेरी करने की संभावना बढ़ जाती है।
लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इससे होने वाली हानि को कहाँ से पूरा करेंगे? उनके पास कुछ तरीके हैं – एक, बहुत सारी सेवाओं पर शुल्क बढ़ा देना; दो, खातों में न्यूनतम या औसत बैलेंस आदि पर जुर्माना लगाना; जमा खातों में ब्याज घटा देना; चार, इस सबसे भी काम न चले तो सरकार से अतिरिक्त पूँजी माँगना। स्पष्ट है कि हानिपूर्ति के यह सब स्रोत आम जनता की जेब से आते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि हालाँकि मकान खरीदने के लिए क़र्ज़ लेने वाले कुछ व्यक्तियों को इसका लाभ होगा पर कुल मिलाकर यह योजना निजी पूँजीपतियों के घाटे के जोखिम को उनके सिर से हटा से देश की आम जनता के जिम्मे डालने वाली योजना है। भारत का पूँजीपति वर्ग लंबे समय से इसी तरह अपने घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र के जिम्मे डाल उसे घाटे में पहुंचाता रहा है और बाद में आर्थिक संकट के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र को जिम्मेदार बताया जाता है जबकि मूलतः इसका कारण पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में ही है.
10/01/2020
https://hindi.newsclick.in/Why-is-State-Bank-taking-the-losses-of-private-builders
यह योजना उन बिल्डरों से खरीदे लोन पर लागू होगी जिन्हें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इमारत बनाने के लिए कर्ज़ दिया हुआ है। अभी यह योजना 7 शहरों में ढाई करोड़ रुपये तक मूल्य वाले फ्लैट के लिए है और आगे इसे 10 और शहरों तक विस्तार दिया जायेगा। बैंक ने अभी एक बिल्डर सनटेक रियल्टी के साथ ऐसा समझौता किया है, आगे बैंक 50 से 400 करोड़ रुपये के क़र्ज़ लेने वाले अन्य बिल्डरों के साथ भी ऐसे करार करने वाला है।
सवाल है कि निजी बिल्डरों द्वारा निर्माण पूरा न करने पर होने वाले जोखिम को मूलधन की वापसी की गारंटी द्वारा एसबीआई अपने जिम्मे क्यों ले रहा है? इस संदर्भ में हमें नोएडा में जेपी इंफ्राटेक, आम्रपाली, आदि बिल्डरों द्वारा ऋण व बिक्री से प्राप्त रकम का गबन कर 30 हजार फ्लैट का निर्माण अधर में छोड़ने के मामले व देश के अन्य हिस्सों में ऐसे ही अन्य बहुत से मामलों को याद रखना होगा। इन मामलों में एक और तो बिल्डरों ने बैंकों से कर्ज लिए हुये थे, दूसरी ओर फ्लैट बेचकर ग्राहकों से भी बड़ी रकम वसूल की थी। किंतु उन्होंने फ्लैट निर्माण का काम अधर में छोड़ दिया और ऋण व बिक्री से प्राप्त रकम को गबन कर अपने दूसरे खातों में पहुँचा दिया। इससे यह कंपनियाँ दिवालिया हो गईं। परिणाम यह हुआ कि एक और तो ऋणदाता बैंकों की रकम डूब गई, दूसरी और फ्लैट खरीदने वाले भी अपने फ्लैट व चुकाई गई रकम दोनों से हाथ धो बैठे।
पर इससे एक और बड़ी मुश्किल पैदा हुई। जब दिवालिया होने का मामला बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए कंपनी अदालत में पहुँचा तो फ्लैट मालिकों ने भी अपनी डूबी रकम के लिए वहाँ दावा किया। फ्लैट मालिकों की दिक्कत यह भी थी कि उन्होने फ्लैट खरीदने के लिए भी इन बैंकों से ऋण लिया हुआ था और फ्लैट न मिलने पर भी बैंक ऋण वसूली को रद्द करने वाले नहीं थे। दूसरी और यही बैंक यह भी दावा कर रहे थे कि पूरी इमारत उनके पास रेहन रखी गई है और फ्लैट मालिकों का संपत्ति पर कोई दावा नहीं बनता। अर्थात बैंक फ्लैट ख़रीदारों पर दोहरी मार कर रहे थे – फ्लैट की संपत्ति से उनको वंचित कर देना और ऋण की वसूली के लिए भी दबाव देना। अतः यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और उसका समाधान अभी तक भी पूर्णतया नहीं हो पाया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते संकट से घटती आमदनी और बढ़ती बेरोजगारी के साथ ही देश भर में बिल्डरों द्वारा किए गये ऐसे गबन भी संपत्ति खरीदारों में घबराहट पैदा कर उन्हें ऋण लेकर संपत्ति खरीदने से प्रोत्साहित करने के लिए बड़े जिम्मेदार थे। इससे देश भर में संपत्ति की बिक्री में भारी गिरावट आई है जिसने अर्थव्यवस्था के संकट को और भी गंभीर बना दिया है। 2019 की दूसरी छमाही में ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, मुंबई, बैंगलोर सहित 6 बड़े शहरों में पहली छमाही की तुलना में बिक्री में 22% की कमी हुई है।
खास तौर पर पिछले दो दशकों से गृह निर्माण का क्षेत्र कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त हो गये श्रमिकों को भवन निर्माण के काम में मजदूरी द्वारा खपाने का एक बड़ा जरिया होने से अर्थव्यवस्था में रोजगार देने वाला का एक मुख्य क्षेत्र था। इसमें आए संकट से भवन निर्माण के काम में भारी गिरावट हुई है और बड़ी तादाद में श्रमिकों के काम से वंचित होने के कारण बेरोजगारी के बढ़ते संकट में भी इसका योगदान है। इसके अतिरिक्त भवन निर्माण के काम में आने वाले ईंट, सरिया, सीमेंट, काँच, आदि उद्योगों की बिक्री पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव हुआ है।
साथ ही इसका नतीजा यह भी हुआ है कि एचडीआईएल जैसी कुछ बड़ी कंपनियों सहित चार सौ से अधिक रियल स्टेट कंपनियाँ दिवालियाँ हो गईं हैं और बैंकों तथा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा इन्हें दिये गये ऋण भी डूब गये हैं। परिणामस्वरूप पीएमसी जैसा सहकारी बैंक व दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस व अल्टिको सहित आवासीय व व्यावसायिक संपत्ति ऋण देने वाली कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ भी दिवालिया होने के कगार पर हैं। सिर्फ दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस पर ही बैंकों की 97 हजार करोड़ रुपये की बड़ी रकम बकाया है। इससे बैंकों के पहले से ही ऊँचे एनपीए अर्थात डूबे ऋणों की मात्रा में और वृद्धि का खतरा पैदा हो गया है।
जब सरकार पहले ही आर्थिक संकट, उच्च बेरोजगारी दर व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर के 5% से भी नीचे आने से जूझ रही है, तब संपत्ति क्षेत्र की बिक्री में आई गिरावट व उसके चलते बिल्डरों, बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तथा बैंकों सभी के सामने आए संकट ने सरकार की चिंता को और भी बढ़ा दिया है। इससे उसके ऊपर भारी दबाव है कि वह अन्य कारोबारी क्षेत्रों की ही तरह इन सब को भी संकट से राहत देने के लिए कुछ बड़े कदम उठाये। एसबीआई की यह नई ऋण योजना इसी दिशा में एक कदम है। सरकार व बैंक को उम्मीद है कि इससे वर्तमान में ख़रीदारों में जड़ जमाने वाली घबराहट कुछ हद तक कम होगी और कम से कम मूलधन वापसी की इस गारंटी से लोग फ्लैट खरीदने के लिए प्रोत्साहित होंगे तथा संपत्ति की बिक्री तेज होगी।
किंतु इसका नतीजा होगा कि निजी बिल्डरों की व्यवसायिक गलतियों से हुई हानि या उनके द्वारा किए गए गबन का बोझ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के जिम्मे आ जायेगा। बैंक द्वारा बिल्डर को दिया गया कर्ज तो डूबेगा ही मकान खरीदने वाले द्वारा चुकायी राशि को भी बैंक वापस करेगा न कि बिल्डर जिसे वह रकम मिली थी। बिल्डर पूँजीपति आराम से रकम का हेरफेर कर खुद को दिवालिया घोषित कर साफ निकाल भागने में सक्षम होगा। साथ ही बैंकिंग व्यवस्था में जिसे नैतिक जोखिम या मॉरल हजार्ड कहा जाता है उसका खतरा भी बढ़ जायेगा। इसका अर्थ होता है कि अगर किसी को हेराफेरी करने से सजा के बजाय लाभ मिलने वाला हो तो उसकी हेराफेरी करने की संभावना बढ़ जाती है।
लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इससे होने वाली हानि को कहाँ से पूरा करेंगे? उनके पास कुछ तरीके हैं – एक, बहुत सारी सेवाओं पर शुल्क बढ़ा देना; दो, खातों में न्यूनतम या औसत बैलेंस आदि पर जुर्माना लगाना; जमा खातों में ब्याज घटा देना; चार, इस सबसे भी काम न चले तो सरकार से अतिरिक्त पूँजी माँगना। स्पष्ट है कि हानिपूर्ति के यह सब स्रोत आम जनता की जेब से आते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि हालाँकि मकान खरीदने के लिए क़र्ज़ लेने वाले कुछ व्यक्तियों को इसका लाभ होगा पर कुल मिलाकर यह योजना निजी पूँजीपतियों के घाटे के जोखिम को उनके सिर से हटा से देश की आम जनता के जिम्मे डालने वाली योजना है। भारत का पूँजीपति वर्ग लंबे समय से इसी तरह अपने घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र के जिम्मे डाल उसे घाटे में पहुंचाता रहा है और बाद में आर्थिक संकट के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र को जिम्मेदार बताया जाता है जबकि मूलतः इसका कारण पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में ही है.
10/01/2020
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