पिछले कई सालों से पूरे पूंजीवादी विश्व के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी गहन
संकट से गुजर रही है। आम जनता की घटती आय से बाजार में सिकुड़ती मांग से उद्योगों
में नया निवेश नहीं हो रहा, पहले स्थापित
उद्योग दिवालिया हो रहे हैं; बड़े पैमाने पर
श्रमिक रोजगार से वंचित हुए हैं, नए रोजगार सृजित
नहीं हो रहे; बेरोजगारी भयंकर
रूप से बढ़ी है, 16-25 साल के युवाओं
में 27% ना शिक्षा में हैं,
ना किसी तरह के प्रशिक्षण
में, ना ही किसी रोजगार में;
गरीब छोटे किसान और खेत
मजदूर आत्महत्याओं तक के लिए मजबूर हो रहे हैं। पर रोजगार से लेकर आर्थिक संकट के
तमाम पहलुओं पर बात करते हुए अधिकांश लोग आम तौर पर बीजेपी-कांग्रेस की नीतियों,
नोटबंदी, जीएसटी, आदि को जिम्मेदार ठहरा कर रुक जाते हैं। यह बात
सही है कि इन नीतियों ने इस संकट को गंभीर बनाने में भूमिका निभाई है। पर आखिर ये
पार्टियां ऐसी नीतियां बनाती क्यों हैं? क्या ये कोई और अलग नतीजा देने वाली नीति भी बना सकते हैं? क्या सरकार बदलने मात्र से ये नीतियां बदली जा
सकती हैं? हमें समझना होगा
कि हम वर्ग विभाजित समाज में रहते हैं जिसमें कोई भी राजनीतिक दल समाज के किसी
वर्ग का प्रतिनिधि होता है। बीजेपी कांग्रेस दोनों भारत के इजारेदार पूंजीपति वर्ग
के प्रतिनिधि हैं और उसके हितों की हिफाजत और उन्हें आगे बढ़ाना उनका मुख्य काम है।
इसलिए ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उत्पादन संबंधों के विपरीत कोई नीति नहीं बना
सकते। यह उत्पादन सम्बन्ध क्या हैं और आज की संकटपूर्ण स्थितियां कैसे इन का नतीजा
हैं? इसे समझने के लिए विश्व
के श्रमिक वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स ने 150 वर्ष पहले प्रकाशित अपनी पुस्तक 'पूंजी' में जो बताया था, उसका एक छोटा और
सरलीकृत अंश समझते हैं।
पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था
पूंजीपति पूंजी से उत्पादन के निर्जीव साधन - जमीन-मकान, मशीनें-औजार, कच्चा माल - जुटाता है। फिर उत्पादन की सजीव
ताकत अर्थात मानव श्रम के लिए श्रमिक से उसकी श्रम शक्ति खरीदता है। श्रम शक्ति
लगने से पैदा उत्पाद का मूल्य उसे बनाने में प्रयोग हुए अवयवों के कुल मूल्य के
मुकाबले ज्यादा होता है। इस बढे हुए मूल्य में से श्रम शक्ति का मूल्य निकाल देने
पर बचने वाला अधिशेष या अतिरिक्त मूल्य ही पूंजीपति का मुनाफा होता है अर्थात
श्रमिक की श्रम शक्ति लगने से पैदा वह मूल्य जो श्रमिक को प्राप्त नहीं हुआ,
बल्कि पूंजीपति को मिला।
यह मुनाफा ही मूल पूंजी में जुड़ता रहता है और पूंजीपतियों की दौलत को बढ़ाता जाता
है। इस निरंतर बढ़ती पूंजी से पूंजीपति
निरंतर और अधिक उत्पादन करता जाता है। लेकिन सिर्फ एक ही नहीं बल्कि सभी पूंजीपति
ऐसा ही करते हैं। इसलिए प्रतियोगिता में
दूसरों को पछाड़ने हेतु हर पूंजीपति हमेशा नई तकनीक लाने का प्रयत्न करता है ताकि
कम श्रम से अधिक उत्पादन मुमकिन हो, उसे अधिक अधिशेष मूल्य या मुनाफा प्राप्त हो, जिससे वह बाजार में अपने माल की क़ीमत कम कर होड़
में अन्य पूंजीपतियों को ठिकाने लगा सके। इस तरह उत्पादन के लिए प्रयुक्त कुल
पूंजी में श्रम शक्ति की तुलनात्मक मात्रा कम होकर स्थाई पूंजी का अनुपात बढ़ता
जाता है अर्थात उतनी ही मात्रा में उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमिकों की संख्या कम
होती जाती है। अगर उत्पादन वृद्धि की असीमित संभावना हो तो इससे कोई समस्या नहीं
होती। पर पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन बाजार में विक्रय कर मुनाफा कमाने हेतु
होता है और बिक्री बाजार में खरीदारों की मांग अर्थात क्रय क्षमता से ज्यादा नहीं
हो सकती। इसलिए सब पूंजीपतियों द्वारा उत्पादन बढ़ाते जाने, श्रमिकों की तादाद को कम करते जाने से कृत्रिम
अति उत्पादन का संकट पैदा होता रहता है। इसे कृत्रिम अति उत्पादन इसलिए कहा जाता
है क्योंकि यह वास्तव में समाज की आवश्यकताओं से अधिक नहीं है बल्कि इसलिए क्योंकि
जरूरतें होते हुए भी अधिकांश लोग उत्पादित मालों को खरीदने की क्षमता नहीं रखते। इसका दूसरा नतीजा यह होता है कि मशीनों,
तकनीक में लगी स्थाई
पूंजी की मात्रा बढ़ते जाने से पूंजी पर मुनाफे की दर घटने लगती है। उदाहरण के तौर
पर अगर 100 रुपये की पूंजी
पर 20 रूपया मुनाफा था और
पूंजी को 200 रुपये करने पर
मुनाफा 30 रुपये हो जाये
तो कुल मुनाफे की रकम तो बढ़ी पर पूंजी के प्रतिशत के तौर पर यह 20% से घटकर 15% ही रह गया।
पूंजीवाद का संकट
ऊपर बताए गए इन दोनों नतीजों - बाजार में आ रहे उत्पादों का ना बिक पाना और
पूंजी की मात्रा पर मुनाफे की दर का कम होना -
की वजह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तीव्र संकट पैदा होता है। अपने माल
को बेचने और मुनाफे को बढ़ाने की पूंजीपतियों की आपसी स्पर्धा गलाकाट बन जाती है।
इस संकट के बढ़ते जाने पर कुछ पूंजीपतियों के दिवालिया होने और उनके उद्योगों के
बंद होने से हुए उत्पादन की शक्तियों के विनाश में ही इस संकट का अस्थाई समाधान होता
है जिससे कमजोर पूंजीपति प्रतिद्वंद्विता से बाहर हो जाते हैं या उन्हें बचे
पूंजीपतियों द्वारा खरीद कर अपना प्रबंधक बना लिया जाता है, उनका उत्पादन बाजार से निकल जाता है। इससे बचे हुए पूंजीपति कुछ समय के लिए सुरक्षित
हो जाते हैं तथा और बड़े हो जाते हैं। लेकिन फिर से पूंजी और उत्पादन बढ़ाने की होड़
चालू हो जाती है तथा नतीजे में कुछ वक्त बाद पहले से भी बड़ा संकट सामने आ प्रस्तुत
होता है। कई मौकों पर तो युद्धों का विनाश भी इन संकटों के अस्थाई समाधान के लिए
प्रयुक्त हुआ है।
अब आज की भारतीय अर्थव्यवस्था में मार्क्स द्वारा बताए गए इस नियम का प्रभाव
देखते हैं। पिछले 30 साल में भारतीय
अर्थव्यवस्था में नई तकनीक और स्वचालित मशीनों के प्रयोग से पूंजी निवेश स्तर का
लगभग 14-15% सालाना की दर से
बढ़ा है जबकि श्रमिकों की संख्या मात्र 1.5% सालाना की दर से बढ़ी है। अब तो श्रमिकों की संख्या बढ़ना बंद होकर घटने की
स्थिति आ गई है। नतीजे सामने हैं, पिछले दो साल से
रिजर्व बैंक बता रहा है कि अति-उत्पादन (जरूरतों से ज्यादा नहीं, हमारे खरीदने की शक्ति से ज़्यादा!) और बाजार
में घटी मांग की वजह से उद्योग स्थापित क्षमता के 70-72% पर ही काम कर पा रहे हैं। पिछले 1 वर्ष में तो रोजगार 20 लाख कम हुए हैं। 30 साल पहले जीडीपी 1% बढ़ती थी तो रोजगार में भी 0.9% इजाफा होता था। लेकिन अब 1% जीडीपी बढ़ने पर मात्र 0.1% रोजगार ही बढ़ते हैं। स्पष्ट है कि उद्योग में
लगी कुल पूंजी के जैविक संघटन में आनुपातिक रूप से श्रम की मात्रा कम होकर स्थाई
पूंजी की मात्रा बढ़ती जा रही है।
किंतु उद्योगों में स्थाई पूंजी की मात्रा बढ़ते जाने से मार्क्स द्वारा बताई
गई दूसरी बात भी वास्तविकता में सामने आ रही है। निवेश की गई पूंजी पर मुनाफे की दर जो 2008 तक बढ़ रही थी और जीडीपी का कुल 7.8% मुनाफे तक पहुँच गई थी, 2008 के आर्थिक संकट के बाद से घटने लगी है और
वित्त वर्ष 2016 में कम होकर 3.9% ही थी। इस वर्ष इसके और घटकर जीडीपी का 3% ही रह जाने का अनुमान है। ध्यान दें कि यहाँ
मुनाफे की कुल रकम की नहीं बल्कि प्रति इकाई पूंजी पर मुनाफे की दर की बात हो रही
है। शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों की कुल पूंजी पर प्राप्त रिटर्न की दर से भी
इसकी पुष्टि होती है। इस साल के शुरू में 3 अप्रैल को विश्लेषकों के अनुसार मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 50 कंपनियों के शेयरों पर इस वित्तीय वर्ष में 1719 रुपये प्रति शेयर आय का अनुमान था लेकिन जुलाई
आते-आते यह अनुमान कम होकर मात्र 1632 रुपये ही रह गया।
इस प्रकार मार्क्स द्वारा 150 वर्ष पहले
पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के नियमों के विश्लेषण के आधार पर किया गया आकलन
भारतीय अर्थव्यवस्था के आज के आर्थिक संकट पर पूरी तरह सटीक बैठता है। बीजेपी हो या
कांग्रेस किसी के भी द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था के इन मूल नियमों के विपरीत जा
पाना नामुमकिन है। हाँ, नीतियों के नाम,
ऊपरी स्वरूप, आदि जरूर भिन्न हो सकते हैं। आइये, देखते हैं कि कैसे ये नीतियां भी मार्क्स के
विश्लेषण के अनुसार ही हैं।
जैसा हमने ऊपर चर्चा की, इस संकट का नतीजा
होता है पूंजीपतियों के बीच गलाकाट होड़ और कुछ पूंजीपतियों का दिवालिया होकर उनके
उद्योगों का बंद हो जाना या बचे हुए पूंजीपतियों द्वारा खरीद लिया जाना। पिछले
सालों में बैंकों के कॉर्पोरेट कर्जों में बढ़ते एनपीए या कर्ज डूब जाना। क्षमता के
कम उपयोग और बिक्री की दिक्कत से कॉर्पोरेट क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक
संकट करते हुए अपने कर्ज की किश्त छोड़िये,
ब्याज तक चुकाने में
असमर्थ हो चुका है और लगभग 14 लाख करोड़ रुपये
के कर्ज संकट ग्रस्त हैं। इस संकट से निकलने के लिए सरकार एक दिवालिया कानून भी
लाई है जिससे या इनकी सम्पत्तियों को बेचकर इन्हें बंद किया जा सके या दूसरे
पूंजीपतियों को बेच दिया जाए। लेकिन इस प्रक्रिया में इन पर कर्ज की मात्रा का
सिर्फ 10-20% ही वसूल हो पा
रहा है। इससे बैंकिंग सिस्टम को हो रहे घाटे की पूर्ति के लिए सरकार पहले ही 56 हजार करोड़ रुपये दे चुकी है तथा अब 2 लाख 11 हजार करोड़ रुपये देने का ऐलान किया गया है। यह सब अंत में बढे टैक्सों,
बढ़ी कीमतों, तरह-तरह के शुल्कों-सेस, बैंकों में जमा पर घटते ब्याज और बढ़ते चार्जों,
आदि के द्वारा मेहनतकश
जनता से ही वसूल किया जाना है।
नोटबंदी, कैशलेस, डिजिटल, जीएसटी, आदि तमाम नीतियां भी छोटे-मध्यम उद्योगों की
लागत को बढाकर उन्हें अलाभकारी बनाकर बाजार से बाहर करने की प्रक्रिया को ही तेज
कर रही हैं। बड़े पैमाने पर ऐसे उद्योग तेजी से बंद हो रहे हैं और बाजार में इनका
हिस्सा बड़े उद्योगों के पास चला जा रहा है। नोटबंदी के बाद से 50 करोड़ रुपये से कम की सालाना बिक्री वाले इन
उद्योगों की बिक्री और मुनाफे में लगभग 50% तक की कमी आई है जबकि 1000 करोड़ से ज्यादा
बिक्री वाले उद्योगों की बिक्री में पिछले कई सालों के मुकाबले अधिक वृद्धि हुई
है। इससे मार्क्स द्वारा बताये गए नियम के अनुसार ही इजारेदारी अर्थात
अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ बड़े पूंजीपतियों द्वारा अपने
प्रतिद्वंद्वियों को बाहर कर एकाधिकार कायम करने की प्रवृत्ति-प्रक्रिया में तेजी
आई है। हालाँकि इसका नतीजा भी अंत में बढ़ती बेरोजगारी के रूप में श्रमिकों को ही
झेलना है।
फिर उपाय क्या है?
उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और मुनाफे के लिए उत्पादन की पूंजीवादी
उत्पादन व्यवस्था में इन समस्याओं का कोई समाधान संभव नहीं है। सिर्फ उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति को
समाप्त कर सामूहिक स्वामित्व में सबके द्वारा श्रम और सामूहिक आवश्यकताओं की
पूर्ति के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था ही उत्पादन की शक्तियों के ओर ज्यादा
विकास का रास्ता खोल सकती है क्योंकि तब सभी के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा,
मनोरंजन, आदि हेतु उत्पादन को इतना बढ़ाने की आवश्यकता
होगी कि समस्त वैज्ञानिक तकनीक के बाद भी सबके लिए काम न सिर्फ उपलब्ध हो बल्कि
अनिवार्य भी। साथ ही सबके लिए काम के घंटे कम भी किये सकेंगे जिससे संस्कृति,
साहित्य, कला जैसी चीजें भी बस खाये-अघाये मालिक वर्ग की
बपौती नहीं रहकर पूरे मानव समाज की सामूहिक उपलब्धि बन सकें। तभी समाज के प्रत्येक
व्यक्ति की असली स्वतंत्रता संभव होगी और उसका सम्पूर्ण विकास भी मुमकिन होगा।
29-10-2017
No comments:
Post a Comment