Please Read

Financial Crisis In India - Brief Study

Saturday, August 29, 2020

जीएसटी - कारण और प्रभाव

जीएसटी और अन्य टैक्स नीतियों का मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर असर

मजदूर बिगुल, मई 2016

पिछले कुछ सालों से बडी चर्चा है जीएसटी की। सारा बुर्जुआ प्रचार तंत्र और उसके भाँड अर्थशास्त्री -विशेषज्ञ ऐसा समां बाँधने की कोशिश कर रहे हैं कि जीएसटी लागू होने से अर्थव्यवस्था में बडी तेजी आयेगी, कारोबार में तरक्की होगी और रोजगार के मौके बढेंगे। कु्छ छोटे बिन्दुओं को छोडकर सारी बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियाँ भी इस पर कमो बेश एक राय हो चुकी हैं और अब सिर्फ एकमात्र शेष मुद्दा उनका आपस का यह द्वंद्व है कि किस को इसके लिये कितना श्रेय मिले। सवाल उठाना लाजिमी है कि आखिर जीएसटी में ऐसा क्या है कि पूरा बुर्जुआ तंत्र इस के लिये एक राय होकर इतना उतावला है और इसका मेहनतकश तबके के जीवन पर क्या असर होगा? इस दृष्टिकोण से इसका अध्ययन-विश्लेषण किया जाना बहुत जरूरी है।

जीएसटी लागू करने और इसके असर को समझने के लिये पहले हमें पूँजीवादी समाज में टैक्स नीति के कुछ मूल बिन्दूओं को समझना होगा। निजी सम्पत्ति पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था में राजसत्ता के खर्च को चलाने के लिये उत्पादन, आय, सम्पत्ति, व्यापार, आदि पर कर लगाना शासन व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। लेकिन यह सिद्धांत भी बुर्जुआ मानवतावादी जनतांत्रिक चिंतन की ही उपज था कि एक क्रमिक (Progressive) कर प्रणाली होनी चाहिये। इसका अर्थ है कि कर की दर आमदनी/सम्पत्ति के बढने के क्रम में बढनी चाहिये। लेकिन यह विचार 20वीं सदी में मजबूत मेहनतकश आन्दोलनों के डर से ही कुछ हद तक लागू हो पाया था। क्रमिक कराधान नीति के अनुसार व्यक्तिगत आयकर की दरें आमदनी के बढते क्रम में होनी चाहिये और कॉर्पोरेट कर भी इसके अनुरूप हो। साथ ही बडी सम्पत्ति पर सम्पत्ति कर और उसके उत्तराधिकार पर एस्टेट ड्युटी भी लगाई गयी। यह कर प्रणाली पूँजीवादी व्यवस्था में शोषण से मुक्ति तो नहीं पर मेहनतकश लोगों को कुछ तात्कालिक राहत प्रदान करती थी।

लेकिन जैसे ही मेहनतकश जनता के आन्दोलन अपने भटकावों की वजह से कमजोर पडे और पूँजीवादी व्यवस्था का संकट और तेज हुआ, बाकी देशों की तरह भारत में भी शासक वर्ग ने इस क्रमिक कर प्रणाली को बदलना शुरु कर दिया। लगातार परजीवी बनते पूँजीपति वर्ग ने नीति अपनाई करों का बोझ खुद से कमकर ज़्यादा से ज़्यादा पहले से ही शोषित मज़दूर, किसान, निम्न मध्य वर्गीय लोगों पर डालने की। इसके लिये आयकर/कॉरपोरेट कर की उच्चतम दरों को तो जाहिर है कम किया ही गया लेकिन और भी सूक्ष्म/जटिल कदम उठाये गये जो आम जनता को सीधे नजर न आयें लेकिन कर का बोझ अमीर तबके से कम कर गरीब लोगों के सिर पर डाल दें। इन उपायों की विस्तृत चर्चा नीचे है।

आय के कई स्रोत हैं। हालाँकि मेहनतकश लोगों के लिये तो उनकी मज़दूरी या छोटे-मोटे काम-धंधे से होने वाली बचत ही आय का मुख्य स्रोत है लेकिन जैसे-जैसे उच्च आय वर्ग की तरफ बढते हैं उनकी आय में वेतन का हिस्सा बहुत कम रह जाता है और उनकी ज़्यादातर आय आती है ब्याज, लाभांश और पूँजीगत लाभ से। ब्याज हम जानते हैं, लाभांश का मतलब है व्यवसाय के मुनाफे में पूँजी के मालिकों को मिलने वाला हिस्सा और पूँजीगत लाभ का मतलब है किसी सम्पत्ति – जमीन-मकान-शेयर-बॉन्ड्स, आदि – की कीमत में होने वाली बढत से मिलने वाला लाभ। तो चालाकी से परिवर्तन यह किया गया कि आय के इन स्रोतों पर वेतन आदि जैसी आयकर की सामान्य दरें लागू होने के बजाय कम दरें लागू की गईं। जैसे लाभांश पर बहुत साल से शून्य आयकर था; अब 10 लाख से ऊपर वाली रकम पर दोबारा लगाया गया लेकिन सामान्य 30% के बाजाय सिर्फ 10%। इसी प्रकार पूँजीगत लाभ पर शून्य, 5, 10 या 20% की दरें है (20% की दर के साथ उसे कम करने के लिये सूचीकरण का उपाय भी साथ ही है)। साथ ही सम्पत्ति कर और एस्टेट ड्युटी तो समाप्त ही कर दी गयी है। इस सबका सीधा नतीजा है कि जहाँ हमें बताया जाता है कि अमीर लोगों पर 30% का आयकर है वहाँ असल में सबसे अमीर लोगों को आपनी आय का लगभग मात्र 10 – 15% ही टैक्स देना होता है, वह भी अगर चोरी न करें तो! अगर कम्पनियों की बात करें तो इस बार के बजट में सरकार ने खुद बताया है कि घोषित 30% की दर के बजाय सबसे बडी कम्पनियाँ सिर्फ 21% की दर से ही कॉर्पोरेट टैक्स का भुगतान करती हैं।

अब बात करें गरीब मेहनतकश जनता पर लगने वाले करों की। कुछ लोग आश्चर्य करेंगे कि क्या गरीब लोग भी टैक्स देते हैं! ऐसा एक दुष्प्रचार समाज में खडा किया गया है कि सिर्फ 4% लोग ही टैक्स देते हैं और गरीब लोग सिर्फ सरकार से सबसिडी पाते हैं। लेकिन यह सच नहीं है – देश के सब लोग टैक्स देते हैं, गरीब से गरीब मज़दूर भी। असल में ऊपर जिन करों की बात हमने की वह हैं प्रत्यक्ष कर यानी जिस पर टैक्स लगा उसने दिया। दूसरे किस्म के कर हैं अप्रत्यक्ष कर जो लगते कम्पनियों/व्यापारियों पर हैं लेकिन जिनको आखिर देता आम नागरिक है क्योंकि वस्तुओं-सेवाओं की कीमतों में इन्हें शामिल कर लिया जाता है! यह है सेल्स्, वैट, एक्साइज, कस्टम्स, सर्विस टैक्स, चुंगी, आदि। तथाकथित आर्थिक सुधारों का एक पहलू इस प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को लगाना और बढाना है। कुछ साल पहले 8% से शुरु हुआ सर्विस टैक्स देखते-देखते 15% पहुँच चुका है।

तीसरा पहलू है कर प्रणाली और सामान्य अर्थव्यवस्था में ऐसे नियम बनाना जिससे पूँजीपति तबका अपनी आमदनी/दौलत के एक बडे हिस्से को देश के बाहर ले जा सकें और कोई भी टैक्स न चुकायें। अगर वोडाफोन के मामले पर ध्यान दें तो पहले हच नाम की कम्पनी भारत में अपना मोबाइल कारोबार चलाती थी। फिर उसने यह कारोबार वोडाफोन को बेच दिया लेकिन भारत में स्थित सम्पत्ति की खरीद-बिक्री का यह काम हांगकांग में कर लिया गया और इस तरह लगभग 9,000 करोड रुपये का टैक्स बचा लिया गया। ऐसे ही अन्य बहुत से मामले हैं भारत में कारोबार करते या सम्पत्ति रखते बहुत सारे लोग खुद को दूसरे देशों का निवासी/नागरिक घोषित कर यहाँ शून्य या बहुत कम टैक्स अदा करते है।

अब इस परिस्थिति में देखते हैं जीएसटी को। ऊपर बताये गये अप्रत्यक्ष करों – सेल्स, सर्विस, एक्साइज, चुंगी, वैट, आदि – को मिलाकर अब एक नया कर जीएसटी लगाने का प्रस्ताव है। जीएसटी का एक मकसद तो है पूरे देश के पैमाने पर एक ही टैक्स व्यवस्था लागू करना। इससे पूरे देश में कारोबार करने वाली कम्पनियों को टैक्स के हिसाब व कागजी कार्रवाई में सहूलियत होगी। दूसरे, अभी सभी राज्यों में अलग नियम व कर दरें होने से बडी कम्पनियों को विभिन्न राज्यों के बाजार में कारोबार के लिये स्थानीय कारोबारियों के साथ अलग-अलग तरीके से प्रतियोगिता के लिये तैयार होना पडता है। जीएसटी लागू होने से पूरे देश का बाजार अब एक ही नियमों से संचालित होगा और बडे पूँजीपतियों के लिये इस ऐकीकृत बाजार में अपनी इजारेदारी/नियंत्रण स्थापित करना आसान हो जायेगा। आज बहुत सारी कम्पनियों को राज्यों के भिन्न टैक्स कानूनों के कारण राज्यवार अपने कारोबार को संचालित करना पडता है और कई मामलों में इस हिसाब से कुछ फैक्टरियाँ/गोदाम बनाने की भी जरूरत पडती है। जीएसटी लागू होने से यह जरूरत कम होगी और कुछ स्थानों से ही वह कुशलता से अपना कारोबार चला सकेंगी। कुछ स्थानों पर केन्द्रीकृत बडे कारखानों/गोदामों को चलाने के लिये कम मज़दूरों/कर्मचारियों की जरूरत होगी और वह श्रमिकों के वेतन पर अपना खर्च कम करने की स्थिति में होंगी; मतलब और मुनाफा। यही वजह है कि फिक्की, ऐसोचैम, सीआयीआयी, आदि पूँजीपतियों के संगठन इसके लिये सरकार और राजनीतिक दलों पर भारी दबाव बनाये हुए हैं।

जीएसटी का दूसरा पहलू है जनता पर इसका असर अर्थात ज़्यादा से ज़्यादा वस्तुओं और सेवाओं को करों के दायरे में लाना और इन करों की दर को ऊँचा करना। अभी जीएसटी के लिये 18 से 22% तक की दर की चर्चा सुनने में आ रही हैं अर्थात इसके लागू होने पर ज़्यादातर वस्तुओं-सेवाओं पर इतना कर देना पडेगा। उदाहरण के लिये 100 रुपये का मोबाईल रिचार्ज कराने पर उसका 18 से 22% प्रतिशत जीएसटी में जायेगा। नतीजा, और महँगाई। जिन देशों में पहले जीएसटी लागू हुई है उनमें ज़्यादातर में इसके बाद मुद्रास्फीति/महँगाई में वृद्धि हुई है; और भारत में यह मानने की कोई वजह नहीं कि ऐसा नहीं होगा।

तीसरी बात है कि यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर होगी लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होगा। जहां ज़्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं तो उनकी पूरी आय पर यह 18 से 22% टैक्स लग जायेगा क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगेगा। वहीं क्योंकि अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है तो आमदनी के हिस्से के रूप में देखा जाये तो वास्तव में गरीब मेहनतकश लोगों पर ज़्यादा टैक्स और जितना अमीर उतना ही कम!

कुल मिलाकर देखा जाये तो जीएसटी समेत इन टैक्स नीतियों की दिशा है पूँजीपति वर्ग को करों के बोझ से जितना हो सके बचाना और पूँजीवादी राजसत्ता को संभालने का बोझ भी पहले से ही शोषित-पीडित मेहनतकश तबके पर बढाना और उसकी पहले से ही सीमित आय में इस जरिये से और भी कटौती कर देना। इसका नतीजा होगा पूँजीपतियों के हाथ में धन और सम्पदा का और भी ज़्यादा केन्द्रीकरण और मज़दूर वर्ग की जिन्दगी में और भी ज़्यादा तबाही। असल में आज की स्थिति में शासक पूँजीपति वर्ग की वर्तमान व्यवस्था के संचालन में भी सिर्फ एक ही भूमिका रह गयी है – परजीवी जोंक की तरह सिर्फ खून चूसना। इसके सिवा उसका अन्य कोई योगदान नहीं है।

 

 जीएसटी : कॉरपोरेट पे करम, जनता पे सितम का एक और औज़ार

मजदूर बिगुल, जुलाई 2017

आखि़र केन्द्र-राज्यों में सत्ताधारी सभी पार्टियों ने पूर्ण सहमति से जीएसटी की दरें और नियम तय कर 1 जुलाई से इसे लागू कर दिया। पूँजीपति वर्ग के सभी संगठनों, कारपोरेट नियन्त्रित मीडिया और आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा इसे ऐतिहासिक आर्थिक सुधार बताकर इसकी भारी वाहवाही की जा रही है। जीएसटी क़ानून बनाने में एक राय से सहमति जताने वाले कुछ विपक्षी भी सिर्फ़ इस बात की आलोचना कर रहे हैं कि इसे बगै़र पूरी तैयारी के लागू किया जा रहा है। तो क्या माना जाये कि पूरी तैयारी से लागू होने पर यह जनता के हित में होता? लेकिन इस क़िस्म की आलोचना एक समान हितों वाले वर्ग-रहित समाज में ही की जा सकती है। किन्तु हमारा समाज ऐसा समानता पर आधारित समाज नहीं है। इसमें जहाँ एक ओर 81% सम्पत्ति के मालिक 10% लोग हैं, वहीं ग़रीबी में जीते बहुसंख्यक मज़दूर-किसान और बहुत से छोटे काम-धन्धे करने वाले लोग भी हैं। इस समाज में कोई भी नीति ऐसी नहीं हो सकती जो सब वर्गों के लिए समान हितकारी हो और हर नीति का विश्लेषण इस आधार पर होना चाहिए कि इसका फ़ायदा किस तबक़े को होगा, नुक़सान किस तबक़े को। ऐसे वर्ग विभाजित, ग़ैर-बराबरी और शोषण पर आधारित समाज में प्रत्येक नीति का विभिन्न वर्गों की जि़न्दगी पर असर समझे बग़ैर की गयी कोई भी चर्चा निरर्थक या गुमराह करने वाली है। इस दृष्टिकोण से इसके कुछ अहम बिन्दुओं की चर्चा ज़रूरी है।

जीएसटी उत्पादन और बिक्री की प्रत्येक अवस्था में जोड़े गये मूल्य पर लगने वाला कर है, जिसे अन्तिम ख़रीदार या उपभोगकर्ता को चुकाना होता है। ऐसे करों को अप्रत्यक्ष कर कहा जाता है, क्योंकि ये कहने के लिए उत्पादक पर लगते हैं लेकिन इन्हें चुकाता उपभोक्ता है। पूँजीवादी जनवाद के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो अप्रत्यक्ष करों के दायरे को बढ़ाना एक प्रतिगामी क़दम है, क्योंकि इनकी दर सभी के लिए ‘समान’ होने से आमदनी के हिस्से के तौर पर देखें तो जितनी कम आमदनी हो उसका उतना बड़ा हिस्सा कर में देना पड़ता है और जितनी ज़्यादा आमदनी उतना कम हिस्सा। अर्थात इनका बोझ ग़रीब लोगों पर ज़्यादा और अमीर लोगों पर कम होता है। अगर तुलनात्मक रूप से विकसित पूँजीवादी देशों को भी देखें तो वहाँ कुल करों का दो तिहाई प्रत्यक्ष करों और एक तिहाई अप्रत्यक्ष करों से वसूल किया जाता है। भारत में पहले ही ठीक इसका उल्टा है अर्थात दो तिहाई अप्रत्यक्ष करों के ज़रिये आता है और अब इनका दायरा और बढ़ाया जा रहा है। इसके विपरीत ज़्यादा आमदनी पर ज़्यादा लगने वाले प्रत्यक्ष करों – आयकर, कारपोरेट कर, सम्पत्ति कर, विरासत कर, आदि में छूट दी जा रही है या ख़त्म किया जा रहा है। इस तरह जीएसटी के द्वारा अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि से श्रमिकों को प्राप्त मज़दूरी का और बड़ा हिस्सा राज्य द्वारा लगान के रूप में लिया जाकर उनके शोषण को और तीव्र करेगा।

बहुत सारे छोटे व्यवसाय अब तक कर के दायरे से बाहर थे। अब इनमें से बहुत सारे कर के दायरे में आयेंगे। इससे इनकी लागत – कर की रक़म और प्रशासनिक लागत – दोनों तरह से बढ़ेगी। छोटे कारोबारियों की लागत बढ़ने, अन्तरराज्यीय कारोबारियों की लागत और प्रशासनिक बोझ कम होने, एक राज्य से दूसरे में यातायात-सप्लाई की रुकावटें कम होने से छोटे, अनौपचारिक कारोबारों को मिलने वाला स्थानीयता का लाभ समाप्त होगा। बड़े उद्योगों को उत्पादन और भण्डारण दोनों को कम स्थानों पर केन्द्रित कर पाना सम्भव होगा, जिसके चलते वह बड़े पैमाने के उत्पादन को अधिक पूँजी निवेश द्वारा और अधिक मशीनीकृत-स्वचालित कर उत्पादकता को बढ़ा पायेंगे। इस स्थिति में छोटी पूँजी वाले उद्योग और व्यापार बड़ी पूँजी वाले उद्योग-व्यापार के मुक़ाबले प्रतियोगिता में नहीं टिक पायेंगे। इसी तरह बहुत से कारीगर, दस्तकार, बुनकर, पॉवरलूम चलाने वाले स्वयं के धन्धे में लगे या कुछ मज़दूर लगाकर काम करने वाले उद्यमी भी बढ़ती लागत से अब बाज़ार में नहीं टिक पायेंगे और बड़े पूँजीपति के कारोबार में श्रमिक बन जायेंगे। उदाहरण के तौर पर निर्माण उद्योग के बाद श्रमिकों की संख्या की दृष्टि से दूसरे सबसे बड़े टेक्सटाइल उद्योग में स्थिति लघु इकाइयों के सामने संकट अत्यन्त गहरा है। महाराष्ट्र टेक्सटाइल प्रोसेसर एसोसिएशन के सेक्रेटरी ने कहा ही है – ‘85% लूम्स में बहुत छोटे व्यापारी हैं। जीएसटी डिसेण्ट्रलाइज़ सेक्टर को ख़त्म कर देगा। कम्पोज़िट मिल से हमारा कपडा महँगा हो जायेगा और सिर्फ़ बड़े संगठित प्लेयर को फ़ायदा होगा।’ इसीलिए सूरत, भिवण्डी, मुम्बई सब जगह ये उद्यमी अपने लूम्स को बन्द कर हड़ताल, धरना, प्रदर्शन में लगे हैं। इसी तरह छोटे दुकानदारों की क़ीमत पर बड़े मॉल और कारपोरेट स्टोर्स को लाभ होगा तथा छोटे दुकानदार इनमें कर्मचारी बनने के लिए मजबूर होंगे। इससे बडे पूँजीपतियों की इजारेदारी बढ़ेगी। इसीलिए पूँजीपतियों के सारे संगठन और उनका भोंपू मीडिया इसके पक्ष में इतने साल से माहौल बना रहा है।

लेकिन आज भारत में 90% रोज़गार अनौपचारिक, लघु क्षेत्र में है। संगठित क्षेत्र के बड़े उद्योगों को उन्नत आधुनिक तकनीक, श्रमिकों पर अधिक उत्पादकता के दबाव, परिमाण की मितव्ययिता, आदि की वज़ह से उतने ही उत्पादन के लिए कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इसलिए इसलिए अनौपचारिक, लघु उद्योगों की क़ीमत पर बड़े उद्योगों की इज़ारेदारी के बढ़ने से रोज़गार के अवसर और भी कम होंगे। साथ ही इन छोटे उद्यमियों के समाप्त होकर श्रमिक बन जाने से बेरोज़गारों की रिज़र्व फ़ौज और बड़ी होगी जिससे पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए श्रम शक्ति के मूल्य अर्थात मज़दूरी को और भी कम करने का प्रयास करेगा। इस प्रकार मालिक पूँजीपति और श्रमिक वर्गों के बीच अन्तर्विरोध और संघर्ष और गहन एवं तीव्र होगा।

छोटे, अनौपचारिक उद्योगों पर इस संकट की मार पहले ही नोटबन्दी के द्वारा शुरू हो चुकी है, जिसके बाद के 4 महीनों जनवरी-अप्रैल में सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी के अनुसार 15 लाख नौकरियाँ कम हुई हैं। अब जीएसटी लागू होने के बाद यह प्रक्रिया और तेज़ होगी। लुधियाना, सूरत, भिवण्डी जैसे स्थानों से आने वाली रिपोर्टें पहले ही इसकी पुष्टि कर रही हैं, जहाँ लघु औद्योगिक इकाइयों द्वारा उत्पादन में कमी से श्रमिकों को छँटनी का सामना करना पड़ रहा है, उद्यमी कारीगरों-दस्तकारों के पास माल बनाने के आॅर्डर से उनका काम भी बन्द है और इनके माल के छोटे व्यापारी बिक्री के अभाव में ख़ाली बैठे हैं या जुलूस-धरने में लगे हैं।

जहाँ तक क़ीमतों का सवाल है, अधिक उत्पादों और कारोबारियों को कर दायरे में आने की वजह से बहुत से उत्पादों की क़ीमतें बढ़ना तय है। हालाँकि पहले से कर दायरे में आने वाले औपचारिक, संगठित क्षेत्र के उद्योगों को पिछले टैक्स का क्रेडिट अगले चरण में मिलने की वजह और कुछ उत्पादों पर कर की कम दर से उनके कुछ उत्पादों की क़ीमतें कम होंगी जैसे महँगी कारों या आई फ़ोन की क़ीमतों में कमी आयी है। इससे उच्च और मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं के लिए महँगाई का असर सम्भवतः उतना ज़्यादा नहीं भी हो, पर ग़रीब जनता द्वारा उपभोग की वस्तुओं पर महँगाई निश्चित ही बढ़ेगी, क्योंकि ये अधिकतर अनौपचारिक क्षेत्र के कर दायरे से बाहर के उत्पादों को छोटे दुकानदारों से ख़रीदते रहे हैं, जो अब कर दायरे के अन्दर होंगे।

पहले जीएसटी का एक मुख्य लाभ यह भी बताया गया था कि समान दरों, सरल प्रक्रियाओं से भ्रष्टाचार और कर चोरी कम होगी। लेकिन अब निर्धारित कई दरों, अधिभार, वस्तुओं के जटिल वर्गीकरण और दुरूह प्रक्रियाओं ने इससे चोरी-भ्रष्टाचार कम होने वाली बात की भी हवा पहले ही निकाल दी है। जैसे इंस्टेण्ट कॉफ़ी और रोस्टेड कॉफ़ी अलग दरों में आती हैं, होटल के कमरों पर किराये के आधार पर अलग दरें हैं। यही सब चीज़ें नौकरशाही के लिए सबसे प्रिय होती हैं, क्योंकि यह उन्हें मनमानी तरीक़े से कर निर्धारण और हेराफे़री का मौक़ा देती हैं। पर शायद कुछ और होने की आशा ही ग़लत होती, क्योंकि पहले से मौजूद क़ारोबारी-राजनीति-नौकरशाही गँठजोड़ के इस आधार को ही ख़त्म करने का जोखिम इनमें से कौन लेता!

जीएसटी का एक और पहलू विकास में क्षेत्रीय असन्तुलन है। असन्तुलित, असमतल आर्थिक विकास सामाजिक पैमाने पर अव्यवस्थित पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का अनिवार्य परिणाम है। योजनाबद्ध विकास के अभाव वाली पूँजीवादी व्यवस्था की वजह से पहले से ही भारत में भी विभिन्न राज्यों-क्षेत्रों के बीच असमतल विकास और क्षेत्रीय असन्तुलन एक बड़ी समस्या है जिसका प्रभाव राजनीति में जनता के बीच क्षेत्रीय वैमनस्य को पैदा करने के लिए किया जाता रहा है। पहले से ही असमतल क्षेत्रीय विकास की स्थिति में एक समान कर और एक बाज़ार की यह नीति इस इलाक़ाई असन्तुलन को और बढ़ायेगी, जैसे कि 1949 की पूरे देश में हर दूरी के लिए समान रेलवे भाड़ा नीति ने किया था और खनिज सम्पदा वाले राज्य जैसे तबका बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास में पिछड़ गये क्योंकि वहाँ प्राप्त होने वाले खनिज समान क़ीमत पर दूर-दराज के राज्यों में भी उपलब्ध थे और इस नीति से उन्हें इस खनिज उत्पादन का कोई लाभ नहीं मिला।

कुल मिलाकर देखा जाये तो पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी के संकेन्द्रण और इजारेदारी को बढ़ाने वाली जीएसटी की नीति से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अन्तर्निहित किसी समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। बल्कि यह तात्कालिक रूप से इजारेदार पूँजी के मुनाफ़े को बढ़ाने हेतु टटपुँजिया वर्ग को बरबाद कर उन्हें श्रमिकों की श्रेणी में धकेलने की प्रक्रिया तेज़ करेगी, बेरोज़गारी की फ़ौज की तादाद को बढ़ायेगी, श्रमिकों की माँग और मज़दूरी को नीचे की और ले जायेगी। इससे उनकी क्रय शक्ति और कुल बाज़ार माँग कम होगी। इसके नतीजे में कुछ समय बाद बाज़ार में अतिउत्पादन का और भी गहरा संकट पैदा होगा।

 

Thursday, July 2, 2020

रेलवे निजीकरण - कारण और ब्रिटिश रेल निजीकरण के कुछ सबक

भारत में रेलवे ट्रेनों के परिचालन का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो रहा है। लगभग 150 गाड़ियों के परिचालन को निजी हाथों में सौंपने के लिए टेंडर जारी किया गया है। रेल मंत्री का कहना है कि इससे सुविधायें बेहतर होंगी, रोजगार बढ़ेगा, सेवायें कार्यकुशल होंगी व सरकार पर सबसिडी का बोझ घटेगा। मध्य वर्ग के बहुत सारे लोग भी इसे सही मानते हैं हालांकि कोविड महामारी के दौरान निजी स्वास्थ्य सेवाओं का कड़वा अनुभव बहुत से लोगों ने हाल में ही देखा है।
 
वहीं 1990 के दशक में रेलवे का निजीकरण करने वाले ब्रिटेन का अनुभव देखें तो वहाँ यह पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ है। कुछ साल बाद 2000 में ही दिवालिया हुई ट्रैक/सिग्नल/स्टेशन व अन्य आधारभूत ढाँचा चलाने वाली कंपनी को तो उसके कुछ समय बाद ही वापस सार्वजनिक करना पड़ा था। अब एक के बाद लाइनों को भी वापस राष्ट्रीयकृत करना पड़ रहा है क्योंकि निजी पूँजीपतियों ने महँगे किरायों पर मुनाफा लूटकर रेल सेवाओं को बरबाद कर दिया या उन्हें दोबारा निजी कंपनियों को कम शुल्क व अधिक सबसिडी के साथ चलाने के लिए दिया जा रहा है। 1 मार्च 2019 से मैंचेस्टर-लिवरपूल क्षेत्र की नॉर्दर्न रेल को सरकार को वापस अपने हाथों में लेना पड़ा। उसके दो साल पहले एक और महत्वपूर्ण ईस्ट कोस्ट लाइन का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। उस समय मैंने यह टिप्पणी लिखी थी -

“राष्ट्रीयकरण/निजीकरण - एक ही नीति के दो चेहरे
बात ब्रिटेन की है पर कहानी दुनिया भर की है। ब्रिटेन में जॉन मेजर ने रेल का निजीकरण किया था, अब उसी कंजरवेटिव पार्टी की टेरेजा मे सरकार उसका वापस राष्ट्रीयकरण कर रही है। जब निजीकरण हुआ तो बनी-बनाई रेलवे लाइनें, रेलगाडियाँ और पूरा ढांचा निजी क्षेत्र को बिना इकन्नी खर्च हुए मिला, उन्हें बस सालाना शुल्क देना था। उन्होने कुछ साल में ही भाड़ा तीन गुना बढ़ा दिया, पर उन्हें हमेशा 'घाटा' ही होता रहा! सरकार उन्हें और रियायतें देती रही, पर घाटा होता रहा, भाड़ा भी बढ़ता रहा!! पर कमाल की बात ये कि वे घाटे के बावजूद भी 'देशसेवा' में रेल को चलाते रहे, और इतने घाटे के बावजूद भी निजी क्षेत्र के मालिक और भी दौलतमंद बनते गए!!!
इन्हीं मालिकों में से एक रिचर्ड ब्रांसन है, जिसकी वर्जिन एयरलाइन के बारे में भारत में भी बहुत से लोग वाकिफ हैं। ब्रांसन की कंपनी भी लंदन से लीड्स, न्यूकैसल, ग्लासगो की पूर्वी तटीय रेल को 'घाटे' में चलाती रही और ब्रांसन 'घाटे' में रहते हुए भी जमीन से आसमान में नए-नए कारोबार शुरू करता रहा, और अमीर बनता गया।
कुछ दिन पूर्व अचानक ब्रांसन ने ऐलान कर दिया कि अब उसे और घाटा बर्दाश्त नहीं, इसलिए अब वह शुल्क नहीं दे सकता। तो सरकार ने क्या किया? आज उस कंपनी का राष्ट्रीयकरण हो गया - कंपनी को उसकी सारी देनदारियों समेत सरकार ने ले लिया, यहाँ तक कि कंपनी के सारे प्रबंधक उन्हीं पदों और वेतन पर बने रहे। जब तक कारोबार में दिखावटी घाटे के बावजूद मलाई मौजूद थी, कंपनी निजी रही। जब मलाई खत्म हुई और असली वाला घाटा शुरू हुआ तो घाटे का 'राष्ट्रीयकरण' कर दिया गया! कमाल की बात यह कि लंदन से बर्मिंघम, मैंचेस्टर, लिवरपुल की पश्चिम तट रेल भी ब्रांसन की ही दूसरे नाम की कंपनी के पास है, पर उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ, क्योंकि ब्रांसन ने उसे चलाने से मना नहीं किया (वहाँ अभी मलाई की गुंजाइश बाकी है!) अर्थात कौन कंपनी निजी रहे, किसका राष्ट्रीयकरण हो यह तय ब्रांसन कर रहा है, सरकार सिर्फ फैसले पर अमल कर रही है!
यही पूंजीवाद में निजीकरण -राष्ट्रीयकरण की नीति का मूल है - जब पूँजीपतियों को निजीकरण से लाभ हो तो सरकारें प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने के नाम पर निजीकरण करने लगती हैं; जब पूँजीपतियों को राष्ट्रीयकरण में फायदा दिखे तो सरकारें 'समाजवाद' और 'कल्याण' की बातें करने लगती हैं। दुनिया भर के संसदीय वामपंथी इसे ही 'शांतिपूर्ण रास्ते से समाजवाद' की ओर अग्रसर होना बताकर वाह-वाह में जुट जाते हैं।“
 
जहाँ तक भारत में अभी होने वाले ट्रेन परिचालन के निजीकरण की बात है, उसके चरित्र की एक खास बात समझने लायक हैं। आम तौर पर कोई कारोबार शुरू करते हुये पूंजीपति को सबसे बड़ी राशि जड़ (fixed) पूंजी में लगानी पड़ती है जिसकी वापसी कई सालों में थोड़ा-थोड़ा कर होती है। इसके ऊपर एक राशि चालू (circulating) पूंजी में लगती है जो कारोबार की प्रकृति के अनुसार सावधिक तौर पर अपना चक्र पूरा करती रहती है, इसमें मजदूरी और कच्चा/सहायक माल होते हैं।
 
रेलवे जैसे उद्योग में में जड़ पूंजी की बहुत बड़ी मात्रा चाहिये जिसकी वापसी में 15-20 साल तक लगते हैं। मगर सिर्फ किसी ट्रेन का परिचालन हाथ में लेने में जड़ पूंजी की लगभग नगण्य मात्रा का ही निवेश करना पड़ेगा - भूमि, ट्रैक, रेल, स्टेशन, विद्युत-सिगनल, नियंत्रण व्यवस्था सब में सार्वजनिक पूंजी ही रहेगी। निजी ऑपरेटर ट्रेन के चक्कर के हिसाब से शुल्क देगा या कुल कमाई का एक हिस्सा, कुछ कर्मचारी रखेगा और भाड़ा वसूल कर अपना मुनाफा काट लेगा। बिना किसी खास जोखिम पक्का मुनाफ़ा। घाटे का लगभग सारा जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहेगा। इस तरह सार्वजनिक पूंजी के बल पर निजी पूंजीपति मुनाफ़ा कमाता और पूंजी संचयन करता जायेगा और एक दिन खुद रेलवे के एक हिस्से को खरीदने लायक पूंजी एकत्र कर लेगा। या जहाँ कहीं उसे मुनाफा कम होता दिखाई देगा, परिचालन छोड़ भाग खड़ा होगा जैसे अनिल अंबानी ने दिल्ली मेट्रो की एयरपोर्ट लाइन में किया।

ऐसा ही अनुभव ब्रिटेन में रेल निजीकरण का रहा है। वहाँ निजी ऑपरेटरों ने भाड़े इतनी तेजी से बढ़ाये कि आज वहाँ समान दूरी के लिए मासिक सीजन टिकट समान स्तर की यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं फ्रांस व इटली से 5-6 गुने तथा जर्मनी से 3 गुना से अधिक हैं। इसका नतीजा है कि वेस्ट कोस्ट लाइन पर 1997 में मात्र 2 करोड़ पाउंड निवेश करने वाली वर्जिन व स्टेजकोच को 2012 तक ही 50 करोड़ पाउंड का शुद्ध लाभ हो चुका था। लेकिन कई लाइनों पर रेलवे ढाँचे को निचोड़ने के बाद निजी कंपनियों के उन्हें छोड़ भागने का भी बड़ा इतिहास है। जिसके चलते गाड़ियों की लेटलतीफी और दुर्घटनायें भी बहुत अधिक बढ़ी हैं।
 
इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नेटवर्क रेल उस रेल लाइन का आधारभूत ढाँचा सुधारने में भारी खर्च करती है फिर लाभप्रदता के नाम पर निजी ऑपरेटर द्वारा देय शुल्क घटा देती है। इस तरह निजीकरण के बाद सरकारी सबसिडी घटने के बजाय असल में 2019 तक दो गुना हो गई जबकि इस सबसिडी को घटाने के नाम पर ही रेलवे को निजी हाथों में सौंपा गया था। किन्तु अब सबसिडी का लाभ यात्रियों को नहीं निजी पूँजीपतियों को मिलने लगा। लंदन की अंडरग्राउंड के निजी किए जाने का तजुरबा भी ऐसा ही है। यहाँ भी निजी ऑपरेटर अपना मुनाफा कमाने के बाद बार-बार भाग खड़े हुये और नुकसान सार्वजनिक क्षेत्र को सहना पड़ा।

ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। 1943 में ही 'बॉम्बे प्लान' के जरिये टाटा, बिड़ला, साराभाई, श्रीराम, पुरुषोत्तम दास, आदि उस वक्त के बड़े पूँजीपतियों ने स्वतंत्र भारत में बड़ी मात्रा में जड़ पूंजी में निवेश वाले उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखने की योजना यूँ ही तो प्रस्तुत नहीं की थी। सार्वजनिक क्षेत्र अब तक भी विभिन्न रूपों में यही करता आया है और उसके द्वारा पूंजी संचयन करने वाले पूंजीपति अब उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में उसे पीछे छोड़ चुके हैं। जो असहमत हों वे सार्वजनिक उपक्रमों के प्रत्येक क्षेत्र में निजी ठेकेदारों की भूमिका देख सकते हैं। अब यह प्रक्रिया सिर्फ तेज होकर धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर मालिकाना स्थानांतरण की ओर बढ़ रही है।



Wednesday, May 20, 2020

अपूर्वानंद - रंगे सियार लिबरल का डर

मुझे अपूर्वानंद से गहरी हमदर्दी है क्योंकि लेनिन के नाम से उनको लगने वाला डर भयानक पर सच्चा एवं वास्तविक है। उनका यह डर हर रंगे सियार लिबरल के मन के एक कोने में छिपा वह डरावना स्वप्न है जिसके अब वास्तविकता में बदल जाने की आशंका से वह थर-थर काँप रहा है। उनके ही शब्दों में यह डर है सर्वहारा द्वारा अपने 'वर्ग शत्रुओं' को दिया जाने वाला त्वरित दंड। उनकी नजर में अपने वर्ग शत्रुओं को ऐसा दंड देकर सर्वहारा वर्ग पशुवत कठोर कातिल बन जाता है।

पर बहुत दिनों से मृततुल्य बताये जा रहे वामपंथी आंदोलन से अपूर्वानंद को अचानक इतना डर क्यों? उनका यह डर पैदा हुआ है मोदी सरकार द्वारा कोरोना से निपटने के नाम पर की गई तालाबंदी के खिलाफ फूट पड़े मजदूरों के भारी गुस्से और विद्रोह - असंगठित, अचेतन, बिखराव भरा, हताशा जनित ही सही पर फिर भी फासिस्ट सत्ता के पुलिसिया डंडे और बूटों के खिलाफ एक विशाल संख्या में विद्रोह और उस बिखरे विद्रोह और भयानक कष्टों के बीच में भी दिखाई दे रही दुनिया का निर्माण करने वाले मजदूर वर्ग की असीम ऊर्जा व दृढ़ इच्छाशक्ति से।

एक रंगे सियार लिबरल की पूरी धूर्तता से मेहनतकश अवाम पर फासिस्ट हुकूमत द्वारा ढाये जा रहे इस जुल्म की तुलना अपूर्वानंद संघी फासिस्टों के सुविज्ञात वैचारिक-सांगठनिक पुरखों हिटलर-मुसोलिनी के अत्याचारों से नहीं, लेनिन के नेतृत्व में रूस में मजदूर वर्ग द्वारा की गई ऐतिहासिक नवंबर क्रांति से करते हैं। यही दिखा देता है कि एक 'सच्चे लिबरल' होने के नाते अपूर्वानंद अच्छी तरह जानते हैं कि उनके असली रिश्ते-नातेदार कौन हैं और वास्तविक दुश्मन कौन। उनका डर है कि जिस दिन उन्हें सारे सियारों की हुआं-हुआं की पुकार पर अपना चढ़ाया हुआ नकली रंग उतारकर अपने असली रूप मे आना पड़ा तो सब पायेंगे कि वे हिटलर-मुसोलिनी-मोदी-भागवत के कुनबे वाले ही हैं, जिनके असली, सबसे बड़े दुश्मन मजदूर वर्ग की राजनीति करने वाले वामपंथी हैं।

ऐसे रंगे सियार लिबरल अब तक हमें ही नहीं खुद को भी समझा रहे थे कि पिछले दशकों के तकनीकी विकास और उत्पादन प्रक्रिया के नवोन्मेष ने एक वर्ग के तौर पर सर्वहारा को तितर-बितर व समाप्त कर दिया है, वह अब 'आंत्रप्रेन्योर' बनकर प्रगति में पूँजीपति वर्ग का हिस्सेदार हो गया है; मजदूर वर्ग के जुझारू आंदोलनों का समय समाप्त हो गया, तीव्र वर्ग संघर्षों का डर अब नहीं रहा, क्रांतिकारी वामपंथ अब नहीं रहा। ऐसे भ्रम के माहौल में रंगे सियार लिबरलों के लिए मुमकिन हो गया था कि वे अपने असली रंग-रूप, किरदार को छिपा लें, जनवादी समाजवाद-अस्मितावाद-नारीवाद-सामाजिक न्याय-यौनिक स्वतंत्रता वगैरह वगैरह के तमाम उत्तरआधुनिकतावादी ढोंगों के नाम का फर्जी रंग चढ़ा खुद को मजलूम अवाम का एनजीओवादी प्रगतिशील हितैषी होने का दिखावा करें, और इसके बदले में तमाम देशी-विदेशी पूँजीपतियों-सरकारों के ट्रस्टों-फाउंडेशनों, कॉर्पसों से बड़ी-बड़ी ग्रांट और अकादमियों, थिंकटैंकों, विश्वविद्यालयों, आयोगों-समितियों में पद-पुरस्कार, घोडा-गाड़ी पायें।

क्योंकि मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी चेतना के भोथरा होने से पैदा विभ्रम के इस दौर में पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच स्पष्ट वर्ग अवस्थिति लिए बगैर रहा जा सकता था, मजदूर वर्ग का 'हितैषी' होने का ढोंग करते हुये उन्हें मौजूदा 'जनतंत्र' में ही सुधारों और कुछ रूपल्ली की भीख मांगने तक सीमित रहने के लिए जाल में फंसाया जा सकता था, अतः ऐसे रंगे सियार लिबरल पूँजीपति वर्ग के लिए सेवक की हैसियत रखते और अपनी वाजिब कीमत पाते थे। इसी नाते इन अभिजात वर्गीय जनवाद प्रेमी लिबरल रंगे सियारों को भारत के पूँजीपति वर्ग की गुजारिश पर लागू किए नेहरूवादी 'समाजवाद' से गहरी मुहब्बत थी और उसके साथ पूंजीवादी राजसत्ता द्वारा तेलंगाना-तिभागा-नक्सलबाड़ी से उत्तर पूर्व, असम, पंजाब, कश्मीर, आदि में किए गए जुल्मों, अपने ही देश के नागरिकों पर सैनिक दमन, एयर फोर्स तक से कराई गई बमबारी, यातना शिविरों, अहमदाबाद-मुरादाबाद, मेरठ मलियाना हाशिमपुरा, दिल्ली, नेल्ली के सांप्रदायिक जनसंहारों, कितने सारे जातिगत सामूहिक हत्याकांडों और पूंजीवादी 'सुधारों' के जरिये करोड़ों मेहनतकश लोगों की लूट, भूख, कंगाली, कुपोषण, बीमारी से करोड़ो मौतों, आदि में कभी भी कुछ भी गैरजनवादी नजर नहीं आया।

यहीं यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि लिबरल का अर्थ बहुत सारे लोग उदार हृदय व्यक्ति से लेते हैं किंतु यह शब्द वास्तव में उदारता की भावना से जुड़ा हुआ है ही नहीं, बल्कि इसका वास्तविक अर्थ है मुक्त पूंजीवादी बाजार में 'समान अधिकार' वाले पूँजीपति और सारी संपत्ति विहीन जीविका के लिए अपनी श्रम शक्ति बेचने को मजबूर सर्वहारा के बीच बराबरी के आधार पर संविदा की स्वतंत्रता (लिबर्टी) को सर्वोपरि मानने वाली व्यवस्था का समर्थक व्यक्ति। पर हम समझ सकते हैं कि इन दोनों के बीच कैसी समानता संभव है। अतः लिबरल मूलतः पूंजीवादी शोषण पर किसी प्रकार की भी रोक-रुकावट का विरोधी होता है।

पिछले दो दशकों में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट जिस तेजी से गहराया है उससे पूँजीपति वर्ग अब मजदूरों की श्रमशक्ति से पहले जितना सरप्लस नहीं निचोड़ पा रहा है। नतीजतन मुनाफे की दर नीचे जा रही है जिससे पूंजीपति वर्ग जनवाद के इस विभ्रम को ज्यादा दूर तक चला पाने में सक्षम नहीं रहा है। अतः वह भारत सहित दुनिया भर में जनवाद की नौटंकी पर पर्दा गिरा, अधिकाधिक नग्न फासीवादी-अधिनायकवादी दमन का रास्ता अख़्तियार कर रहा है। कोरोना वाइरस से जो संकट पैदा हुआ है उससे यह प्रवृत्तियाँ और भी तेज हुई हैं। ऐसे में मजदूर वर्ग के समक्ष भी यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाएगा कि जनवाद और सुधार की बातें पूरी तरह खोखली हैं और उसे क्रांतिकारी वर्ग चेतना से लैस व संगठित होकर अपने संघर्षों को तेज करना होगा। ऐसे में एक ओर तो पूँजीपति वर्ग के पास इन रंगे सियारों को पाले रखने की क्षमता घट रही है दूसरी ओर उनकी उपयोगिता भी। अतः इनके सामने संकट खड़ा हो गया है कि आने वाले तीखे वर्ग संघर्षों में उन्हें 'तटस्थता' के बजाय एक वर्ग के पक्ष में अपनी अवस्थिति लेनी होगी और यह वर्ग शासक पूँजीपति वर्ग और उनके फासिस्ट गुर्गे ही होंगे। इन रंगे सियारों के भारी गुस्से की असली मूल वजह यही है।

पर यह गुस्सा लेनिन के ही खिलाफ क्यों? क्योंकि मार्क्स-एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग की शोषण मुक्ति के लिए वैज्ञानिक समाजवाद का जो सिद्धांत दिया, उसे अपूर्वानंद के प्रिय मार्तोव जैसे सुधारवादियों से मुक्त करते हुये उसके आधार पर मजदूर वर्ग की क्रांति का सशक्त पैना औज़ार अर्थात एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण ही लेनिन ने नहीं किया बल्कि उस क्रांति को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हुये सारे रंगे सियार लिबरलों के सबसे बड़े दुश्मन भी बन गए। आज के युग में लेनिनवाद को जान-समझकर ही वास्तव में मार्क्सवादी बना जा सकता है, लेनिन को छोड़कर मार्क्सवाद की बात करना उसे क्रांतिकारी ऊर्जाविहीन कर देना है। इसीलिए लेनिन के खिलाफ उनका गुस्सा पूरे ज़ोर से फट पड़ा है। जहाँ तक रोजा लक्जेम्बर्ग की बात है उस महान क्रांतिकारी की हत्या अपूर्वानंद के ही वैचारिक पुरखों जर्मन सामाजिक-जनवादियों ने उस स्थिति में की थी जब मजदूर वर्ग के संघर्षों की तीव्रता के कारण उन्हें अपना असली रंग दिखाते हुये पूँजीपति वर्ग के समर्थन में खुल कर आना पड़ा था।

क्या हम कह रहे हैं कि गोर्की ने लेनिन की आलोचना की ही नहीं थी? नहीं, गोर्की ने लेनिन की आलोचना की थी, दोनों के बीच कई बार कटु आलोचना-प्रतिआलोचना, नाराजी का दौर चला था। पर गोर्की कभी  मजदूर वर्ग क्रांति और सोवियत समाजवाद के शत्रु नहीं बने। जिस मुकदमे का जिक्र अपूर्वानंद ने किया है उस पर भी बाद में उन्होने अपनी राय बदली, और अंत में खुद स्टालिन व अन्य सोवियत नेताओं की गुजारिश पर वे सोवियत संघ लौटे और मृत्यु तक वहीं रहे और अपूर्वानंद अपने झूठ से कुछ भी इंगित करें वे सोवियत जनता के लिए अत्यंत सम्मानित रहे। और कुछ कहे बिना ही हम लेनिन की मृत्यु पर गोर्की द्वारा दी गई श्रद्धांजलि से एक अंश उद्धृत कर रहे हैं जो अपूर्वानंद द्वारा रचे-गढ़े गए चित्र के झूठ को साफ कर देता है।

"निकोलाई लेनिन, वो महान, असली इंसान, अब नहीं रहे। उनकी मृत्यु की खबर उन्हें जानने वालों के दिल में दर्द की छुरी जैसी है। किन्तु दुनिया के लिए उनकी मृत्यु की यह खबर उनकी अहमियत - मेहनतकश अवाम के नेता के तौर पर उनकी अहमियत - को और भी खास बना रही है। अगर उनके नाम पर फैलाये गये नफरत के बादल, झूठ और मिथ्यारोपों के बादल, और भी अधिक घने होते, तब भी ऐसी कोई ताकत न थी जो पागलपन से भरे इस विश्व में लेनिन द्वारा प्रज्वलित मशाल को बुझा सकती। आज तक उनसे बेहतर ऐसा कोई इंसान नहीं हुआ जिसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखा जाये। निकोलाई लेनिन अब नहीं रहे, किन्तु उनकी बुद्धिमत्ता तथा इच्छाशक्ति के वारिस अभी जीवित हैं। अंत में इंसान द्वारा निर्मित सच्चाई व ईमानदारी की जीत निश्चित है। लेनिन जैसे सच्चे इंसान को गढ़ने वाले गुणों के सामने हर चीज को झुकना ही होगा।"

Wednesday, May 13, 2020

Covid-19 & the Economic Crisis


It was Karl Marx who enriched humanity by developing the scientific methodology of historical materialism to analyse the system of social production. But even ancient Greeks in the time of Aristotle knew that no value could be produced without employing human labour. Capitalist owners, shareholders, managers and their courtiers from the ‘intelligentsia’ only partake in the surplus appropriated from the value produced by workers, they themselves do not add any value to the stock of social wealth. Hence only the naïve and simpletons were applauding when, instead of deploying the strategy suggested by medical science, extensive screening and testing with quarantining and isolation of infected in massive public healthcare facilities to be urgently created for this purpose, complete and forced lockdown was imposed by the central government as the primary method to deal with Covid-19 pandemic. Those participating in this comic applause and beating of pots and pans imagined themselves to be now safe, behind the high walls of their gated colonies and apartment ‘societies’, from the danger of Corona infection that will now feed only on the working-class multitudes in the filthy congested urban slums.

Neo-Liberal Economic Policies

All the more so as the Covid-19 pandemic has struck the humanity at a juncture when already moribund and crisis ridden capitalism has been dismantling even the modicum of public healthcare facilities existing earlier by giving full play to neo-liberal economic policies of privatisation, minimal public regulation, handing over of all natural resources to capitalists at throw away prices, lower rates of direct taxes, ‘austerity’ in expenditure on common public facilities for education, healthcare, housing, transport, etc during last 4 decades. This freed capitalists from all shackles on intensification of rate of exploitation through extracting both relative and absolute surplus value at increasingly higher rates. This is driven by consistently raising the organic composition of capital, especially through very high amounts of investments in fixed capital component of the constant capital, reducing the proportionate requirement of employing variable capital or labour power per unit of output. This has resulted in a huge reserve army of unemployed labour.

On the other hand, this has ‘freed’ most workers from whatever minimal protection of labour laws and collective bargaining under trade unions they had. Overwhelming majority of the workers now work under so-called ‘zero-hour’ contracts, getting paid wages lower than the value of their labour power under the weight of huge supply of labour compared to demand, paid only for the specific time worked with no regular employment or wages, no labour laws, no fixed working day, no insurance or health check-up, no compensation for accidents, ‘free’ from all shackles in serving the interests of the super profits of the capitalist class. Hence, while capitalists have accumulated immense amount of wealth, more and more workers are being pushed into pauperization.

Existing Crisis in the Capitalist Economy

However, as Marx explained, since all value addition in production process comes from variable capital or labour power employed, the proportionately lower quantity of variable capital employed per unit of output produced, the per unit surplus value or the rate of profit on per unit capital also tends to decline. But the increased unit sales at lower price counteracts this decline in rate of profit and the total profit can still be higher. However, soon the higher supply of production at lower value by all the capitalists chokes the market resulting in the crisis of overproduction.   

Here an additional factor, loan capital, comes into play since the huge investments in fixed capital usually come from capital loaned by banks/financial institutions to industrial capitalists who need to pay interest on loan capital. This interest comes out of the surplus value appropriated by the industrial capitalists on total capital, i.e., they pay a part of the total profit extracted to the banks. However, when the sales decline because of overproduction either the industrial capitalists reduce production by operating at lower capacity utilization or produced commodities cannot be sold. In the first case, total surplus value appropriated by capitalist itself declines. In the second case, they cannot realise the amount of surplus value embedded in commodities produced, i.e., it cannot be transformed into money capital by completing sale of the commodity. In both cases result is loss or reduced profit insufficient to cover the amount of interest payable to banks on capital loaned by them. This results in bankruptcies of many capitalists, as a result of which either they are liquidated or gobbled up by larger capitalists. Along with this the crisis spreads to the banking/financial system as part of the already loaned capital needs to be written off and more capital cannot be loaned because of the uncertainty of creditworthiness as the banks are not sure which of the borrowers will survive the crisis. Hence, there might be a situation when markets are overstocked with goods unable to be sold and banks are full of money unable to lend.

Crisis in Indian Economy

This same process has been in motion in India since the neo-liberal policies were first initiated in the 1980s and then accelerated 1991 onwards. Huge amount of capital investments in constant capital especially its fixed component has been made since then while the value of variable capital has declined proportionately. During this period total corporate borrowings have sharply increased from approximately 10-15% of the then GDP to approximately 60% of the present GDP. After several smaller crises, this ultimately resulted in severe financial crisis in 2008 along with the global financial crisis. At that time ruling class strove to avert this by increased government expenditure as well as nudging public sector banks to make huge loans to the construction and infrastructure sector – roads, ports, commercial real estate, housing, etc and creating an asset price bubble. However, by 2011 this created more intense crisis which among other things prompted Indian capitalist class to opt for the rule of fascist party. But that has not helped to resolve the crisis and it has been further exacerbated by Demonetisation and implementation of GST.

So, in brief, what was the condition of the Indian economy when the Covid-19 pandemic struck? Severely inadequate aggregate demand in the economy, very low capacity utilisation of the already installed capacity for nearly a decade (in the range of 65-75% per RBI monetary policy reports), huge drop in profitability of capital, lengthening of the duration of circuit of capital as the period of circulation extended, large number of companies not able to cover interest payments on borrowed capital from their operational profits, sharp decline in further investment in new fixed capital formation, and as a result, banks as well as other financial capitalists sitting on huge amounts of accumulated money capital unable to deploy it in productive capital (historically low rates of expansion of bank credit to industry), hence huge increase in financial speculation. Simultaneously government fiscal deficit reached sky high as, one, government sought to keep growth rates high by increased government expenditure during past few years; two, huge amounts of tax and fiscal reliefs/incentives were given to capitalist class; and, three, tax collections growth first stagnated and has then gone down absolutely in a stagnating economy. Hence, even the central government now finds it difficult to provide any fiscal ‘stimulus’ to the economic cycle, fully dependent on monetary authority for action. Another factor is almost bankruptcy of the state government finances.

Why Lockdown?

It was in this crisis ridden situation that the government, even with sufficient advance notice, found itself in no position to take the advice of its own scientific and medical advisors for adopting the appropriate scientific approach of dealing with the pandemic – extensive screening and testing of potential infected persons, identification of confirmed cases, their quarantining/isolation and medical assistance in serious cases in urgently built massive public healthcare facilities and to provide adequate safety equipment for the healthcare personnel. Moreover, Modi’s penchant for spectacular decisions, instead of painstakingly tedious but patient work, to project himself as a ‘superhuman’ leader and statesman also pushed him to declare a complete lockdown of common people and all economic activity, enforced by brute police power without caring a hoot for the livelihood of poor masses and providing for any measures to alleviate their suffering.

Impact of the Lockdown on Working Class

However, in capitalism working class has no means to live but to sell their labour power. Whole of their income is equal to the wages paid to them by capitalists in return for selling their labour power. They have no property, no financial savings at all to fall back upon as the value of their labour power is no more than the value of minimum commodities required by them to live and reproduce the labour power every day. Even with minimal spontaneous class consciousness workers know this and saw the dire crisis of stark starvation facing them since, in the cities, they need to pay for rent, electricity and even for using toilets in addition to the basic food necessities. Hence, even if they could trust government to supply them with rations, they had no hope of survival there. Therefore, they sort of immediately revolted against this draconian order by starting to walk to their rural ‘homes’ where, based on nostalgia of long-gone days, they hoped to at least remain alive somehow, though half-hungry, with their loved ones. However, the Capitalist state immediately came down upon them with all its brute might as the capitalist class wants them to remain in cities for the time when the wheels of industry start turning again. They will rather have them starve so that the wages can be further driven down. But many of them could not be repressed and lakhs of them can still be seen walking, cycling, taking short distance lift packed like sardines in covered trucks/containers in this summer heat, for hundreds and thousands of kilometres throughout the country to reach their native villages. 

Foremost effect of the lockdown on workers is the massive spike in unemployment which has already reached 26% according the latest data published by Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE) out of only the 36% working age population participating in the labour force. Hence effectively only 27% of the working age population is now engaged in paid employment. By this we can visualize the unprecedented huge size of unemployed labour army created by already going on economic crisis further accentuated by the current lockdown. Even IMF has forecasted that it will potentially push 40 crore more Indian people below the barely hunger level poverty line, i.e., pauperize them by making them permanently unemployed or compelling them to work on meagre wages much below the value of their labour power. Taking advantage of this bourgeois state is already amended the labour laws and provided the working day to be extended from 8 hours to 12. Moreover, central government has instructed that workers should not be allowed to travel back to their villages but be transported within the same state wherever there is work, i.e., some capitalists require them. This is equivalent to imposing forced labour in labour camps. 

Impact on Capitalist Economy & Finance

In a situation when capitalist economy was already suffering from shrinking aggregate demand and industry was working on low installed capacity utilisation, the lockdown on the one hand has actually made quite a big part of demand to vanish overnight as people hunkering down in their homes lower their consumption, fearful of both the disease and their precarious finances, on the other hand it has brought the wheels of industry to a grinding halt reducing demand for commodities used as constant capital. This implies, one, sharp lowering of the amount of total surplus value being extracted by the capitalist class since no surplus value can be extracted without employing the workers whose labour is the sole source of value addition. Second, circulation period of capital becomes longer and conversion of surplus already embedded in the commodities into money capital will be delayed, thus requiring more working capital and reducing profitability as less cycles can be completed with same amount of capital. Third, since the fixed capital investment is done with loan capital, the amount of interest due to be paid on that continues to accumulate despite no surplus being generated or realised during lockdown. Hence many more industrial capitalists will find themselves unable to repay interest to banks. Though Reserve Bank has asked banks to allow moratorium on repayments for 3 months, instead of reducing interest dues, it will rather increase them as the compounding effect comes into play. Therefore, the repayments will rather become more onerous.

Government Measures

Government, RBI and industry all know this. Hence, to postpone the immediate disaster and find some way out in the meantime, RBI has allowed banks to not treat overdue loans as overdue, i.e., declare them Non Performing Assets (NPA) for 3 months in addition to the existing window of 3 months and the government has now brought out an ordinance to suspend the working of its own much touted ‘reform’ of bankruptcy law for 6 months. This means that the bankrupt businesses will not be declared bankrupt and loans will continue to be recognised as good even if there is no repayment for next 6 months. However, this cannot alter the reality, only kick the can down the road.

To lower the interest burden on the industry, RBI has also made major reduction in interest rates both in the Repo Rate to 4.40% for banks short of money borrowing from RBI and in the Reverse Repo Rate to 3.75% for banks depositing excess money with RBI. The purpose of Repo Rate reduction is to signal banks to reduce their lending rate and by reducing reverse repo rate to force banks to lend more as they will get much reduced return by parking money with RBI. However, despite both measures neither the lending rate has gone down much nor the banks have started lending, though banks have reduced their deposit interest rates heavily. Statistics released by RBI show that the banks are parking greater than 7 lakh crores of rupees with RBI through reverse repo daily at the low rate of 3.75% instead of lending to industry at much higher rates. At this moment return in the form of interest has become less important for banks than the security of principal since banks do not know which companies will survive the crisis and which will go down.  Same is the case with industry itself as much of the trade is usually done on inter-corporate credit but at this juncture no capitalist is ready to extend credit to other capitalists as there is no trust on anyone’s creditworthiness. Moreover, large corporates are saving their own costs by delaying payments to their Micro Small Medium (MSME) vendors putting them in even more precarious position. 

Hence, most bourgeois experts are suggesting that government should take over the existing bad loans of banks and to provide some kind of future guarantee to banks if their loans go bad. That means transferring capitalists’ private losses to the public finances which will be then balanced through further ‘austerity’ on public services and extortion through higher indirect taxes and levies, fees, fares, etc from public. That means further dose of neo-liberalism of most pernicious sort.
  
So, what is the result? First, this will accelerate the monopolisation as smaller industrial and merchant capital will face greater difficulties than their larger competitors and are more at risk of going down. According to Credit Information company TransUnion Cibil, risk of default is highest for these small industries. Second, savers who loan money to industrial capitalists through intermediation of banks will have reduced interest incomes as profitability goes down and more loans are at risk. Many of the middle-class people securing their future through savings route will find themselves insecure as the capitalist class reduces their share in the total surplus value extracted. Third, many financial institutions and bank will find it difficult to survive as credit risk increases, thereby putting savers’ money at risk. Already one big Mutual Fund Franklin Templeton has wound down 6 of its schemes and stopped withdrawals of even a single rupee out of the total assets of Rs.28000 crores. More MFs/Banks/NBFCs/Insurance Companies will be in crisis in coming days as borrowers both in industry as well as individuals, because of job and salary cuts, default in loan repayments. Moreover, with layoffs in jobs and cuts in salaries, many of the middle-class employees will find themselves unable to maintain their status and might lose their assets built with bank loans as paying EMIs will be difficult. Besides, these assets will lose their existing inflated market prices producing a loss of wealth effect. Hence, risk of their proletarianization will increase.

Centre-State Relations & Finances

It is becoming well evident that both centre and state government finances are in dire straits and fiscal deficit is quite high because of economic crisis and doles to the capitalists through lower direct taxes and other concessions. They are finding it tough to even pay salaries to their staff and many partial salary deferments are being announced. The states are in serious difficulties as they have handed over much of their taxation rights to Centre through GST and now find their own hands tied. With regards to the devolution of taxes in the divisible pool, Centre has increasingly resorted to collect higher proportion through surcharges and cesses which are not classified as taxes and are not included in the divisible pool. Therefore, the amount of money devolving to the states by right has consistently gone down. Centre can distribute rest of the funds at its discretion based on political choices and conditions attached. On the other hand, most of the responsibility of dealing with Covid-19 and related high expenditure lies on the states. There are reports that Centre has even forced many industrialists to contribute to PM-Cares fund and not to the respective state CM’s Relief Fund. Sensing the financial difficulty of the states even the banks are lending to them at high interest rates of 7-8% for 10 years though same banks have liquid money available to them at 4.40% from RBI through Repo. Hence, states are becoming more and more dependent and beholden to centre for funds, thus constraining their capacity for political dissent and opposition to central government policies, thus making India more and more of a centralised state, leaving it federal only in name.     

Thus, the Covid-19 pandemic will further intensify the capitalist crisis, intensify cutthroat competition for survival among the capitalists, accelerate monopolisation in the economy, increase proletarianisation of petty bourgeois and elite working class, push more working-class people into unemployment and abject poverty and sharpen class contradictions. Besides, it will also exacerbate the political contradictions within the capitalist class especially the region to region and centre-state contradictions on account of the financial and economic effect of the uneven regional development under capitalism.

Published in The Truth, May 2020
For pdf copy, pls leave your e-mail id or WhatsApp number