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Financial Crisis In India - Brief Study

Thursday, February 27, 2020

वित्तीय केंद्रीकरण से बढ़ता राजनीतिक केंद्रीकरण

भारतीय संविधान में फेडरल ढाँचे की बात कही गई है पर यह मूलतः एक अर्धकेंद्रीय ढाँचा है जिसमें केंद्र के पास राज्यों पर नियंत्रण के लिए विविध उपाय रहे हैं। किंतु 1980 के दशक से केंद्र में रही गठबंधन सरकारों और राज्यों में सशक्त क्षेत्रीय दलों के दौर में ऐसा भ्रम पैदा हुआ था जैसे राज्यों की स्थिति सशक्त हुई हो। लेकिन पहले वाजपेयी नेतृत्व वाली एनडीए और बाद में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने नागरिकता कानून से एनआईए तक ऐसे कई कानूनी परिवर्तन किये जिनका पूरा प्रभाव 2014 के बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सशक्त मोदी सरकार के बाद सामने आया है। पर यहाँ अभी हम केंद्र-राज्यों के वित्तीय संबंधों के क्षेत्र में हुए उन दो अहम परिवर्तनों की चर्चा करेंगे जिनकी वजह से केंद्र सरकार की स्थिति बहुत मजबूत हो गई है और राज्यों की उस पर बढ़ती वित्तीय निर्भरता मोदी सरकार के राजनीतिक वर्चस्व को भी बढ़ा रही है।

इसमें पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन था देश के पैमाने पर समान उत्पाद एवं सेवा कर अर्थात जीएसटी कानून के लिये किया गया संविधान संशोधन। जीएसटी लागू करने के लिये सभी दलों एवं राज्य सरकारों ने मिलकर राज्यों व नगरपालिकाओं जैसे स्थानीय निकायों द्वारा अधिकांश सेवाओं और उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर लगाने के अपने संवैधानिक अधिकार को त्याग कर यह शक्ति केंद्र सरकार के हाथों में सौंप दी। अब पेट्रोलियम पदार्थों तथा शराब पर लगने वाले वैट/सेल्स टैक्स, एक्साइज, आदि तथा भूमि व मकान जैसी स्थाई संपत्ति के ट्रांसफर पर लगने वाली स्टैम्प ड्यूटी जैसी कुछ थोड़ी सी चीजों को छोड़कर राज्य सरकारें कोई टैक्स नहीं लगा सकतीं। इसी तरह नगरपालिकायें भी चुंगी जैसे कर नहीं लगा सकतीं। इसका असर समझने के लिये मुंबई महानगरपालिका का उदाहरण ले सकते हैं जिसके लिये चुंगी आय का सबसे बड़ा साधन था जिससे उसे लगभग 9-10 हजार करोड़ रुपये सालाना की आय होती थी।

टैक्स लगाने का अधिकार केंद्र को सौंप देने के बदले राज्यों को समान दर वाले जीएसटी की उस राज्य में हुई वसूली के अतिरिक्त केंद्र ने राज्यों को इससे होने वाले नुकसान के लिये मुआवजा देने का भी करार किया था। किंतु यह मुआवजा मात्र 5 साल अर्थात 2022 तक ही दिया जाना है। पर अभी से कई राज्य महसूस करने लगे हैं कि वे अपनी वित्तीय जरूरत और अपनी अर्थव्यवस्था की स्थिति के अनुसार अपनी वित्तीय आय को नियंत्रित करने के लिये कर दरों को न तो बढ़ा सकते हैं न अपने राज्य के विकास के लिए कोई रियायत ही दे सकते हैं।
अतः वे केंद्र के 33% वोट वाली जीएसटी काउंसिल के फैसलों पर पूरी तरह निर्भर हैं। जब तक केंद्र द्वारा निर्धारित समय पर मुआवजा मिल रहा था तब तक तो विशेष दिक्कत नहीं हुई किंतु जब 2019 में टैक्स वसूली में गिरावट से केंद्र की वित्तीय स्थिति तंग हुई तो उसने मुआवजे के भुगतान में न सिर्फ देरी करनी शुरू की बल्कि राज्यों के साथ राजनीतिक संबंधों के आधार पर भेदभाव की शिकायतें भी आने लगीं कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं उनके हिस्से के भुगतान में देरी की जा रही है। अब राज्य सरकारों को चिंता होने लगी है कि 2022 में मुआवजा बंद हो जाने पर क्या होगा?

दूसरा अहम घटनाक्रम वित्त आयोग द्वारा इनकम व कॉर्पोरेट टैक्स जैसे केंद्रीय करों में केंद्र व राज्यों के बीच बँटवारे से संबंधित है। संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत हर 5 साल के लिये सरकार द्वारा नियुक्त वित्त आयोग केंद्र व राज्यों सरकारों से सलाह कर इन करों की रकम के बँटवारे के फॉर्मूले की सिफ़ारिश करता है जिसे अमूमन केंद्र सरकार मानती आई है। 2014 के पिछले वित्त आयोग ने इन करों में राज्यों का हिस्सा 42% तय किया था जिसे केंद्र सरकार ने मान लिया था।

किंतु व्यवहार में पाया गया कि केंद्र सरकार ने हर वर्ष इन टैक्सों के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क आदि के नाम पर लेवी, सेस, सरचार्ज, आदि लगाने शुरू कर दिये और टैक्स वसूली की रकम का उत्तरोत्तर बढ़ता हिस्सा इनके जरिये उगाहने लगी। किंतु कानून के अनुसार यह टैक्स नहीं हैं अतः इनमें आई रकम राज्यों के साथ नहीं बांटी जाती। पिछले साल पाया गया कि केंद्र सरकार द्वारा वसूले गए कुल राजस्व में तय 42% के बजाय राज्यों को मात्र 35% भाग ही मिला। इस वर्ष यह भाग और भी गिरकर 32% ही रह गया। इस तरह केंद्र सरकार ने तय फॉर्मूले को चोर दरवाजे से बेअसर कर दिया।

पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने वाजपेयी सरकार में वित्त सचिव रहे एनके सिंह की अध्यक्षता में 15वें वित्त आयोग की नियुक्ति की थी जिसे वित्तीय वर्ष 2020-21 से अगले 5 वर्ष के लिये करों के बँटवारे का फॉर्मूला सुझाना था। पहले तो केंद्र सरकार द्वारा इसके विचार के लिये तय शर्तों से ही कई राज्य आशंकित हो गये क्योंकि इसमें 1991 के बजाय 2011 की जनसंख्या को आधार माना गया था जिससे कम जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों का हिस्सा कम होने का खतरा था। अतः इस आयोग की सिफ़ारिशों पर पहले से ही सबकी निगाह थी। किंतु इस आयोग ने अभी मात्र आगामी एक वित्तीय वर्ष के लिये ही एक अंतरिम रिपोर्ट दी है। 

हालांकि कहा गया है कि इस वर्ष के लिये राज्यों का कुल हिस्सा पहले जितना ही रखा गया है, मात्र राज्य न रहने के कारण जम्मू कश्मीर का हिस्सा एडजस्ट करने के लिये 42% से 41% कर दिया गया है पर जम्मू कश्मीर का हिस्सा पहले सिर्फ 0.8% ही था। अतः राज्यों का कुल हिस्सा 0.2% घट गया है। साथ ही राज्यों के मध्य बँटवारे की गणना में परिवर्तन के कारण केरल, कर्नाटक, पंजाब जैसे सीमित जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों को नुकसान हुआ है और बिहार जैसे अधिक आबादी वृद्धि दर वाले राज्यों को लाभ हुआ है जबकि बीजेपी सरकार जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण की बात का बहुत ढ़ोल पीटती आई है। सिर्फ कर्नाटक का ही उदाहरण लें तो उसे इस सूत्र व सेस, लेवी आदि के कारण पहले से घटते हिस्से की वजह से पिछले वित्तीय वर्ष के मुक़ाबले अगले वर्ष 8 हजार करोड़ रुपये कम मिलेंगे।

करों की रकम के बँटवारे में केंद्र के हिस्से के बढ़ते जाने और राज्यों की वित्तीय स्थिति बदतर होने के साथ ही बाढ़, सूखे, आदि आकस्मिक मदों में आबंटन में भी केंद्र ने राजनीतिक दृष्टि से भेदभाव शुरू कर दिया है। केरल में 2018 की भयंकर बाढ़ के बाद केंद्र सरकार ने उसे कोई मदद करने से स्पष्ट इंकार के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मदद लेने की अनुमति देने से भी इंकार कर दिया जबकि बीजेपी शासित राज्यों को उससे कहीं कम आपदाओं में बड़ी रकम आबंटित की गई। किंतु यहाँ केरल सरकार की भी इस बात के लिए आलोचना करनी होगी कि उसने इस पक्षपातपूर्ण निर्णय को अन्य विपक्षी दलों और राज्य सरकारों के साथ मिलकर राजनीतिक विरोध का मुद्दा बनाने के बजाय लंदन स्टॉक एक्स्चेंज में 6 हजार करोड़ रुपये के मसाला बॉन्ड जारी कर कर्ज ले लिया। इन बॉन्ड पर उसे ब्याज चुकाना होगा और अंतत राज्य की वित्तीय स्थिति और भी बदतर होगी।

इसके अतिरिक्त 15वें वित्त आयोग ने अब करों की कुल रकम को केंद्र व राज्यों के बीच दो हिस्सों बाँटने की जगह केंद्र, रक्षा व राज्यों के तीन हिस्सों में बाँटने का विचार प्रस्तुत किया है जबकि अब तक रक्षा व्यय केंद्र के हिस्से में शामिल होता था। इससे राज्यों का हिस्सा और भी कम होने की आशंका पैदा हो गई है। यहाँ हमें मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे इस वित्तीय केंद्रीकरण के तीन प्रमुख निहितार्थों को समझना होगा।

प्रथम- 1 फरवरी को प्रस्तुत बजट से पहले ही स्पष्ट है कि केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति तंग है और वह न सिर्फ विकास कार्यों पर पूँजीगत खर्च नहीं कर पा रही है बल्कि उसे शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं पर भी खर्च घटाना पड़ रहा है। लेकिन पूँजीगत खर्च में राज्यों का हिस्सा केंद्र से भी अधिक है। अब राज्यों को मिलने वाली रकम में इतनी भारी कटौती से वे भी पूँजीगत खर्च कम करने को विवश होंगे जिससे अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा किया गया पूँजी निवेश अत्यंत कम हो जायेगा जो अर्थव्यवस्था के लिए बेहद चिंताजनक खबर है।

दूसरे, सरकारी क्षेत्र में होने वाले इस वित्तीय केंद्रीकरण को भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था में बढ़ते केंद्रीकरण के साथ जोड़कर देखना होगा। अर्थव्यवस्था में गहराते आर्थिक संकट के साथ ही गलाकाट होड भी तेज हो रही है जिसमें छोटे क्षेत्रीय पूँजीपति बड़े इजारेदार पूँजीपतियों के सामने टिक नहीं पा रहे हैं। छोटे-मध्यम पूँजीपति जहाँ बड़े पैमाने पर दिवालिया हो रहे हैं वहीं अंबानी, अदानी, टाटा, जैसे बड़े पूँजीपतियों की पूँजी और मुनाफे बढ़ रहे हैं। 

ये बड़े इजारेदार पूँजीपति अर्थव्यवस्था के साथ ही राजनीतिक केंद्रीकरण को भी बढ़ावा दे रहे हैं ताकि पूरा देश इनके लिए एक पूर्णतः एकीकृत बाजार बन जाये और अलग राज्यों-क्षेत्रों के लिये इन्हें उनकी सरकारों के अनुसार अलग योजना नहीं बनानी पड़े। जीएसटी जैसे एक देश एक कानून के समर्थन में बड़े मीडिया प्रचार का कारण यही था। तब इसे ऐसे प्रस्तुत किया गया था जैसे जीएसटी लागू न होने से बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है जबकि वास्तविक नतीजा इसका ठीक उलट हुआ। इन्हीं इजारेदार पूँजीपतियों के नियंत्रण वाला मीडिया ही एक मजबूत सरकार और मजबूत नेता वाले फासिस्ट विचार के लिए वैचारिक प्रचार भी चलाता है।

तीसरे, वित्तीय संसाधनों के लिए केंद्र पर निर्भर राज्य सरकारों के लिए केंद्र के राजनीतिक फैसलों का विरोध करना भी मुश्किल होता जायेगा। अगर कुछ राज्यों के चुनावों में बीजेपी की हार से विपक्षी दलों की सरकारें भी बन जायें तो भी उनके द्वारा बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे का प्रतिरोध करने की उम्मीद इसीलिए पूरी होना मुश्किल है। उदाहरण के तौर पर धारा 370 या नागरिकता कानून पर क्षेत्रीय दलों के लिए बीजेपी का समर्थन करना विवशता है क्योंकि वे अपनी राज्य सरकारों हेतु संसाधन पाने के लिए उसे नाराज करने का खतरा मोल लेने से अधिकाधिक कतराएंगी।
https://hindi.newsclick.in/Increased-political-centralization-due-to-financial-centralization

Friday, February 7, 2020

रिजर्व बैंक की क्रेडिट पॉलिसी: चोर दरवाजे से पूँजीपतियों की मदद


6 फरवरी को जब रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति कमिटी की बैठक हुई तो कानूनी बंदिश के कारण यह आधिकारिक रूप से रिजर्व बैंक की रिपो ब्याज दर नहीं घटा पाई। पर भारतीय पूँजीपति वर्ग को संतुष्ट करने के लिये इसने गैरकानूनी तौर पर चोर दरवाजे से ऐसे नियम बना दिये ताकि बैंक ब्याज दरें घटा दें। असल में संसद में पारित कानून के अनुसार रिजर्व बैंक की ज़िम्मेदारी है कि वह फुटकर महँगाई दर को 2-6% के बीच रखे। किंतु दिसंबर में यह दर 7.3% हो गई और रिजर्व बैंक के अपने अनुमान अनुमान से इस पूरे साल यह औसत 6.5% बनी रहेगी। अतः रिजर्व बैंक अपनी ज़िम्मेदारी में असफल रहा है। 

मौद्रिक सिद्धांत के अनुसार यह माना गया है कि ब्याज दरें कम करने से महँगाई बढ़ती है और ब्याज दरें ऊँची होने से महँगाई पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसकी वजह है कम ब्याज दरों पर सस्ता कर्ज और नकदी उपलब्ध होने से औद्योगिक व व्यापारिक पूँजीपति आसानी से माल भंडारण और कालाबाजारी के द्वारा बाजार में आपूर्ति घटा कीमतें बढ़ा सकते हैं। ब्याज दर ऊँची होने व कर्ज मिलने में मुश्किल होने से उन्हें माल जल्दी निकालना होता है जिससे बाजार में आपूर्ति बढ़ती है और कीमतें गिरती हैं।

अतः उच्च महँगाई दर की इस स्थिति में ब्याज दरें बढ़ाना इस कमिटी की ज़िम्मेदारी थी। दो महीने पहले दिसंबर में ही इस कमिटी को ब्याज दरें बढ़ा देनी चाहिये थीं, पर उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उस पर पूँजीपति वर्ग द्वारा ऐसा न करने का जबर्दस्त दबाव था। इसके पहले रिजर्व बैंक 5 बार में रिपो ब्याज दर में 1.35% कटौती कर चुका था। इस बार भी रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें स्थिर रखीं पर कई ऐसे फैसले किए जिनका अर्थ बैंकों को ब्याज दरें घटाने और पूँजीपतियों को सस्ते कर्ज देने के लिये कहना है।

इसमें पहला फैसला है बैंकों को 5.15% की ब्याज दर पर 3 साल के लिये 1 लाख करोड़ रुपए के सस्ते कर्ज की सुविधा देना। इससे बैंकों पर कर्ज देने के लिये ग्राहकों से डिपॉजिट जुटाने का दबाव कम हो जायेगा और वे डिपॉजिट पर ब्याज कम कर पायेंगे जिससे उनकी लागत कम हो जायेगी। दूसरे, अगर बैंक के पास जमाराशि फालतू हो तो पहले वह 5.15% पर रिजर्व बैंक के पास रख सकते थे किंतु अब 4.90% पर ही रख पायेंगे। इससे उनका मुनाफा कम होगा और उन पर इस अतिरिक्त धनराशि को रिजर्व बैंक से मिलने वाले 4.90% से अधिक पर आम बाजार दर से कुछ कम दर पर कर्ज देने का दबाव बनेगा। तीसरे मकान, कार, आदि के लिये कर्ज देने पर बैंकों को उतनी ही रकम उस कैश रिजर्व में से कम करने की सुविधा दी गई है जो उन्हें बिना किसी ब्याज के रिजर्व बैंक के पास रखना पड़ता है। इससे भी बैंक के लिये बेहतर होगा कि वह कुछ कम ब्याज पर बाजार में कर्ज दे ताकि उसे उतना पैसा बिना ब्याज के रिजर्व बैंक के पास न रखना पड़े।

दूसरी और बैंकों को सुविधा दी गई है कि वे कमर्शियल प्रॉपर्टी के लिए दिये गए कर्ज की वसूली न होने पर भी उन्हें एक साल तक एनपीए दिखाने से बच सकते हैं अर्थात बिना वसूली के भी उन पर फर्जी आमदनी दिखाते रह सकते हैं। यही काम वे लघु, मध्यम कारोबारियों को दिये गए कर्जों पर भी कर सकते हैं जहाँ उन्हें वसूली न होने पर इन्हें 1 साल के लिये छूट देने की सुविधा मिल गई है। खास तौर पर बहुत सारे मुद्रा योजना में कर्ज लेने वाले जो अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण समय पर कर्ज की किश्त नहीं चुका पा रहे उन्हें अब भुगतान में चूक नहीं माना जायेगा और बैंक किश्त को एक साल स्थगित कर कर्ज को एनपीए नहीं दिखायेगा। इससे भी बैंकों के एनपीए कम रहेंगे, बिना वसूली के भी आय और मुनाफा दिखता रहेगा तथा बैंक कम ब्याज पर कर्ज बाँटते रहेंगे क्योंकि समस्या कुछ पीछे टल गई है, जब आएगी तब देखा जायेगा! 

यहाँ सोचना जरूरी है कि रिजर्व बैंक ने ऐसा क्यों किया? असल में जब भी कहीं आर्थिक संकट होता है पूंजीपति वर्ग की सबसे बड़ी माँग दो ही होती हैं। एक, ब्याज दर कम करना और दो, इस सस्ती ब्याज दर पर भारी मात्रा में नकदी उपलब्ध कराना। इसके पीछे तर्क है कि सस्ते ब्याज पर खूब कर्ज मिलने से व्यवसायी पूंजी निवेश बढ़ाएंगे, जिससे रोजगार सृजन होगा। फिर सस्ते ब्याज वाले कर्ज और जमा पर कम ब्याज मिलने से उपभोक्ता भी पैसा बैंक में रखने के बजाय उपभोग बढ़ाएंगे तथा कर्ज लेकर घर, कार, उपभोक्ता माल खरीदेंगे। इससे माँग का विस्तार होकर अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। पर क्या वास्तव में ऐसा होता है?

वास्तविकता यह है कि जब तक बाजार में माँग न हो और उद्योग स्थापित उत्पादन क्षमता से भी नीचे काम कर रहे हों, तो वे सस्ता कर्ज लेकर भी पूंजी निवेश नहीं कर सकते। आज रिजर्व बैंक ने खुद बताया कि बाजार में माँग घटने के कारण उद्योग सितंबर के अंत में अपनी स्थापित उत्पादन क्षमता का मात्र 69% उत्पादन कर रहे थे। इस स्थिति में कोई उद्योग मालिक नया उद्योग लगाने में निवेश क्यों करेगा? उधर रोजगार सृजन व आय में वृद्धि होने की संभावना न होने पर उपभोक्ता भी नए ऋण लेने का जोखिम लेने के बजाय अपने उपभोग की मात्रा को कम करते हैं। घर, कार, टीवी, आदि सभी तरह के स्थायी व रोज़मर्रा के उपभोग की सामग्री की बिक्री में कमी की वजह यही है। इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता होता है कि कुछ कमजोर पूंजीपति दिवालिया होकर बाजार से बाहर हो जायें ताकि उनके हिस्से का बाजार प्राप्त कर बाकी का कारोबार फिर चल सके।

तब फिर पूँजीपति ब्याज दरों को घटाने की माँग क्यों करते हैं? असल में पूँजीपति बैंक कर्ज पर ब्याज अपने मुनाफे में से ही चुकाता है। जब अर्थव्यवस्था में संकट से मुनाफा कम होने लगे तो उसे यह ब्याज चुकाना मुश्किल होता है और कर्ज एनपीए होने की आशंका हो जाती है। ब्याज दर कम होने से पूँजीपति की देनदारी घट जाती है और कुल ब्याज में से बैंक का ब्याज चुका कर उसके पास बचा मुनाफा बढ़ जाता है। इसलिए पूँजीपति आर्थिक संकट में ब्याज दर घटाने की माँग करते हैं। बैंक बदले में अपने मुनाफे को बचाने के लिये जमा करने वालों के लिये ब्याज दर घटा देते हैं।

इसको ऐसे भी देख सकते हैं कि हमेशा तर्क दिया जाता है कि हाउस, कार, एजुकेशन लोन पर ब्याज दर कम कर आम लोगों को राहत देने के लिये ब्याज दर घटना चाहिये पर क्या वास्तव में ऐसा होता है? पिछले साल रिजर्व बैंक ने 5 बार में जो 1.35% ब्याज दर कम हुई उसे कर्ज की ब्याज दर पर क्या फर्क पड़ा? पता चला कि बैंकों द्वारा एक दूसरे को दिये कर्ज पर ब्याज दर 1.46% कम हुई, बड़ी कंपनियों द्वारा लिये गए कमर्शियल पेपर पर 1.90% गिरी, सरकार द्वारा लिये गए 5 साला बॉन्ड पर 0.73% तथा 10 साल के बॉन्ड पर 0.76% कम हुई, मध्यम काल कर्ज दर एमसीएलआर 0.55% गिरी, हाउस लोन पर 0.18% कम हुई तो कार लोन पर 0.87% और लघु उद्योगों के लिये 0.23% गिरी। कुल मिलाकर देखें तो नए कर्ज पर 0.69% और पुराने कर्जों पर 0.13% गिरी। स्पष्ट है कि ब्याज दर कम होने से आम व मध्य वर्गीय लोगों को नहीं बल्कि बड़े पूँजीपतियों और सरकार का ही लाभ हुआ। अतः ब्याज दर घटाने से आम लोगों को राहत मिलने का कोई संबंध नहीं है।

अतः ब्याज दर कम करना मुनाफे की गिरती दर के संकट का नतीजा है, इसका समाधान नहीं। न ब्याज दर कम करने से पहले कभी अर्थव्यवस्था के संकट का कोई समाधान हुआ है, न अब होगा। इसीलिए भारत में भी ब्याज दरों में लगातार कटौती के बाद भी वृद्धि दर गिरती ही जा रही है। हाँ इसका एक असर होगा कि बहुत से मध्यमवर्गीय लोग, खास तौर पर सेवानिवृत्त लोग, जो बचत पर मिलने वाले बैंक ब्याज को अपने जीवनयापन का आधार मान रहे थे उनके जीवन में संकट बहुत तेजी से बढ़ने वाला है क्योंकि पूंजीपति वर्ग अब इतना मुनाफा उत्पन्न नहीं कर पा रहा है कि उन्हें उसमें से एक हिस्सा दे सके।

https://hindi.newsclick.in/Reserve-Bank-Credit-Policy-Helping-Capitalists-Through-the-Thief-Door

Wednesday, February 5, 2020

बजट की फाँस - कुआँ भी खाई भी


अपने बजट पूर्व विश्लेषण में मैंने लिखा था कि सरकार के लिए इधर कुआँ उधर खाई वाली स्थिति है क्योंकि नवउदारवादी और कींसवादी जो दो विकल्प उसके सामने हैं वो दोनों ही अर्थव्यवस्था की मूल समस्याओं को हल नहीं कर सकते। बजट से पहले बहस सिर्फ इस मुद्दे पर थी कि क्या सरकार सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च कम कर वित्तीय घाटा नियंत्रित करने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी या अर्थव्यवस्था को किकस्टार्ट करने के लिये वित्तीय घाटे के बढ़ने की चिंता किये बगैर सरकारी खर्च बढ़ाने की कींसवादी नीति अपनायेगी। किंतु जब बजट पेश हुआ तो पता चला कि सरकार ने कुआँ और खाई में से एक चुनने के बजाय ऐसा रास्ता चुना जिसमें कुआँ और खाई दोनों हैं अर्थात सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च में भी कटौती कर दी और वित्तीय घाटा भी अनियंत्रित रूप से बढ़ गया।

बहुत से आर्थिक विशेषज्ञ पहले यह उम्मीद कर रहे थे कि सरकार आम मेहनतकश लोगों व मध्यम वर्ग के हाथ में कुछ पैसा पहुंचाने का प्रयास करेगी ताकि बाजार में उपभोक्ता माँग का विस्तार हो जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूँजी निवेश फिर से शुरू हो सके। इसके लिये नरेगा के लिये बजट बढ़ाने, शहरों में रोजगार गारंटी योजना शुरू करने, मध्यम वर्ग के लिये आयकर में छूट बढ़ाने आदि की चर्चा चल रही थी। किंतु जब 31 जनवरी को सालाना बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण संसद में प्रस्तुत किया गया तभी यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सरकार की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है और वह विनिवेश, निजीकरण, व्यवसायीकरण को तेज करने व शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटाने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी। आर्थिक सर्वे में सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण तेज करने, खाद्य सबसिडी घटाने, शिक्षा का व्यवसायीकरण जारी रखने, बाजार के अदृश्य हाथ पर भरोसा करने और सरकारी हस्तक्षेप को कम करने पर ज़ोर दिया गया था।

वित्त मंत्री ने जब बजट पेश किया तो आर्थिक सर्वे में कही गई बातों पर ही बढ़ती नजर आईं। बजट के आय-व्यय खाते का हिसाब देखें तो यह बजट नवउदारवाद और कींसवाद दोनों की सबसे बदतर बातों का मिक्स्चर है। भारत जैसे देश में जो 117 देशों के भूख सूचकांक में 102 वें स्थान पर है वहाँ बजट में खाद्य सबसिडी का बजट 70 हजार करोड़ रु घटा दिया गया है – 1.85 लाख करोड़ रुपये से 1.15 लाख करोड़ रुपये। वैसे तो इसके भी वास्तव में खर्च किए जाने पर शक है क्योंकि इस साल में भी बजट अनुमान 1.85 लाख करोड़ के बजाय संशोधित अनुमान के अनुसार वास्तविक खर्च 1.08 लाख करोड़ ही किया जा रहा है। इसका अर्थ है कि पहले ही लगभग दो लाख करोड़ रु के कर्ज में डूब चुकी फूड कार्पोरेशन पूरी तरह दिवालिया होने के कगार पर है और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का भविष्य संकट में है। देश की सबसे गरीब जनता के लिए यह खबर मौत की घंटी के बराबर है क्योंकि पहले ही झारखंड जैसे राज्यों से राशन न मिलने से मौतों की खबरें आती रही हैं। इसके अतिरिक्त शहरी रोजगार गारंटी शुरू करना तो दूर रहा, बजट में ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों के लिये नरेगा योजना पर आबंटन में भी 9 हजार करोड़ की कटौती कर दी है।

सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर दूसरा बड़ा हमला स्वास्थ्य सेवाओं पर है जहाँ एक तो महँगाई दर की तुलना में देखने पर खर्च का बजट प्रावधान घट गया है, वहीं दूसरी ओर देश में डॉक्टरों की कमी दूर करने के नाम पर जिला अस्पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपने का षड्यंत्र तैयार है। बजट घोषणा के अनुसार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल में जिला अस्पतालों के साथ मेडिकल कॉलेज खोले जायेंगे। मेडिकल कॉलेज के लिए शुरुआती पूँजी भी निजी क्षेत्र को सरकार ही देगी जिसका पैसा मेडिकल उपकरणों पर सेस लगाकर जुटाया जायेगा, यह सेस बजट में लगा भी दिया गया है अर्थात बहुत से मेडिकल उपकरण और भी महँगे हो जायेंगे जिसका खामियाजा अंत में मरीजों को ही भुगतना होगा। इस योजना का अर्थ है कि जिला अस्पतालों का पहले से मौजूद पूरा बहुमूल्य तंत्र निजी क्षेत्र के हाथ में होगा जिन्हें पूँजी भी खुद नहीं जुटानी होगी। इसका प्रयोग कर वे महँगी फीस वाले निजी मेडिकल कॉलेज खोलकर खूब मुनाफा कमायेंगे, साथ ही कुछ सालों में जिला अस्पतालों के मालिक भी हो जायेंगे और देश की गरीब मेहनतकश जनता के लिए सस्ते अस्पताली इलाज का अंतिम सहारा भी छिन जायेगा। इसको एक काल्पनिक स्थिति न समझें क्योंकि मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भुज में भूकंप पीड़ितों के लिए सार्वजनिक धन से खोला गया अस्पताल इसी तरह पीपीपी मॉडल के जरिये अदानी की कंपनी को सौंपा जा चुका है। असल में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में इस पीपीपी मॉडल का अर्थ ही हो गया है पब्लिक संपत्ति की प्राइवेट लूट। इसके साथ ही एम्स दिल्ली और पीजीआई चंडीगढ़ जैसे सभी केंद्रीय मेडिकल संस्थानों के बजट में भी कटौती की गई है जबकि अच्छे मेडिकल संस्थानों के अभाव में देश के कोने कोने से गंभीर रोगों के इलाज के लिए बहुत से मरीजों को अभी भी इन संस्थानों में ही आना पड़ता है।

किसानों की आय दुगनी करने और ग्रामीण इनफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर असल में कृषि आधारित उद्योगों को बड़ी सुविधायें और रियायतें देने की घोषणा की गई है। किसान रेल, कृषि उड़ान, रेफ्रीजरेटेड ट्रक, वेयरहाउस, आदि के लिए खर्च कृषि उद्यमी और व्यापारी बन चुके अमीर पूंजीवादी फार्मरों और कृषि आधारित उद्योग चलाने वाले पूँजीपतियों के लाभ के लिए है। किसानों के 86% से अधिक भाग जिसके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है उसके लिए इससे क्या फायदा है? उनके लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के वादे से भी सरकार पीछे हट गई है। जो 1500 करोड़ का खर्च उस मद में पिछले साल घोषित हुआ था उसमें से लगभग नहीं के बराबर खर्च किया गया है। इन गरीब, सीमांत किसानों को तो अपनी उपज उन अमीर फार्मरों को ही कौड़ियों के दाम बेचनी पड़ेगी जो इन किसान रेल, उड़ान, ट्रक, वेयरहाउस के जरिये व्यापार कर कृषि उत्पाद को शहरी उपभोक्ताओं को कई गुना महँगे दामों पर बेचकर तगड़ा मुनाफा कमायेंगे। ग्रामीण क्षेत्र में पूँजीपति फार्मरों का यह वर्ग भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब सीमांत किसानों का बड़ा शोषक है। कम मजदूरी पर श्रम करा यह खेत मजदूरों का तो शोषण करता ही है, फसल के वक्त गरजबेचा छोटे किसानों की उपज को यही सस्ते दामों खरीदकर फिर सरकारी एजेंसियों या बड़े पूँजीपतियों को ऊँचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाता है। उपरोक्त इनफ्रास्ट्रक्चर से जिस बाजार में पहुँच के जरिये किसानों की आय बढ़ाने की बात की गई है वह सिर्फ इसके मुनाफे को बढ़ाने के लिए।

पूँजीपतियों के उद्योगों के लिए आवश्यक नकदी फसलों के उत्पादन में जुटने के बाद सीमांत किसान वर्ग अभी खाद्य उत्पादों का भी विक्रेता कम ग्राहक अधिक होता जा रहा है। गाँव के भूमिहीन मजदूर तो खाद्य पदार्थों के ग्राहक हैं ही। ग्रामीण बाजार के राष्ट्रीय बाजार में विलय की पहले से जारी प्रक्रिया इस के बाद पूरी हो जायेगी और इसके बाद गाँवों के खरीदार गरीब किसानों / मजदूरों को भी खाद्य पदार्थ तुलनात्मक रूप से कम ग्रामीण बाजार दामों के बजाय लगभग शहरी बाजार के मूल्यों पर ही खरीदने होंगे। यह ग्रामीण भूमिहीनों और सीमांत किसानों के जीवन को तकलीफ के नए स्तर तक ले जायेगा।

इसके राजनीतिक पक्ष को देखें तो गाँवों से जिला स्तर तक की राजनीति में तो प्रधान तौर पर एवं राज्य-देश स्तर तक की राजनीति में भी यह वर्ग अभी फासीवाद के लिए लठैत/गोलीबाज़ उपलब्ध कराने वाला मुख्य आधार है - इन भूपतियों में पुराने ब्राह्मण/क्षत्रिय जातियों के ही नहीं तमाम पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के भूपति भी शामिल हैं। अतः कुल पूंजीवादी मुनाफे में कुछ बेहतर हिस्सा इस वर्ग की मुख्य माँग रही है जो लाभकारी कृषि की शब्दावली में प्रस्तुत की जाती है ताकि सीमांत किसानों को भी 'लाभ' के इस मायावी सपने में फँसा इन अमीर फार्मरों के पीछे ही गोलबंद करने में सफल हो सके, हालांकि उन किसानों के हित इन 'किसानों' के ठीक विपरीत हैं।

इस बजट में शिक्षा वंचितों और निम्न मध्यम वर्ग की पहुँच से बाहर करने की प्रक्रिया को भी और तेज किया गया है। खुद बजट पूर्व सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण ने यह बात मानी थी कि निजीकरण व्यवसायीकरण से शिक्षा महँगी होकर समाज के वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो रही है, खास तौर पर उच्च शिक्षा। लेकिन किया क्या जाए? सर्वे ने कहा - निजीकरण जारी रखो!
 
बजट में भी कहा गया कि विदेशी कर्ज और पूँजी निवेश से शिक्षा संस्थान उन्नत किये जायेंगे। नतीजा सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि शिक्षा महँगी होकर आम मेहनतकश जनता खास तौर पर वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो जायेगी। फिर ये लोग क्य करें? इनके लिये बताया गया कि 100 बड़े संस्थान ऑनलाइन कोर्स शुरू करेंगे, वंचित और गरीब लोग उससे पढ़ लें, उन्हें कॉलेज जाकर क्या करना है, वे मजदूर हैं, उन्हें मजदूर ही रहना है! असल में यह अधिसंख्य मेहनतकश जनता को शिक्षा से वंचित करने की शासक पूंजीपति वर्ग की सोची समझी सर्वसम्मत नीति है और कोई चुनावी पार्टी इस पर मुँह नहीं खोलती कि सबके लिए उत्तम, समान और सुलभ सार्वजनिक शिक्षा का वादा कहाँ गया।

जहाँ तक मध्य वर्ग को आयकर 'छूट' का सवाल है उसका वास्तविक मकसद है बिना एग्जेंप्शन वाली आयकर व्यवस्था पर जाना। यह उसके लिये शुरुआत भर है, गैस सिलिंडर पर सबसिडी लेने न लेने के चुनाव की तरह। संगठित क्षेत्र की औपचारिक नौकरियों वाला मध्य वर्ग ही वह मुख्य तबका है जिसके जीवन में अभी कुछ हद तक सामाजिक सुरक्षा है। इस सामाजिक सुरक्षा का आधार यही आयकर एग्जेंप्शन हैं। इनके खत्म होने का मतलब है पीएफ़/पीपीएफ़, जीवन बीमा, डाक घर बचत योजनाओं, म्यूचुअल फंड, आदि पर टैक्स छूट आंशिक/पूर्णतः समाप्त होना। इसके बाद धीरे-धीरे इस छूट की व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर इन स्कीमों को बंद करने की तरफ बढ़ा जा सकता है।
 
इन योजनाओं को बंद करना भारत के पूंजीपति वर्ग की पुरानी माँग है क्योंकि इनकी वजह से ब्याज दरें कम होने में बाधा आती है। बैंक जमा पर ब्याज दरें अधिक कम नहीं कर सकते क्योंकि तब मध्य वर्ग जो घरेलू बचत का मुख्य स्रोत है इन स्कीमों में पैसा जमा करने लगता है। लेकिन जमा पर ब्याज दर कम न हो तो बैंक कर्ज पर ब्याज दर कम नहीं कर सकते। किंतु भारतीय पूंजीपति वर्ग प्रति इकाई पूंजी पर लाभ की दर के गिरने की समस्या का सामना कर रहा है और ब्याज दरों का लाभ की दर से अधिक होना कर्ज न चुका पाने का एक बड़ा कारण है क्योंकि कर्ज पर ब्याज कारोबार में हुये कुल मुनाफे में से ही चुकाया जाता है। जब तक मुनाफे की दर तुलनात्मक रूप से ऊँची थी, पूँजीपति उसका एक हिस्सा बचत कर पूँजी जुटाने वाले मध्य वर्ग के साथ बाँटने को तैयार थे मगर अब वह मध्य वर्ग को उतना हिस्सा दे पाने की स्थिति में नहीं रह गया है। इसके चलते मध्य वर्ग के बड़े हिस्से के लिये ज़िंदगी मुश्किल होने वाली है खास तौर पर ब्याज के सहारे जीने की आशा वालों के लिये।

शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, महिला-बाल कल्याण, दलित-आदिवासी कार्यक्रमों सभी के विस्तार में जायें तो व्यय में कटौती या चोर दरवाजे से पूँजीपतियों को लाभ पहुंचाने की ऐसी ही स्थिति है पर सरकार का वित्तीय घाटा फिर भी अनियंत्रित ढंग से बढ़ा है। खुद सरकार मान रही है कि इस वर्ष के लक्ष्य 3.3% के मुक़ाबले यह 3.8% पर पहुँच गया है। किंतु अगर सरकार द्वारा बजट से बाहर एफ़सीआई, आदि सार्वजनिक कंपनियों के नाम पर लिए गये कर्ज को भी जोड़ा जाये तो अधिकांश विश्लेषकों के अनुसार यह 8 से 10% के आसपास पहुँच गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है अर्थव्यवस्था में मंदी, सरकार द्वारा पूंजीपति वर्ग को दी गई बहुतेरी रियायतों एवं उनके द्वारा की गई भारी टैक्स चोरी के कारण टैक्स वसूली में भारी कमी। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को तमाम तरह के उपाय करने पड़ रहे हैं जैसे रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष को खाली करना, सार्वजनिक उद्यमों एवं सम्पत्तियों को बेचना, आदि। इसी क्रम में अब सार्वजनिक क्षेत्र की महाकाय वित्तीय कंपनी एलआईसी में सरकारी शेयर बेचने का प्रस्ताव किया गया है। किंतु सवाल है कि संपत्ति बेचने की एक सीमा है, उसके बाद क्या? अभी तो यही कहा जा सकता है कि अंत में इन सरमायेदार परस्त नीतियों से हुये सरकारी घाटे का सारा बोझ विभिन्न तरह से आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही लादा जाना है। स्पष्ट है कि यही नीतियाँ जारी रहीं तो देश की आम जनता को अच्छे दिनों के नाम पर अभी बहुत अधिक तकलीफदेह दिन देखने बाकी हैं।    

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02-02-2020