'मेरा मानना है कि बैंकिंग संस्थाएं हमारी नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए स्थाई
फ़ौज से भी ज्यादा खतरनाक हैं। अगर अमेरिकन जनता ने बैंकों को अपनी मुद्रा पर
नियंत्रण दिया तो कभी मुद्रा स्फीति, कभी मुद्रा संकुचन द्वारा बैंक और उनके बनाये कॉर्पोरेट जनता को उनकी सारी
संपत्ति से वंचित कर देंगे और उनके बच्चे उस महाद्वीप पर बेघर पैदा होंगे जिसे
उनके पिताओं ने जीता था।' ये किसी मार्क्सवादी
का नहीं बल्कि पूंजीवादी दुनिया के सिरमौर अमेरिका के महानायकों में से एक,
तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफर्सन का कथन है।
देश के बैंकिंग उद्योग में वर्तमान संकट की वजहों को समझने के लिए
अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को जानना आवश्यक है। बैंक मानव उपभोग लायक कुछ भी
उत्पादित नहीं करते। पहले उनका मुख्य काम सिर्फ व्यापारिक गतिविधियों की विभिन्न
पार्टियों के बीच तय शर्तों और वक्त पर सही भुगतान सुनिश्चित करना और इसका सही
हिसाब रखना था। साथ ही जिनके पास अतिरिक्त
धन हो बैंक उसे सुरक्षित जमा रखने और जरूरत के वक्त भुगतान का कार्य भी करते थे।
इस उपलब्ध धन को बैंक व्यावसायिक गतिविधियों हेतु लघु अवधि के लिए कर्ज के तौर पर
भी देते थे। लेकिन पूंजीपतियों के बीच कम लागत पर अधिकतम उत्पादन और बाजार में
प्रभुत्व की प्रतिद्वंद्विता में चल-अचल पूंजी में निवेश की जरूरत लगातार बढ़ने के
चलते, पूंजीपतियों को शेयर
पूंजी में निवेश, कर्ज, भुगतान गारंटियों, आदि के रूप में पूंजी उपलब्ध कराने में बैंकों की भूमिका
बढ़ती गई। अपनी उपरोक्त वर्णित भूमिकाओं से पूंजी की बड़ी मात्रा की उपलब्धता वाले
बैंकों ने उद्योग-व्यापार में मध्यस्थता से आगे बढ़कर पूरी अर्थव्यवस्था पर
नियंत्रण कायम कर लिया है क्योंकि अब वही पूंजीपति प्रतिद्वंद्विता में टिके और
आगे बढ़ते रह सकते हैं जिन्हें बैंकों के द्वारा निरंतर बढ़ती मात्रा में पूंजी की
उपलब्धता सुनिश्चित हो। इसके एवज में श्रमिकों की श्रम शक्ति द्वारा उत्पादित और
पूंजीपतियों द्वारा हस्तगत अधिशेष मूल्य का एक बड़ा भाग बैंकों को प्राप्त होता है।
इससे उनकी पूंजी लगातार विशालकाय होती गई है। एकाधिकार पूंजीवाद के युग में तो
बढ़ते मुनाफे की हवस में इन्होने पूरी अर्थव्यवस्था को अपने जुए का अड्डा बना दिया
है। लेकिन इस जुए में उनकी जीत होने पर तो मेहनतकश जनता की जेब कटती ही है,
किसी दांव में उनके हारने पर भी हानि की वह रकम
उनकी सेवक पूंजीवादी सरकारें विभिन्न जरियों से हमारी जेब से ही वसूल कर उनकी
भरपाई करती है। अब मरणासन्न पूंजीवाद के संकट के दौर में तो दुनिया भर में बैंकों
के बारे में सिद्धांत ही बन गया है - Too big to fail, too big to jail. अर्थात बैंक इतने शक्तिशाली हैं कि कोई
पूंजीवादी सरकार उन्हें डूबने देने की हिम्मत नहीं कर सकती; और उनके मालिकों/शीर्ष प्रबंधकों को किसी भी जुर्म में सजा
भी नहीं दे सकतीं।
आज भारत में बैंकिंग उद्योग के संकट की तस्वीर भी पूरी तरह ऐसी ही है। सिर्फ
उदारीकरण के पिछले 25 वर्षों के इतिहास को ही देखा जाये तो बैंक बीसियों लाख करोड़
रुपये कॉर्पोरेट सेक्टर को दिए कर्जों और फ्रॉड में डुबा चुके हैं, कई बैंकों का तो दिवाला ही निकल गया| कितने पूंजीपति इन कर्जों के बल पर ही खरबों की संपत्ति के
मालिक बन गए हैं। पर कर्ज न चुकाने के कारण इनमें से किसी सरमायेदार, सेठ-महाजन का आज तक कुछ न बिगड़ा, बल्कि उनके पास और दौलत
इकट्ठी होती गई। कुछ दिन पहले पंजाब नेशनल बैंक में नीरव मोदी-मेहुल चोकसी समूह
द्वारा किया गया फ्रॉड सामने आने के बाद से इस किस्म की लूट के सामने आने का एक
नया दौर ही शुरू हुआ है। इस फ्रॉड की कुल रकम बढ़ते-बढ़ते अब 13,900 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है,
साथ ही इनकी कंपनियों
द्वारा लिए गए अन्य कर्जों को जोड़ा जाए तो कुल रकम 21 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक
होने का अनुमान है। इसके अतिरिक्त रोटोमैक के विक्रम कोठारी द्वारा 4290 करोड़, द्वारकादास सेठ नामक फर्म द्वारा 390 करोड़ रू, आदि कई फ्रॉड के मामले
सामने आये हैं। पर इससे पहले के सालों में भी स्थिति यही रही है। कांग्रेसी शासन के आखिरी दो वित्तीय वर्षों में
6 हजार करोड़ रूपये सालाना कर्ज फ्रॉड के मामले सामने आये थे। मोदी सरकार आने के
पहले वित्तीय वर्ष में 15 हजार करोड़, दूसरे साल 16 हजार करोड़
और तीसरे साल 18 हजार करोड़ रुपये के ऐसे ही फ्रॉड सामने आये हैं। यह चौथा साल अभी
पूरा हुआ ही है, पूरे आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं है मगर पिछले दिनों
खबरों में रहे मामले ही 30-35 हजार करोड़ रुपये के ऊपर जा पहुंचे हैं। यह मामले
सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तक ही सीमित नहीं हैं। हालांकि निजी बैंक
नकारात्मक खबरों के प्रचार-प्रसार को रोकने में ज्यादा माहिर हैं, फिर भी पिछले एक साल में सबसे बड़े निजी बैंकों - एचडीएफसी, आईसीआईसीआई और एक्सिस बैंक समेत निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा डूबे कर्जों को
छिपाने, फ्रॉड और ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी के बहुत सारे मामले सामने
आ चुके हैं।
लेकिन मामला सिर्फ इतना ही नहीं हैं। एक और क़िस्म का भी फ्रॉड है जिसे करने
वाले को विलफुल डिफाल्टर अर्थात इरादतन गबन कर्त्ता कहा जाता है। रिजर्व बैंक ने
कर्ज न चुकाने वालों में भी यह एक खास श्रेणी बनाई है जिसमें बैंक मज़बूरीवश तभी
किसी को डालते हैं जब कर्ज लेने वाला खुद ही सुसाइडल कदम उठा कर उनके सामने और कोई
विकल्प न छोड़े। इसका मतलब यह प्रमाणित और जगजाहिर हो चुका है कि उसने लिए हुए कर्ज
का गबन कर लिया, चुकाने की हैसियत
है, फिर भी इरादतन नहीं चुकाता। पिछले साल 30 सितम्बर को ही ऐसे इरादतन गबन की रकम भी बढ़कर 1 लाख 11 हजार 739 करोड़ पहुँच चुकी थी।
इनमें 11 तो 1 हजार करोड़ से ऊपर का कर्ज हजम करने वाले हैं;
उनमें से भी सबसे बड़ा विनसम डायमंड का मालिक
जतिन मेहता है जो भागकर सेंट किट्स का नागरिक बन गया है। वैसे यह कुल रकम भी थोड़ी
कम ही दिखाई गई है क्योंकि इसमें विजय माल्या के नाम पर सिर्फ 3 हजार करोड़ ही दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त
एनपीए या कर्ज की अन्य डूबी हुई रकम को जोड़ा जाये तो पिछले कुछ सालों में ही
बैंकों के जरिये पूंजीपतियों द्वारा लूट ली गई कुल रकम 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा जा पहुंचेगी, जिसमें इस रकम का कई साल का ब्याज शामिल नहीं क्योंकि
बैंक वसूली न होने पर इसे जोड़ना ही बंद कर देते हैं। बट्टे खाते में डाली गई रकम
या राइट ऑफ का बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल नहीं है - सिर्फ मोदी सरकार के पहले साढ़े
तीन वर्षों में ही 2 लाख 72 हजार करोड़ रुपये के कर्ज बैंकों द्वारा बट्टे
खाते में डाले जा चुके हैं। पिछले दो दशकों का हिसाब भी अगर एकत्र कर इसमें जोड़ा
जाये तो सिर्फ उदारीकरण के दौर में ही एक भयंकर लूट का इतिहास सामने आएगा।
लेकिन क्या वास्तव में इन मामलों को फ्रॉड कह देना सही है? फ्रॉड कहने से ऐसा आभास होता है जैसे कि यह
बैंकिंग प्रबंधन की कमजोरियों का फायदा उठाकर कुछ जालसाजों-गबनकर्ताओं द्वारा किये
गये अपराध हैं जिसके खिलाफ सरकार, बैंकिंग और
पुलिस-न्याय व्यवस्था जाँच और सजा के लिए कदम उठा रही है। वित्त और अन्य मंत्री,
प्रशासक भी यही बयान दे रहे हैं कि रिज़र्व बैंक
तथा अन्य संस्थाओं के नियामकों, प्रबंधकों,
ऑडिटरों की लापरवाही या मिलीभगत से ये अपराध
हुए हैं और अब इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है। परंतु सारी प्रणाली और
घटनाक्रम पर ध्यान दें तो वास्तव में ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि यह सब बैंकों,
सीबीआई, रिजर्व बैंक, सरकार को आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से मालूम था। जैसे पीएनबी ने खुद स्टॉक
एक्सचेंज को सूचना दी है कि गीतांजलि का फ्रॉड 2 मार्च 2017 को ही मालूम हो
चुका था। कोठारी के बारे में भी कर्ज पंचाट (डेट ट्रिब्यूनल) ने 1 जुलाई 2017 को ही फ्रॉड को घोषणा कर दी थी। द्वारकादास
सेठ के मामले में भी 2015 से ही खबर थी,
पर सीबीआई ने रिपोर्ट ही नहीं लिखी। अन्य सभी
मामलों में भी ऐसी ही सूचनाएं हैं कि यह सब वर्षों से बैंक, रिजर्व बैंक, सीबीआई, सरकार तक सबकी जानकारी और
सहमति से जारी था लेकिन अब जबकि मोदी, चौकसी, माल्या, मेहता, द्वारकादास, आदि विदेश भाग गए
या रकम विदेश या देश में ही ठिकाने लगाई जा चुकी, सुबूत नष्ट किये जा चुके तो अब इन्हें फ्रॉड घोषित कर
कार्रवाई की नौटंकी जारी है। दूसरी बात यह कि ये तो वह मामले हैं जहाँ खुद कर्ज
लेने वालों ने भागकर सब वैकल्पिक रास्ते बंद कर लिए अन्यथा भूषण, एस्सार, विडिओकोन, यूनिटेक, आदि तमाम पूंजीपति इनसे भी बड़ी रकमें दबाकर
आराम से भारत में ही मौजूद हैं, उनके विरुद्ध कोई
कार्रवाई नहीं की जाती है, उन्हें कोई फ्रॉड
भी घोषित नहीं करता, बल्कि वे पहली
कंपनियों को 'बीमार' बनाकर, नए कारोबार शुरू कर खुद अपनी सेहत और दौलत को और ऊंचाइयों पर पहुंचा रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि फ्रॉड की खबर जाहिर होने पर खुद पीएनबी ने 30 बैंकों को एक पत्र भेजकर कहा कि यह फ्रॉड
अकेले उनके ही बैंक में नहीं हुआ, शेष बैंक भी
इसमें शामिल थे और यह सब 7 साल से चल रहा
था! इसका अर्थ है कि नीरव मोदी-मेहुल चोकसी की कंपनियों द्वारा बैंक कर्ज लेने के
लिए अपनाया गया तरीका कोई अजूबा नहीं था न ही चोरी छिपे चल रहा था, बल्कि यह एक
सामान्य कारोबारी तरीका था जिसका चलन पूरे बैंकिंग उद्योग में है।
एक और बात प्रचारित करने का प्रयास जोरों पर है कि पीएनबी, ओबीसी जैसे बैंकों में अधिक फ्रॉड की वजह इनका
सरकारी बैंक होना है क्योंकि सरकारी बैंकों में प्रक्रियाएं कमजोर हैं, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखलंदाजी अधिक है। इसके
आधार पर कई विश्लेषक इनके निजीकरण के लिए इन घटनाओं को सशक्त तर्क के रूप में
प्रयोग कर रहे हैं। किंतु तथ्य इस तर्क की पुष्टि नहीं करते। पहले फ्रॉड की ही बात
लें तो संसद में वित्त मंत्रालय ने स्वयं बताया कि 2014 से 2017 के तीन सालों
में बैंकों में कुल 12778 फ्रॉड हुए
जिनमें से एक तिहाई अर्थात 4156 निजी बैंकों में
हुए, शेष सरकारी बैंकों में।
मतलब बैंक सरकारी हैं या निजी क्षेत्र में, इससे फ्रॉड में कोई कमी-बेशी नहीं होती। फिर चोकसी के
गीतांजलि समूह को कर्ज देने वाले बैंकों के समूह का नेतृत्वकारी बैंक निजी क्षेत्र
का आईसीआईसीआई बैंक ही है। फिर भी गीतांजलि समूह को मात्र 100 करोड़ रुपये की जमानत पर लगभग 6000 करोड़ रुपये का कर्ज मिला था। उसके पास पिछले
साल मार्च से ही ऑडिटरों द्वारा इसके पूरे कारोबार के संदेहास्पद होने की जानकारी
भी थी लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। थोड़ा अतीत में जाएं तो हर्षद मेहता से लेकर
केतन पारीख के शेयर बाजार फ्रॉड एवं अन्य मामलों में देशी-विदेशी बैंकों की
लिप्तता की जानकारी भी जगजाहिर है जिनके विरुद्ध भारतीय सरकार और वित्तीय नियामकों ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की है।
पिछले दिनों ही सामने आये आईसीआईसीआई बैंक और विडिओकोन के मालिक धूत परिवार के बीच
मिलीभगत और बैंक से मिले कर्ज के बदले कंपनी द्वारा बैंक की मुख्य कार्याधिकारी के
परिवार को पहुंचाए गए भारी फायदे के आरोप उपरोक्त विचार की पुष्टि करते हैं,
हालाँकि बैंक और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तुरंत
इस मामले की सफाई देने, इसमें कुछ भी गलत
न होने और निजी बैंकों में प्रबंधन के उच्च नैतिक सिद्धांतों-नियमों के
प्रचार-बखान में जुट गया है। इसी तरह एयरटेल बैंक द्वारा 40 लाख से अधिक फोन ग्राहकों के फर्जी खाते खोलकर उनका
सैंकड़ों करोड़ रूपया उनकी जानकारी-सहमति के बगैर हासिल कर लेने के वक्त हुआ था और
एयरटेल पर लगाए गए दिखावटी प्रतिबंध भी जल्दी ही चुपके से हटा लिए गए थे।
इसके अतिरिक्त भारत में बैंक राष्ट्रीयकरण के पहले और बाद 600 से अधिक निजी
बैंकों के दिवालिया होने का एक बड़ा
लम्बा इतिहास है जिसको कोई धूर्त ही नजरअंदाज कर सकता है। इन सब दिवालिया बैंकों
को अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र के किसी बैंक में विलय कर संकट मुक्त किया जाता रहा है
अर्थात उनके घाटे का बोझ सार्वजनिक क्षेत्र पर डाल दिया जाता है। यूरोप-अमेरिका से
शुरू हुए वैश्विक वित्तीय संकट में भी वहां के सबसे बड़े निजी बैंक ही शामिल थे।
वहां जब निजी बैंक-बीमा कम्पनियाँ डूबने लगे तो उनको बचाने के लिए चोर दरवाजे से
राष्ट्रीयकरण (बेलआउट) की बात उठाई गई। कई बड़े बैंकों - रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड,
लॉयड्स बैंक, एआईजी, आदि - को बचाने के लिए तो राष्ट्रीयकरण करना ही पड़ा।
पहले सरकारों द्वारा बेलआउट पैकेज के नाम पर इन्हें भारी कर्ज दिया गया, बाद में इसे शेयर पूंजी में बदल दिया गया;
लेकिन बैंक का प्रबंधन निजी हाथों में ही बना
रहा। इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का सैंकड़ों अरब डॉलर का सारा बोझ वहां की मेहनतकश जनता पर
भारी टैक्स लगाकर या 'खर्च कटौती'
के नाम पर शिक्षा-स्वास्थ्य, बेरोजगारी भत्ता, आदि की जरुरी सुविधाओं से वंचित कर अभी भी पूरा किया जा रहा
है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि अगर निजी क्षेत्र इतना स्वच्छ और कार्यकुशल होता
है तो नीरव मोदी, चोकसी, कोठारी, माल्या, मेहता, द्वारकादास, भटनागर, आदि ये सब तो
निजी क्षेत्र के ही कारोबारी हैं, फिर इन्होने
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में फ्रॉड क्यों किये?
यहां एक सवाल उठाया जायेगा कि अगर कर्ज डूबने और फ्रॉड होने में सार्वजनिक और
निजी क्षेत्रों में कोई खास फर्क नहीं है तब फिर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक घाटे
और निजी क्षेत्र के बैंक लाभ में क्यों हैं? हालांकि हम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सत्ताधारी
पार्टी के करीबियों को कुछ हद तक अधिक फायदा पहुंचाए जाने की बात से इंकार नहीं कर
सकते लेकिन लाभप्रदता में अंतर का एक बड़ा कारण तो निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा
रोजगार की गारंटी रहित असंगठित श्रमबल का सार्वजनिक क्षेत्र के संगठित कर्मचारियों
के मुकाबले अधिक शोषण है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जहाँ कुल परिचालन खर्च
का 60% से अधिक कर्मचारियों पर
होता है वहाँ निजी क्षेत्र के बैंकों में यह अनुपात 30-40% ही है। साथ ही प्रति कर्मचारी अधिक उत्पादकता अर्थात काम
का ज्यादा बोझ और लम्बा कार्यदिवस भी अधिक अधिशेष मूल्य पैदा करता है।
स्पष्ट है कि इस बड़ी मात्रा में डूबे कर्जों और फ्रॉड की परिघटना को न तो
निजी-सरकारी बैंकों के अंतर के आधार पर समझा जा सकता है, न ही कांग्रेस-बीजेपी की नीतियों में भेद के आधार पर,
और न ही इन्हें कुछ अपराधियों द्वारा किये गए
फ्रॉड कहकर। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक, बीमा, आदि वित्तीय क्षेत्र और उद्योग-व्यापार क्षेत्र के पूंजीपतियों के परस्पर
संबंधों को समझना चाहिए। पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक पूंजीपति को
प्रतिद्वंद्विता में टिके रहने, अधिक से अधिक
बाजार हासिल करने और अपना अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर अधिक से
अधिक चल-अचल पूंजी के निवेश की आवश्यकता होती है। आज एक ओर तो उत्पादन के प्रत्येक
क्षेत्र में पहले ही पूंजी की जकड़बंदी होने से बाजार के विस्तार की संभावनाएं बहुत
सीमित हो चुकी हैं, दूसरी ओर हर
उद्योग में कुछ पूंजीपतियों का एकाधिकार कायम हो चुका है। इसलिए दूसरे को पछाड़कर
आगे बढ़ने की यह होड़ अत्यंत गलाकाट हो चुकी है। इसलिए सभी पूंजीपतियों के लिए
वित्तीय पूंजीपतियों से अधिकाधिक पूंजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरंतर
विस्तारित करने का दबाव हमेशा बना रहता है। फिर स्वयं बैंक, बीमा, आदि वित्तीय
पूंजीपतियों में भी एकाधिकार की होड़ है और उन्हें भी आवश्यकता रहती है कि वे अपना
बाजार हिस्सा बढ़ाने हेतु ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों का वित्तीय पोषण कर उनके
द्वारा हस्तगत अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी और मुनाफा सुनिश्चित करें। दोनों का यह
परस्पर हित सुनिश्चित करता है कि बैंक उद्योग-व्यापार की अधिक से अधिक कंपनियों को
लगातार कर्ज और निवेश के विभिन्न रूपों में अधिकाधिक वित्तपोषण करते रहें।
इस प्रक्रिया को नीरव मोदी के कारोबार के उदाहरण के जरिये भी समझा जा सकता
है। मोदी की तीनों कंपनियों में उसकी अपनी
कुल जमा पूंजी मात्र 400 करोड़ रू
थी। बैंकों ने उसे 3992 करोड़ का कर्ज दिया हुआ था, ऊपर से अब तक 13 हजार करोड़ से अधिक के एलओयू सामने आये हैं। रायटर्स के
मुताबिक कुल 20 हजार करोड़ उसे 'सरकारी' बैंकों ने दिया था, जिसके बल पर उसका सारा व्यापार, दौलत खड़ी हुई थी। उसकी कंपनियां इस वित्तीय पूंजी के सहारे ही तेजी से विस्तार
कर रही थीं और वह दुनिया भर के देशों में अपने नए-नए स्टोर खोल रहा था। वास्तविकता
यह है कि उसने कभी कोई कर्ज वापस नहीं किया। बल्कि वह हर बार पहले से बड़ा कर्ज
लेता था, जिससे पिछले कर्ज को जमा
दिखाया जाता था। इसके बल पर ही वह बड़ा पूंजीपति बना था; इस पूंजी से ही उसका मुनाफा आता था और बैंकों को रुपये तथा
विदेशी मुद्रा के कर्ज पर ब्याज तथा एलओयू आदि पर कमीशन मिलता था। यह चक्र जब तक
चला तब तक सब सामान्य था, जब टूटा तो इसे
फ्रॉड का नाम दिया जा रहा है। यही हाल अन्य पूंजीपतियों का भी है। नीरव मोदी और पीएनबी के मामले में दोनों पक्षों
द्वारा एक दूसरे को लिखे गए और अख़बारों में प्रकाशित विभिन्न पत्र यही बता रहे
हैं। एक ओर पीएनबी बता रहा है कि नीरव मोदी को दिया गया कर्ज कोई फ्रॉड नहीं बल्कि
बैंक-पूंजीपतियों के बीच सामान्य कारोबारी रिश्ता था, वहीं नीरव मोदी को शिकायत है कि उसके कारोबार में कोई
दिक्कत नहीं थी अगर पीएनबी उसको जनवरी में फिर से नया कर्ज दे देता तो सब कुछ
सामान्य तौर पर ही चलता रहता!
यहाँ बैंकों की कार्यविधि को की कुछ जानकारी जरुरी है। बैंक मुख्यतया दो किस्म
के कारोबारी कर्ज देते हैं। एक, नया कारखाना लगाने,
विस्तार करने, उन्नत तकनीक और मशीनें लगाने, आदि बड़े निर्माण में स्थाई निवेश के लिए दिए गए कर्ज
निश्चित अवधि के होते हैं जिन्हें मासिक, त्रैमासिक, छमाही, सालाना, आदि अंतराल पर मूल व ब्याज की किश्तों में चुकाना होता है।
दूसरे, उत्पादन के लिए सामग्री,
श्रम शक्ति खरीदने, उत्पादित माल के भंडारण और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच
मध्यस्थ व्यापारियों से माल का भुगतान आने तक उधार देने के लिए बैंक नकद उधार,
ओवरड्राफ्ट, गारंटी, लेटर ऑफ़ क्रेडिट,
लेटर
अंडरटेकिंग, पैकिंग क्रेडिट,
बिल डिस्कॉउंटिंग, आदि कई रूपों में कारोबारी कर्ज देते हैं, जो कहने के लिए तो 3, 6, 9 महीने या एक-डेढ़ साल में चुकाने होते हैं पर
कभी चुकाए नहीं जाते, बस ब्याज चुका
दिया जाता है, वह भी अक्सर अगला
कर्ज और बड़ी रकम का लेकर। इसी पूंजी के बल पर सभी पूंजीपति अपने उत्पादन और
कारोबार का विस्तार करते रहते हैं, दूसरे
पूंजीपतियों से प्रतिद्वंद्विता करते हैं। पर पूंजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य नियम
से सभी पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला यह निरंतर विस्तार हर कुछ वर्ष में 'अति-उत्पादन' का संकट पैदा करता है क्योंकि अधिकांश जनता की
क्रय क्षमता सीमित होने से उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाता है। तब उद्योगों
में नया निवेश बंद हो जाता है, पूंजीगत मालों की
मांग खास तौर पर नीचे आ जाती है। इस स्थिति में इन विस्तार करते पूंजीपतियों में
से कुछ के लिए यह चक्र टूट जाता है, वे दिवालिया हो जाते हैं, उद्योगों की
कब्रगाह में उन्हें दफना दिया जाता है और उनके लिए हुए कर्ज एनपीए, विलफुल डिफाल्टर, फ्रॉड, आदि के रूप में
सामने आते हैं। साथ ही कभी-कभी विभिन्न कारणों से किसी बैंक द्वारा किसी पूंजीपति
को नया कर्ज नहीं मिले तब भी उसका कारोबार तबाह हो जाता है, कर्ज डूब जाता है। इसलिए बैंकिंग उद्योग का संकट असल में
पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित संकट को ही प्रतिबिंबित करता है।
पिछले 4 साल में सामने आये बैंक
कर्ज संकट को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। 1991-92 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के समय भारतीय
अर्थव्यवस्था में बैंक कर्ज की कुल मात्रा उस समय के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की
19% थी। इसके बाद के पहले
दशक 2001-02 तक यह बढ़कर 25% हो गई। लेकिन उसके बाद 2003 से 2008 तक जो एक अस्थाई वृद्धि का दौर चला उसमें बैंक कर्ज की
मात्रा तेजी से बढ़ लगभग दोगुनी हो गई। अर्थात इस आर्थिक विस्तार के मूल में बैंकों
द्वारा औद्योगिक-व्यापारिक पूंजीपतियों को दिए गए भारी कर्ज थे। इसके बाद जब
वैश्विक आर्थिक संकट शुरू हुआ तो भारत में इसके प्रभाव को टालने के लिए और अधिक
बैंक कर्ज दिए गए। इस तरह कुल बैंक कर्ज की मात्रा बढ़कर जीडीपी का 52% हो गई जबकि इस दौरान जीडीपी की संख्या में भी
बड़ी वृद्धि हुई थी। लेकिन बाजार संकट के
प्रभाव को अधिक वक्त तक नहीं टाला जा सका और पूंजीपतियों की लाभप्रदता में 2011-12 के साल से तेज गिरावट आनी शुरू हो गई। 2008 में जहाँ पूरी अर्थव्यवस्था में लाभ की दर
जीडीपी का 7% थी, 2017 तक आते-आते यह घटकर 4% से कम हो गई।
परिणामस्वरूप 2013-14 का वर्ष आते-आते
बहुत से पूंजीपतियों के लिए कर्ज की किश्तें छोड़िये ब्याज की रकम चुकाना भी
मुश्किल हो गया। उसका नतीजा ही पिछले वर्षों में डूबते कर्जों और राइट ऑफ की रकम
में भारी वृद्धि है। इसी स्थिति को संभालने और तबाह हुए पूंजीपतियों की कंपनियों
को बंद करने या बचे हुए पूंजीपतियों के स्वामित्व में स्थानांतरित करने के लिए
दिवालिया अधिनियम भी लाना पड़ा है। लेकिन इसमें भी अभी तक जो मामले गए हैं उनमें
बैंकों के कर्ज का औसतन 70-80% अंतिम रूप से
डूब जा रहा है जिसे 'मुंडन' या हेअरकट कहा जाता है।
पर इस स्थिति से जब बैंकों के लिए संकट पैदा होता है तो वे सरकारी हों या निजी
दोनों दौड़कर सरकारी मदद के लिए ही जाते हैं जो अधिक पूंजी, किस्म-किस्म की रियायतों, रिजर्व बैंक द्वारा सस्ते कर्ज, आदि विभिन्न रूपों में दी जाती है। लेकिन हम जानते हैं कि
पूंजीवादी अर्थशास्त्र में 'मुफ्त भोजन'
नाम की कोई चीज नहीं होती। असल में होता यह है
कि भोजन कोई करता है और कीमत कोई दूसरा चुकाता है। इस मामले में भी यही हो रहा है।
वित्तीय पूंजीपतियों को मिली इन सब रियायतों-राहतों की कीमत, इसका सारा बोझ अधिक टैक्स, बढ़ी कीमतों और सार्वजनिक सेवाओं में कटौती के
जरिये मेहनतकश और निम्नमध्यवर्गीय जनता पर डाला जा रहा है। भारत में उदारीकरण के
दौर में ही लगभग 6 लाख करोड़ रुपये
पुनर्पूंजीकरण के रूप में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को तो दिए ही हैं,
साथ ही जब कोई निजी बैंक भी घाटे में गया है तो
उसको या तो सरकारी बैंक में विलय या अन्य माध्यमों के जरिये सरकार ने ही बचाया है
जिसका सारा बोझ आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही पड़ा है। बैंकों के माध्यम से होने
वाली यह लूट पूंजीवाद का अभिन्न, अनिवार्य अंग है।
बैंक सरकारी या निजी होने से यह चरित्र नहीं बदलता। अमेरिका-यूरोप में यह काम निजी
बैंकों के जरिए किया गया, कुछ बैंकों का
संकट में राष्ट्रीयकरण भी किया गया। भारत में दोनों किस्म के बैंकों के जरिए हो
रहा है, लेकिन यहाँ सरकारी बैंक
ज्यादा हैं तो ज्यादा स्वाभाविक तौर पर उनके जरिए ही होता है। इस प्रकार बैंक निजी
हों तब तो उनके मालिक निजी पूंजीपति होते ही हैं, बैंक सरकारी हो तब उनके मालिक सब पूंजीपति मिलकर होते हैं,
क्योंकि खुद सरकार के मालिक पूंजीपति हैं,
उत्पादन के साधनों के मालिक पूंजीपति हैं! निजी
और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच की छद्म बहस पूरी पूंजीवादी व्यवस्था में अन्तर्निहित
शोषण-लूट से ध्यान हटाने के लिए ही छेड़ी जाती है - ना तो निजी बैंक मेहनतकश जनता
की लूट में कोई कमी छोड़ते हैं, ना सरकारी। दोनों
को ही घाटा हो तो उसकी भरपाई आम मेहनतकश जनता से ही की जाती है।
यहाँ इस बात की चर्चा भी जरुरी है कि क्या सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करने
से बैंकिंग संकट का समाधान संभव है| हम पहले ही दिखा चुके हैं कि कर्ज संकट का मुख्य कारण 'अति-उत्पादन' का पूंजीवादी आर्थिक संकट है जिससे कम मांग की स्थिति में स्थापित क्षमता से
नीचे उत्पादन करने की वजह से उद्योग जगत का एक बड़ा हिस्सा गिरती लाभप्रदता का
सामना कर रहा है| इससे वे कर्ज की
किस्तें ही नहीं ब्याज तक चुकाने में मुश्किल का सामना कर रहे हैं| क्योंकि अभी तक पुराने अधिकांश कर्ज सार्वजनिक
बैंकों द्वारा दिए गए हैं, इसलिए समस्या भी
उनमें ही ज्यादा है, लेकिन निजी
बैंकों में भी डूबे कर्ज की समस्या बढ़ रही है| दूसरे, जहाँ तक फ्रॉड का
सवाल है, उसमें भी रिजर्व बैंक के
आंकड़ों के अनुसार निजी बैंक सरकारी बैंकों से बेहतर नहीं पाए गए हैं| अतः बैंकिंग संकट का मूल कारण पूंजीवादी आर्थिक
व्यवस्था में होने से निजीकरण इस संकट का समाधान नहीं कर सकता| अगर कर सकता तो अमेरिका-यूरोप में तो बैंकिंग
संकट पैदा ही नहीं होना चाहिए था क्योंकि वहाँ तो अधिकांश बैंक निजी ही थे|
यह समझना भी जरुरी है कि निजीकरण और राष्ट्रीयकरण दोनों का जन हित से कोई
रिश्ता नहीं, वक्त जरुरत और आर्थिक
स्थिति के मुताबिक पूंजीपति वर्ग के ही हित में दोनों कदमों का सहारा लिया जाता है|
याद रहे, नेहरू की सार्वजनिक क्षेत्र की नीति 1943 के बॉम्बे प्लान या टाटा-बिड़ला प्लान के अनुसार
लाई गई थी| उस वक्त पूंजीपति वर्ग की
आवश्यकता राष्ट्रीयकरण थी, इसलिए वह किया
गया; अब निजीकरण की जरूरत अधिक
है, तो वह किया जा रहा है|
फिर भी मेरा मत है कि सार्वजनिक बैंकों का सीधे
निजीकरण अभी नहीं किया जायेगा| बीजेपी हो या
कांग्रेस, शासक वर्ग के दोनों मुख्य
दल इतने नासमझ नहीं कि सीधे जल्दी में निजीकरण करें क्योंकि सार्वजनिक बैंक अभी
पूंजीपतियों के लिए पूर्णतया अनुपयोगी नहीं हुए हैं, उनके माध्यम से जनता को लूटकर पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाने
का काम अभी भी जारी है, इसलिए वे अभी बने
रहेंगे| इसके बजाय बाजार पद्धति
से क्रमिक निजीकरण का काम पहले ही जारी है, इस वर्ष नए कर्ज कारोबार का लगभग आधा निजी क्षेत्र में है|
क्रमशः सरकारी बैंक महत्त्व खो रहे हैं,
उस रास्ते ही बिना निजीकरण की घोषणा के निजीकरण
का काम पूरा होगा|
पूंजीवादी व्यवस्था में निजी पूंजी तो निजी लाभ के लिए काम करती ही है,
सार्वजनिक क्षेत्र भी समाजवादी नहीं बल्कि
राजकीय पूंजीवाद ही होता है जो सम्पूर्ण पूंजीपति वर्ग के सामूहिक लाभ और वर्गहित
के लिए काम करता है। स्वाभाविक तौर पर सत्ताधारी पार्टी के करीबियों को इससे अधिक
लाभ होता है। इसे ही आपसी होड़-संघर्ष मे अन्य पूंजीपति क्रोनी पूंजीवाद कह कर
आलोचना करते हैं ताकि पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर चोट न हो। पर मार्क्सवादी
दृष्टिकोण से सारा पूंजीवाद ही लूट व शोषण पर आधारित है; साफ, ईमानदार, शोषणमुक्त पूंजीवाद कभी भी, कहीं भी होता ही नहीं है। वर्तमान बैंकिंग
घटनाक्रम में भी इसकी कांग्रेस आदि बुर्जुआ दलों और पूंजीवादी अर्थशास्त्र
विशेषज्ञों के दृष्टिकोण से की गई आलोचना और मार्क्सवादी दृष्टिकोण से की गई
आलोचना में यह फर्क होना जरूरी है।
10.04.2018
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