भारत में रेलवे ट्रेनों के परिचालन का बड़े पैमाने पर निजीकरण हो रहा है। लगभग 150 गाड़ियों के परिचालन को निजी हाथों में सौंपने के लिए टेंडर जारी किया गया है। रेल मंत्री का कहना है कि इससे सुविधायें बेहतर होंगी, रोजगार बढ़ेगा, सेवायें कार्यकुशल होंगी व सरकार पर सबसिडी का बोझ घटेगा। मध्य वर्ग के बहुत सारे लोग भी इसे सही मानते हैं हालांकि कोविड महामारी के दौरान निजी स्वास्थ्य सेवाओं का कड़वा अनुभव बहुत से लोगों ने हाल में ही देखा है।
वहीं 1990 के दशक में रेलवे का निजीकरण करने वाले ब्रिटेन का अनुभव देखें तो वहाँ यह पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ है। कुछ साल बाद 2000 में ही दिवालिया हुई ट्रैक/सिग्नल/स्टेशन व अन्य आधारभूत ढाँचा चलाने वाली कंपनी को तो उसके कुछ समय बाद ही वापस सार्वजनिक करना पड़ा था। अब एक के बाद लाइनों को भी वापस राष्ट्रीयकृत करना पड़ रहा है क्योंकि निजी पूँजीपतियों ने महँगे किरायों पर मुनाफा लूटकर रेल सेवाओं को बरबाद कर दिया या उन्हें दोबारा निजी कंपनियों को कम शुल्क व अधिक सबसिडी के साथ चलाने के लिए दिया जा रहा है। 1 मार्च 2019 से मैंचेस्टर-लिवरपूल क्षेत्र की नॉर्दर्न रेल को सरकार को वापस अपने हाथों में लेना पड़ा। उसके दो साल पहले एक और महत्वपूर्ण ईस्ट कोस्ट लाइन का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। उस समय मैंने यह टिप्पणी लिखी थी -
“राष्ट्रीयकरण/निजीकरण - एक ही नीति के दो चेहरे
बात ब्रिटेन की है पर कहानी दुनिया भर की है। ब्रिटेन में जॉन मेजर ने रेल का निजीकरण किया था, अब उसी कंजरवेटिव पार्टी की टेरेजा मे सरकार उसका वापस राष्ट्रीयकरण कर रही है। जब निजीकरण हुआ तो बनी-बनाई रेलवे लाइनें, रेलगाडियाँ और पूरा ढांचा निजी क्षेत्र को बिना इकन्नी खर्च हुए मिला, उन्हें बस सालाना शुल्क देना था। उन्होने कुछ साल में ही भाड़ा तीन गुना बढ़ा दिया, पर उन्हें हमेशा 'घाटा' ही होता रहा! सरकार उन्हें और रियायतें देती रही, पर घाटा होता रहा, भाड़ा भी बढ़ता रहा!! पर कमाल की बात ये कि वे घाटे के बावजूद भी 'देशसेवा' में रेल को चलाते रहे, और इतने घाटे के बावजूद भी निजी क्षेत्र के मालिक और भी दौलतमंद बनते गए!!!
इन्हीं मालिकों में से एक रिचर्ड ब्रांसन है, जिसकी वर्जिन एयरलाइन के बारे में भारत में भी बहुत से लोग वाकिफ हैं। ब्रांसन की कंपनी भी लंदन से लीड्स, न्यूकैसल, ग्लासगो की पूर्वी तटीय रेल को 'घाटे' में चलाती रही और ब्रांसन 'घाटे' में रहते हुए भी जमीन से आसमान में नए-नए कारोबार शुरू करता रहा, और अमीर बनता गया।
कुछ दिन पूर्व अचानक ब्रांसन ने ऐलान कर दिया कि अब उसे और घाटा बर्दाश्त नहीं, इसलिए अब वह शुल्क नहीं दे सकता। तो सरकार ने क्या किया? आज उस कंपनी का राष्ट्रीयकरण हो गया - कंपनी को उसकी सारी देनदारियों समेत सरकार ने ले लिया, यहाँ तक कि कंपनी के सारे प्रबंधक उन्हीं पदों और वेतन पर बने रहे। जब तक कारोबार में दिखावटी घाटे के बावजूद मलाई मौजूद थी, कंपनी निजी रही। जब मलाई खत्म हुई और असली वाला घाटा शुरू हुआ तो घाटे का 'राष्ट्रीयकरण' कर दिया गया! कमाल की बात यह कि लंदन से बर्मिंघम, मैंचेस्टर, लिवरपुल की पश्चिम तट रेल भी ब्रांसन की ही दूसरे नाम की कंपनी के पास है, पर उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ, क्योंकि ब्रांसन ने उसे चलाने से मना नहीं किया (वहाँ अभी मलाई की गुंजाइश बाकी है!) अर्थात कौन कंपनी निजी रहे, किसका राष्ट्रीयकरण हो यह तय ब्रांसन कर रहा है, सरकार सिर्फ फैसले पर अमल कर रही है!
यही पूंजीवाद में निजीकरण -राष्ट्रीयकरण की नीति का मूल है - जब पूँजीपतियों को निजीकरण से लाभ हो तो सरकारें प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने के नाम पर निजीकरण करने लगती हैं; जब पूँजीपतियों को राष्ट्रीयकरण में फायदा दिखे तो सरकारें 'समाजवाद' और 'कल्याण' की बातें करने लगती हैं। दुनिया भर के संसदीय वामपंथी इसे ही 'शांतिपूर्ण रास्ते से समाजवाद' की ओर अग्रसर होना बताकर वाह-वाह में जुट जाते हैं।“
जहाँ तक भारत में अभी होने वाले ट्रेन परिचालन के निजीकरण की बात है, उसके चरित्र की एक खास बात समझने लायक हैं। आम तौर पर कोई कारोबार शुरू करते हुये पूंजीपति को सबसे बड़ी राशि जड़ (fixed) पूंजी में लगानी पड़ती है जिसकी वापसी कई सालों में थोड़ा-थोड़ा कर होती है। इसके ऊपर एक राशि चालू (circulating) पूंजी में लगती है जो कारोबार की प्रकृति के अनुसार सावधिक तौर पर अपना चक्र पूरा करती रहती है, इसमें मजदूरी और कच्चा/सहायक माल होते हैं।
रेलवे जैसे उद्योग में में जड़ पूंजी की बहुत बड़ी मात्रा चाहिये जिसकी वापसी में 15-20 साल तक लगते हैं। मगर सिर्फ किसी ट्रेन का परिचालन हाथ में लेने में जड़ पूंजी की लगभग नगण्य मात्रा का ही निवेश करना पड़ेगा - भूमि, ट्रैक, रेल, स्टेशन, विद्युत-सिगनल, नियंत्रण व्यवस्था सब में सार्वजनिक पूंजी ही रहेगी। निजी ऑपरेटर ट्रेन के चक्कर के हिसाब से शुल्क देगा या कुल कमाई का एक हिस्सा, कुछ कर्मचारी रखेगा और भाड़ा वसूल कर अपना मुनाफा काट लेगा। बिना किसी खास जोखिम पक्का मुनाफ़ा। घाटे का लगभग सारा जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहेगा। इस तरह सार्वजनिक पूंजी के बल पर निजी पूंजीपति मुनाफ़ा कमाता और पूंजी संचयन करता जायेगा और एक दिन खुद रेलवे के एक हिस्से को खरीदने लायक पूंजी एकत्र कर लेगा। या जहाँ कहीं उसे मुनाफा कम होता दिखाई देगा, परिचालन छोड़ भाग खड़ा होगा जैसे अनिल अंबानी ने दिल्ली मेट्रो की एयरपोर्ट लाइन में किया।
ऐसा ही अनुभव ब्रिटेन में रेल निजीकरण का रहा है। वहाँ निजी ऑपरेटरों ने भाड़े इतनी तेजी से बढ़ाये कि आज वहाँ समान दूरी के लिए मासिक सीजन टिकट समान स्तर की यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं फ्रांस व इटली से 5-6 गुने तथा जर्मनी से 3 गुना से अधिक हैं। इसका नतीजा है कि वेस्ट कोस्ट लाइन पर 1997 में मात्र 2 करोड़ पाउंड निवेश करने वाली वर्जिन व स्टेजकोच को 2012 तक ही 50 करोड़ पाउंड का शुद्ध लाभ हो चुका था। लेकिन कई लाइनों पर रेलवे ढाँचे को निचोड़ने के बाद निजी कंपनियों के उन्हें छोड़ भागने का भी बड़ा इतिहास है। जिसके चलते गाड़ियों की लेटलतीफी और दुर्घटनायें भी बहुत अधिक बढ़ी हैं।
इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नेटवर्क रेल उस रेल लाइन का आधारभूत ढाँचा सुधारने में भारी खर्च करती है फिर लाभप्रदता के नाम पर निजी ऑपरेटर द्वारा देय शुल्क घटा देती है। इस तरह निजीकरण के बाद सरकारी सबसिडी घटने के बजाय असल में 2019 तक दो गुना हो गई जबकि इस सबसिडी को घटाने के नाम पर ही रेलवे को निजी हाथों में सौंपा गया था। किन्तु अब सबसिडी का लाभ यात्रियों को नहीं निजी पूँजीपतियों को मिलने लगा। लंदन की अंडरग्राउंड के निजी किए जाने का तजुरबा भी ऐसा ही है। यहाँ भी निजी ऑपरेटर अपना मुनाफा कमाने के बाद बार-बार भाग खड़े हुये और नुकसान सार्वजनिक क्षेत्र को सहना पड़ा।
ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। 1943 में ही 'बॉम्बे प्लान' के जरिये टाटा, बिड़ला, साराभाई, श्रीराम, पुरुषोत्तम दास, आदि उस वक्त के बड़े पूँजीपतियों ने स्वतंत्र भारत में बड़ी मात्रा में जड़ पूंजी में निवेश वाले उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखने की योजना यूँ ही तो प्रस्तुत नहीं की थी। सार्वजनिक क्षेत्र अब तक भी विभिन्न रूपों में यही करता आया है और उसके द्वारा पूंजी संचयन करने वाले पूंजीपति अब उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में उसे पीछे छोड़ चुके हैं। जो असहमत हों वे सार्वजनिक उपक्रमों के प्रत्येक क्षेत्र में निजी ठेकेदारों की भूमिका देख सकते हैं। अब यह प्रक्रिया सिर्फ तेज होकर धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर मालिकाना स्थानांतरण की ओर बढ़ रही है।
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