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Financial Crisis In India - Brief Study

Friday, January 31, 2020

बजट - पूँजीपतियों की उम्मीदें, मेहनतकशों की 'ना'उम्मीदें

सरकार और भोंपू मीडिया की तमाम कोशिशों के बावजूद अब अर्थव्यवस्था की बदहाली पर इतनी जानकारी सार्वजनिक हो चुकी है कि अभी यह किसी विवाद का विषय ही नहीं बचा कि भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट और मंदी के गहरे भँवर में फंसी हुई है। उस बारे में कुछ और लिखने की अभी खास जरूरत नहीं। अभी कोई बहस है तो इस बात पर कि इस मंदी की वजह क्या है और सरकार इससे पार पाने के लिए क्या कदम उठा सकती है और उनके कामयाब होने की कितनी आशा की जा सकती है। इसी स्थिति में 1 फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए बजट प्रस्तुत करेंगी। वैसे मीडिया की खबरों में देखा ही जा रहा है कि वित्त मंत्री की बजट बनाने में एक क्लर्क से अधिक कोई भूमिका नहीं है। भोंपू मीडिया में खुद प्रतिभा के भंडार महामानव मोदी ही देश के बड़े पूँजीपतियों के साथ सलाह-मशविरा करते दिखाये गए हैं, निर्मला देवी को उसमें बुलाया तक भी नहीं गया था। इसलिए देश को नोटबंदी और जीएसटी जैसी महान योजनायें देने वाले महामानव मोदी इस बार क्या उपहार देंगे, समझदार लोग अभी से उस बारे में सोचने लगे हैं। फिर भी, बजट में सरकार के पास करने के लिए क्या विकल्प हैं और उनके संभावित प्रभाव पर एक संक्षिप्त विचार कर लेते हैं।

पूंजीवादी अर्थशास्त्री आर्थिक संकट से निकलने के दो मुख्य रास्ते सुझाते हैं, नवउदारवादी और कींसवादी। नवउदारवादी कहते हैं कि सरकार को अपने खर्च को सीमित कर अपने वित्तीय घाटे को कम करना चाहिये। इससे सरकार को कर्ज लेने की अधिक आवश्यकता नहीं रहेगी और वह उपलब्ध पूँजी के लिए निजी क्षेत्र के साथ होड नहीं करेगी। पूँजी के लिए होड के कम होने से ब्याज दरें गिर जायेंगी और निजी क्षेत्र को सस्ती ब्याज लागत पर प्रचुर पूँजी उपलब्ध होगी और वह अर्थव्यवस्था में निवेश को तेज करेगा। इससे आर्थिक वृद्धि तेज होगी, रोजगार सृजित होंगे और ट्रिकल डाउन के जरिये आर्थिक वृद्धि का लाभ आम जनता तक भी पहुँचने लगेगा। तब उपभोग और माँग में वृद्धि होकर अर्थव्यवस्था संकट से निकल कर तीव्र विकास की राह पकड़ लेगी। इसी विचार से सरकार के वित्तीय घाटे की सीमा बांधने वाले कानून बहुत देशों में बनाये गये जैसे भारत में एफ़आरबीएम एक्ट जिसके अनुसार वित्तीय घाटे को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गये। इसके अनुसार अभी सरकार का वित्तीय घाटा 3% से अधिक नहीं होना चाहिये। बजट के अनुसार चालू वित्तीय वर्ष में यह 3.43% रहने का अनुमान है हालाँकि स्वतंत्र विश्लेषक मानते हैं कि सरकार इसके के बड़े हिस्से को सार्वजनिक संस्थानों के कर्ज के नाम पर छिपा रही है और वास्तविक घाटा 8-10% है। सिर्फ खाद्य निगम का ही उदाहरण लें तो सरकार ने उसके नाम पर ही बैंकों से लगभग दो लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया हुआ है जो बजट के आय व्यय व घाटे के हिसाब में शामिल नहीं है। इसी वजह से रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा नीति में 5 बार रिपो ब्याज दर घटाने के बाद भी बैंकों के वास्तविक कर्ज की औसत ब्याज दर में कोई प्रभावी कमी नहीं आई है। हाँ, सबसे बड़ी कंपनियों को अपनी अल्पकालीन जरूरत वास्ते कमर्शियल पेपर के जरिये खुद सरकार से भी कम ब्याज पर कर्ज मिल जा रहा है। पर कुछ बड़ी कंपनियों के मुनाफे बढ़ने से अर्थव्यवस्था में संकट नहीं निपटता। इससे सिर्फ इतना होगा कि इन बड़े पूँजीपतियों की संपत्ति में और वृद्धि होगी जबकि पूरा देश आर्थिक संकट झेलता रहेगा।

इसके विपरीत कींसवादी मानते हैं कि आर्थिक संकट के मौके पर सरकार को खर्च कम करने के बजाय बढ़ाना चाहिये क्योंकि संकट काल में बाजार माँग कम होने से पूँजीपति कम ब्याज पर प्रचुर पूँजी उपलब्ध होने से भी निवेश नहीं करते क्योंकि उत्पादित माल को बेचकर मुनाफा कमाना उनका मकसद है लेकिन बाजार में माँग नहीं हो तो माल बिकेगा नहीं और घाटा हो जायेगा। अतः वे सस्ते कर्ज लेकर अपने पुराने महँगे कर्ज चुकाने का रास्ता अपनाते हैं। इसलिये कींसवादी मानते हैं कि उत्पादन में पूँजी निवेश बढ़ाने का काम सरकार ही कर सकती है और उसे वित्तीय घाटे की परवाह न कर कर्ज लेकर भी ऐसा करना चाहिये। सरकार अगर खर्च बढ़ाये तो उससे बहुत से व्यक्तियों के हाथ में पैसा आयेगा और वे उसे उपभोग के लिए खर्च करेंगे। उपभोग बढ़ने से बाजार में माल की माँग बढ़ेगी। तब निजी पूँजीपति ऊँची ब्याज दर पर कर्ज लेकर भी पूँजी निवेश कर उत्पादन बढ़ाएँगे, आर्थिक वृद्धि तेज होगी एवं रोजगार सृजन अधिक होगा, जिसे माँग और बढ़कर अर्थव्यवस्था विकास के चक्र में प्रवेश कर लेगी। तेज आर्थिक वृद्धि से सरकार की टैक्स आय बढ़ेगी जिससे वह लिये गये कर्ज को चुका कर अपनी वित्तीय स्थिति को फिर से ठीक कर लेगी।

1970 के दशक से पूरी पूँजीवादी दुनिया में नवउदारवादी विचार का प्रभुत्व रहा है। भारत में भी 1980 के दशक से उदारीकरण का दौर शुरू हुआ जिसके अंतर्गत अधिकाँश पूँजीवादी देशों की तरह यहाँ भी सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश कर उनका निजीकरण किया गया और शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, आदि सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों पर बजटीय खर्च घटा उनके व्यवसायीकरण को बढावा दिया गया। इस सबके पीछे तर्क यही था कि सरकार को पूँजीनिवेश से दूर रहकर अपना वित्तीय घाटा नियंत्रित रखना चाहिये और निजी क्षेत्र नियंत्रण मुक्त हो खूब निवेश कर आर्थिक वृद्धि को गति दे। आरंभ में इसका लाभ निजी पूँजीपतियों को ही होगा पर बाद में यह फायदे रिसते रिसते आम जनता तक भी पहुँचेंगे और गरीबी दूर होगी। इसी क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने वाले एफआरबीएम कानून को पारित किया था।

किंतु इन नीतियों के नतीजे के तौर पर भारत में भी जल्दी ही व्यापक वित्तीय संकटों का दौर शुरू हुआ। 2008 के ऐसे ही विश्वव्यापी संकट को टालने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने अल्पकालिक तौर पर कींसवादी और नवउदारवादी नीतियों के मिश्रण को अपनाकर एक ओर मनरेगा लागू किया तो दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर में पूँजी निवेश के लिए खुले हाथ भारी संख्या में कर्ज बाँटने की नीति अपनाई। पर यह नीति भी संकट को तीन साल ही टाल पाई तथा 2011 पार होते होते अर्थव्यवस्था फिर से मंदी का शिकार हो गई और इसी संकट के दौर से पैदा असंतोष का लाभ उठाकर तेज विकास के अच्छे दिन के सपने वाली मोदी सरकार सत्ता में आई।

मौजूदा मोदी सरकार सैद्धांतिक तौर पर नवउदारवादी नीतियां अपनाने के लिए कटिबद्ध थी। लेकिन इन नीतियों का नतीजा विकास के अच्छे दिनों के बजाय बढती बेरोजगारी, घटते उपभोग और मेहनतकश जनता के लिए तकलीफदेह गरीबी वाली वर्तमान आर्थिक मंदी है। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों द्वारा ब्याज दरें घटाकर निजी पूँजी निवेश को बढाने की तमाम कोशिशों के बावजूद भी आज पूँजी निवेश में वृद्धि 1% से भी नीचे के ऐतिहासिक स्तर पर जा पहुँची है। ऐसी ही स्थिति विकसित से विकासशील सभी पूँजीवादी देशों की है। अतः नवउदारवादी आर्थिक नीतियों द्वारा तीव्र आर्थिक वृद्धि और आम जनता के जीवन में सुधार के सारे दावों का दिवालियापन पूरी तरह जाहिर हो चुका है। इसके बजाय जनता को मिली है बढ़ती गरीबी, कम होती मजदूरी, भयानक बेरोजगारी, कम होता उपभोग, नमक-चाय पत्ती-चीनी-दाल-मसालों-बिस्कुट जैसी साधारण चीजों के उपभोग में भी कटौती करने को मजबूर मेहनतकश जनता और बेरोजगारों, गरीब किसानों, खेत मजदूरों की बढ़ती आत्महत्याएं, इलाज-दावा के बगैर तड़पते-मरते बीमार!

इसके चलते अब फिर से पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों का एक बडा हिस्सा सरकार द्वारा वित्तीय घाटे के बढने की परवाह छोड कर्ज लेकर भी भारी पूँजी निवेश द्वारा अर्थव्यवस्था में वृद्धि को किकस्टार्ट करने की वकालत करने में जुट गए हैं। हालाँकि एक हिस्से का जोर अभी भी पूँजीपति वर्ग और अमीर मध्यम वर्ग को कॉरपोरेट या इनकम टैक्स छूट और सस्ते कर्ज देकर उपभोग और निवेश बढाने पर है पर पिछली ऐसी कॉर्पोरेट टैक्स रियायतों से वास्तविकता में ऐसा कुछ भी नहीं होने से इनकी आवाज कमजोर हुई है। 
पर क्या कींसवादी नीति भी वर्तमान संकट का वास्तविक समाधान कर सकती है? यहाँ सवाल यह है कि सरकार घाटा बढाकर खर्च करेगी कहाँ? एक तरीका है ग्रामीण बेरोजगारों के लिए मनरेगा पर बजट बढाना तथा शहरी बेरोजगारों के लिए भी ऐसी ही रोजगार गारंटी आरंभ कर इन बेरोजगारों के हाथ में कुछ पैसा देकर इनका उपभोग व उसके जरिए बाजार माँग बढाने का प्रयास करना। निश्चित ही इससे तात्कालिक तौर पर इन बेरोजगार श्रमिकों को राहत मिलेगी और यह किया ही जाना चाहिए। पर इन योजनाओं से अर्थव्यवस्था में स्थाई माँग और उत्पादक शक्ति का विकास नहीं किया जा सकता। अतः तात्कालिक राहत के सिवा यह अर्थव्यवस्था के संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं है।

दूसरा जो उपाय सुझाया जा रहा है वह है इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च को खूब बढाना। सरकार पहले ही पाँच साल में एक सौ लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च की योजना इसके लिए घोषित कर चुकी है। अगर हम इसके लिए पूँजी की व्यवस्था की बारीकी में जाये बगैर यह मान भी लें कि सरकार यह निवेश करेगी तब भी यह सोचना होगा कि बुलेट ट्रेन, मेट्रो, एक्सप्रेस वे, स्मार्ट सिटी, डिजीटलाईजेशन, जैसी विशाल योजनाओं पर होने वाले इस खर्च से क्या अर्थव्यवस्था सुधर सकती है। इन सभी योजनाओं का डिजाइन ऐसा है कि इनका उपयोग करने वाली जनता का प्रतिशत बहुत कम है जिसके चलते इन योजनाओं के द्वारा मुनाफा कमाकर बैंक कर्ज से जुटाई गई पूँजी की किश्त और ब्याज को चुकाने में बहुत शक है। दिल्ली मेट्रो में भाड़ा तेजी से बढ़ाकर जैसे ही आम जनता की पहुँच से दूर किया गया इसका घाटा और तेजी से बढ़ने लगा है। लखनऊ वगैरह की मेट्रो तो शुरू से ही इतनी महँगी हैं कि आम जनता को इनका कोई लाभ नहीं और ये शुरू से ही सफ़ेद हाथी बन गईं हैं। इसलिये अधिक संभावना यही है कि जैसे 2008-09 में यूपीए सरकार के वक्त बैंकों द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों के लिए बाँटे गये बडे-बड़े कर्ज बाद में डूब गये और वे कंपनियाँ दिवालिया हो गईं, उसी तरह ये नये बडे कर्ज भी बाद में एनपीए बनकर बैंकिंग प्रणाली को और भी भयंकर वित्तीय संकट में धकेल देंगे। फिर बैंकिंग प्रणाली को संकट से निकालने के नाम पर उस घाटे का सारा बोझ आम मेहनतकश जनता को ही झेलना पड़ेगा।
यही वजह है कि बजट प्रस्ताव सरकार के लिए गले की फाँस बने हुए हैं क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट इतना गंभीर हो गया है कि नवउदारवादी हों या कींसवादी दोनों ही तरह की नीतियों से इसके स्थायी छोड़िए तात्कालिक समाधान का भी कोई वास्तविक विकल्प मुमकिन नहीं रहा है। बजट में देखने के लिए सिर्फ यह होगा कि आम जनता पर कितना बोझ किस नाम पर डाला जाता है और उसके जरिये पूंजीपति वर्ग को कितनी सुविधा दी जाती है। इसके अलावा सब बड़ी-बड़ी चमत्कारिक योजनायें भोंपू मीडिया में मोदी की तारीफ का ढ़ोल बजवाने के लिए ही होंगी, बिना किसी वास्तविक लाभ के।

Monday, January 20, 2020

जनसंख्या नियंत्रण– एक ख़तरनाक प्रस्ताव

संघ-बीजेपी के राजनीतिक प्रचार के कुछ प्रिय मुद्दों में से एक जनसंख्या में तेज वृद्धि रहा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर जनसंख्या नियंत्रण का विषय छेड़ते हुये दो बच्चों से अधिक पर रोक लगाने की माँग से इसे गरम करने की कोशिश की है। हालाँकि आधिकारिक तौर पर संघ-बीजेपी द्वारा इस मुद्दे को सीमित संसाधनों की तुलना में बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर नियंत्रण के रूप में रखा जाता है पर ज़मीनी स्तर के प्रचार में उसकी मशीनरी इस मुद्दे को मुसलमानों द्वारा अधिक बच्चे पैदा कर आबादी बढ़ाने और हिंदुओं के अल्पसंख्यक बन जाने के जवाब के तौर पर प्रस्तुत करती है। पर क्या भारत में जनसंख्या में विस्फोट जैसी कोई समस्या वास्तव में बची है?
जनसंख्या वृद्धि की दो मूल वजह हैं – एक, जन्म दर का अधिक होना, और दूसरे, मृत्यु दर का कम होना। जहाँ तक जन्म दर का सवाल है प्रति स्त्री 2.1 बच्चों को प्रतिस्थापन दर अर्थात जनसंख्या के स्थिर बने रहने की दर माना जाता है क्योंकि यह दर जन्म और मृत्यु की दर को समान कर देती है। जन्म दर इससे अधिक होने से जनसंख्या बढ़ती है और कम होने से घटने लगती है। अधिकांश विकसित देशों में इसके 2.1 से नीचे होने से ही जनसंख्या के गिरने और आबादी में वृद्धों का अनुपात बढ़ते जाने की समस्या पैदा हुई है।
जहाँ तक मृत्यु दर का सवाल है वह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में निरंतर घटती रही है क्योंकि आर्थिक विकास तथा बेहतर वैज्ञानिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता से औसत जीवन आयु बढ़ रही थी। लेकिन पिछले वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से अधिकांश पूंजीवादी देशों ने नवउदारवादी नीतियों और बुजुर्गों के लिये स्वास्थ्य सेवाओं और पेंशन जैसे सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर खर्च में कटौती की जो नीति अपनाई है उसकी वजह से यह स्थिति बदल ही नहीं गई है, बल्कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कुछ देशों में हाल में औसत जीवन आयु घटने से मृत्यु दर फिर से बढ़ने लगी है। यही वजह है कि कई देशों में जनसंख्या वृद्धि नहीं बल्कि उसमें कमी की समस्या उठ खड़ी हुई है।

जहाँ तक भारत का सवाल है उसमें 1970 के दशक में एक और उच्च जन्म दर, दूसरी और साथ ही औसत जीवन आयु के बढ़ने से जनसंख्या वृद्धि की गति में भारी विस्फोट हुआ था। किंतु इसके बाद जन्म दर में कमी होनी शुरू हो गई क्योंकि मृत्य दर कम होकर औसत जीवन आयु बढ़ने और शिक्षा के प्रसार से अधिक बच्चों को जन्म देने की प्रवृत्ति कम हो जाती है। 1971 में जहाँ जन्म दर 5.5 थी, 2016 में वह 2.4 से भी कम हो गई और जिस तेजी से यह गिर रही है उससे अनुमान है कि एक-दो साल में ही यह पूरे देश के औसत में 2.1 पर या उससे नीचे आ जायेगी। अब यह सिर्फ उत्तर भारत के कुछ राज्यों में ही 2.1 से ऊपर रह गई (बिहार में सबसे अधिक 3.41) लेकिन वहाँ भी अब यह तेजी से गिर रही है। अन्य कई क्षेत्रों में यह पहले ही 2 से भी कम के स्तर पर आ चुकी है। अतः जन्म दर का उच्च होना अब भारत में जनसंख्या वृद्धि का प्रमुख कारण नहीं है।
इसी की पुष्टि दूसरी तरह जनसंख्या में 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चों के अनुपात से भी होती है। 1975 में कुल जनसंख्या में इनका अनुपात 40% से अधिक था किंतु 2015 में यह 30% के नीचे आ गया अर्थात भारत की आबादी की औसत जीवन आयु बढ़ रही है और उसमें बच्चों का अनुपात घटने लगा है। अभी भारत में युवा और बुजुर्ग आबादी का प्रतिशत बढ़ रहा है। जैसे जैसे समय गुजरता जायेगा, बुजुर्गों का प्रतिशत अधिक होता जायेगा।

भारत में अब जनसंख्या के बढ़ने का मुख्य कारण औसत जीवन आयु दर में वृद्धि है जो 1971 में 50 वर्ष थी और तब से बेहतर चिकित्सा सुविधाओं और भोजन की बेहतर उपलब्धता की वजह से बढ़कर अब 68 वर्ष तक पहुँच चुकी है। इससे मृत्यु दर में हुई गिरावट के कारण अभी तक भारत में जनसंख्या वृद्धि दर अपेक्षाकृत रूप से ऊँची रही है। किंतु यहाँ भी अगर हम विकसित देशों का उदाहरण लें तो भविष्य में औसत जीवन आयु में वृद्धि की संभावना बहुत सीमित हो गई है क्योंकि एक और तो आर्थिक विकास की गति मंद पड़ी है, दूसरी ओर भारत में भी नवउदारवादी नीतियों के अपनाए जाने से एक तो हाल के वर्षों में प्रति व्यक्ति भोजन उपलब्धता और उपभोग घटने लगा है।
दूसरी और स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण बहुत तेजी से हो रहा है और ये बहुत महँगी होकर अधिकांश जनता की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं। अतः अगर औसत जीवन आयु में गिरावट भी न हो तो अब इसमें वृद्धि की भी अधिक गुंजाइश नहीं बची है। अतः अब मृत्यु दर में और कमी होने की संभावना बहुत न्यून हो चुकी है और यह कमोबेश स्थिर हो जायेगी। अतः जनसंख्या वृद्धि दर अधिक होने का यह कारण भी समाप्त हो जायेगा।
ये दोनों कारक बताते हैं कि भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर जल्द ही गिरकर शून्य पर पहुँच जाने वाली है जिससे जनसंख्या पहले स्थिर होगी और उसके बाद भी अगर जन्म दर घटती रही तो इसमें गिरावट भी आरंभ हो सकती है। यह तो निश्चित है कि कुल आबादी में बच्चों और युवाओं का अनुपात गिरकर बुजुर्गों का अनुपात बढ़ने लगेगा। यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिये नकारात्मक स्थिति होगी क्योंकि इससे सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की कम आवश्यकता वाली उत्पादक आयु की आबादी कम होगी और सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की अधिक जरूरत वाली बुजुर्ग आबादी बढ़ जायेगी।
भारत जैसे देश में जहाँ अधिकांश आबादी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है या स्वयं रोजगार से जुड़ी है और उनके पास रिटायरमेंट पश्चात पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा का नितांत अभाव होने से अपने बच्चों पर काफी निर्भरता होती है, वहाँ युवाओं की तुलना में बुजुर्गों की अधिक आबादी भविष्य में एक भयंकर समस्या का जन्म दे सकती है।
साथ ही यह भी तथ्य है कि स्वाभाविक सामाजिक गति के बजाय कानूनी प्रावधानों से किए परिवर्तन अपने साथ कई दुष्परिणाम भी लेकर आते हैं। भारत में दो बच्चों से अधिक पर कानूनी रोक का एक खतरनाक पहलू यह होगा कि सांस्कृतिक कारणों से पहले ही बेटे की चाह में कन्या भ्रूण हत्या की उच्च दर से जूझ रहे समाज में बेटे की चाह और भी मजबूत होगी तथा कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति को बल मिलेगा जो भारतीय समाज में पुरुष-स्त्री अनुपात की पहले से ही नाजुक स्थिति को भयावह बना देगा। यह भारतीय समाज में मौजूद प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों को और भी बल देगा और स्त्रियों के साथ होने वाले अपराधों को भी बढ़ा देगा। इसलिए जब जनसंख्या वृद्धि की संभावना स्वयं ही समाप्त होने की और है बच्चों के जन्म पर कानूनी नियंत्रण हमारे समाज के लिए कई जोखिम पैदा कर सकता है।

https://hindi.newsclick.in/Population-Control-A-Dangerous-Proposal
20-01-2020

Friday, January 17, 2020

गहराती आर्थिक मंदी की वजह से एक और बैंक धराशायी

PMC बैंक के डूबने से उसके हजारों ग्राहकों को हुई भारी तकलीफ और 10 से ज्यादा की मौत की खबर अभी पुरानी भी नहीं हुई थी कि एक और सहकारी बैंक पर संकट के बादल छा गये हैं। रिजर्व बैंक ने 10 जनवरी को बंगलौर के श्री गुरु राघवेंद्र सहकार बैंक के सामान्य कामकाज पर रोक लगाते हुये कहा कि उसमें पैसा जमा करने वाला कोई ग्राहक अगले आदेश तक अपने खाते से 35 हजार रुपए से अधिक नहीं निकाल पायेगा, चाहे खाते में कितनी भी रकम क्यों न जमा हो। रिजर्व बैंक ने इस बैंक को कोई नया कर्ज देने से भी रोक दिया है। उधर निजी क्षेत्र के यस बैंक के बारे में भी पिछले दिनों कई किस्म की अनियमितताओं की खबरें आती रही हैं जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बारे में तो सभी जानते हैं कि पिछले कुछ सालों में डूबे कर्जों की वजह से हुये घाटे के कारण सरकार को उनके चलते रहने के लिये 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक की पूँजी लगानी पड़ी है।

इस बैंक की बंगलौर में 8 शाखायें हैं और 31 मार्च 2018 को इसके 8614 सदस्य थे, जिन्होंने बैंक में 52 करोड़ की शेयर पूँजी का निवेश किया हुआ था। बैंक में कुल जमाराशि 1566 करोड़ थी और इसके द्वारा दिये गये कुल कर्ज 1150 करोड़ रुपये थे। पर 9 महीने से अधिक गुजर जाने पर भी बैंक ने साल 2018-19 के ऑडिट किये हुये वित्तीय खाते अभी तक घोषित नहीं किये थे जो इसकी वित्तीय स्थिति पर पहले ही संदेह खड़ा कर रहे थे। दिसंबर में रिजर्व बैंक द्वारा इसका निरीक्षण करने पर पता चला कि बैंक कई साल से कर्जों की ‘एवरग्रीनिंग’ कर रहा था।
इसका अर्थ है कि जो कर्जदार ब्याज या किश्त जमा न कर सके उसे दूसरा कर्ज देकर उससे ब्याज या किश्त को जमा दिखा दिया जाये और कर्ज के डूबने या एनपीए होने की बात छिपी रहे। अब प्राप्त जानकारी के अनुसार बैंक द्वारा दिये गये कर्ज में से 62 खाते या 372 करोड़ रुपये के कर्ज एनपीए हो गये हैं जो बैंक की कुल शेयर पूँजी 52 करोड़ के 7 गुने से भी अधिक है अर्थात बैंक पूर्णतया दिवालिया हो चुका है। यह राशि बैंक में जमा कुल रकम की लगभग एक चौथाई है अर्थात अगर इतना ही कर्ज डूबा हो तब भी बैंक के लिए जमाकर्ताओं की रकम लौटाने में काफी दिक्कत आने वाली है। इसके अतिरिक्त अगर और भी कर्ज एनपीए हुए तो जमाराशि को लौटाने की दिक्कत और भी बढने वाली है।

बैंकिंग व्यवस्था में ऐसी ही घटनाओं के अनुभव से यहाँ कुछ निष्कर्ष और भी निकाले जा सकते हैं। एक, डूबे हुये कर्जों की तादाद 372 करोड़ रुपये से अभी और भी बढ़ने वाली है। दो, हालाँकि अभी 62 एनपीए खातों का जिक्र किया जा रहा है पर कुल डूबने वाली रकम का बड़ा हिस्सा दो-चार बड़े कर्ज खातों में ही फँसा होता है। तीन, यह ‘एवरग्रीनिंग’ काफी लंबे समय से चल रही थी जो बैंक व रिजर्व बैंक के प्रबंधकों व ऑडिटरों से छिपा होना नामुमकिन है। अतः इसे फ्रॉड कह कर छोड़ देना इसके असली कारणों को छिपाना होगा। हालाँकि यह एक छोटा बैंक है मगर इसके जरिये हम अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सिस्टम की वर्तमान स्थिति पर कुछ विश्लेषण कर सकते हैं।

बैंकों में तेजी से बढ़ते ऐसे सब मामलों में रिजर्व बैंक, सरकार तथा अधिकतर आर्थिक विश्लेषक ऐसा जताते हैं कि यह समस्या कुछ प्रबन्धकों एवं बड़े कर्जदारों द्वारा मिलकर किये गये फ्रॉड या गबन का नतीजा है। उदाहरण के तौर पर पीएमसी बैंक के डूबने का कारण एचडीआईएल द्वारा किया गया गबन बताया गया है।

 पर क्या वास्तव में इन मामलों को सिर्फ फ्रॉड कह देना सही है? फ्रॉड कहने से ऐसा आभास होता है जैसे कि यह बैंकिंग प्रबंधन की कमजोरियों का फायदा उठाकर कुछ जालसाजों-गबनकर्ताओं द्वारा किये गये अपराध हैं जिसके खिलाफ सरकार, बैंकिंग और पुलिस-न्याय व्यवस्था जाँच और सजा के लिए कदम उठा रही है। वित्त और अन्य मंत्री, प्रशासक भी आम तौर पर नीरव मोदी, मेहुल चोकसी द्वारा पीएनबी से धोखाधड़ी के समय से ऐसे सब मामलों में यही बयान दे रहे हैं कि रिज़र्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं के नियामकों, प्रबंधकों, ऑडिटरों की लापरवाही या मिली भगत से ये सब अपराध हुए हैं और अब इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है।
परंतु इन ‘फ्रॉड’ की सारी प्रणाली और घटनाक्रम पर ध्यान दें तो वास्तव में ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि यह सब बैंकों, सीबीआई, रिजर्व बैंक, सरकार को आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से मालूम था। इन कंपनियों द्वारा बैंक कर्ज लेने के लिए अपनाया गया तरीका और बैंक प्रबंधकों द्वारा कर्ज चुकाने में हो रही समस्या को छिपाने के लिये की गई ‘एवरग्रीनिंग’ कोई अजूबा नहीं था, न ही चोरी छिपे चल रहा था बल्कि यह एक सामान्य कारोबारी तरीका था जिसका चलन पूरे बैंकिंग उद्योग में है।

स्पष्ट है कि इस बड़ी मात्रा में डूबे कर्जों और फ्रॉड की परिघटना को इन्हें कुछ अपराधियों द्वारा किये गए फ्रॉड कहकर नहीं समझा जा सकता। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक, बीमा, आदि वित्तीय क्षेत्र और उद्योग-व्यापार क्षेत्र के पूंजीपतियों के परस्पर संबंधों को समझना चाहिए। पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक पूंजीपति को प्रतिद्वंद्विता में टिके रहने अधिक से अधिक बाजार हासिल करने और अपना अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर अधिक से अधिक चल-अचल पूंजी के निवेश की आवश्यकता होती है।
आज एक ओर तो उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में पहले ही पूंजी की जकड़बंदी होने से बाजार के विस्तार की संभावनाएं बहुत सीमित हो चुकी हैं, दूसरी ओर हर उद्योग में कुछ पूंजीपतियों का एकाधिकार कायम हो चुका है। इसलिए दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ने की यह होड़ अत्यंत गलाकाट हो चुकी है। इसलिए सभी पूंजीपतियों के लिए वित्तीय पूंजीपतियों से अधिकाधिक पूंजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरंतर विस्तारित करने का दबाव हमेशा बना रहता है। फिर स्वयं बैंक, बीमा, आदि वित्तीय पूंजीपतियों में भी एकाधिकार की होड़ है और उन्हें भी आवश्यकता रहती है कि वे अपना बाजार हिस्सा बढ़ाने हेतु ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों का वित्तीय पोषण कर उनके द्वारा कमाये लाभ में से अपनी हिस्सेदारी और मुनाफा सुनिश्चित करें। दोनों का यह परस्पर हित सुनिश्चित करता है कि बैंक उद्योग-व्यापार की अधिक से अधिक कंपनियों को लगातार एक के बाद एक पहले से बड़े कर्ज देते रहें।
वास्तविकता यह है कि ये बड़े पूँजीपति कभी कोई कर्ज वापस नहीं करते। बल्कि वह हर बार पहले से बड़ा कर्ज लेते हैं, जिससे पिछले कर्ज को जमा दिखाया जाता है। इसके बल पर ही वह बड़े पूंजीपति बनते हैं। इस पूंजी से ही उनका मुनाफा आता है और बैंकों को कर्ज पर ब्याज तथा कमीशन मिलता है। यह चक्र जब तक चलता है तब तक सब सामान्य रहता है, मगर जब यह टूटता है तो इसे फ्रॉड का नाम दे दिया जाता है।

यहाँ बैंकों की कार्यविधि की कुछ जानकारी जरुरी है। बैंक मुख्यतया दो किस्म के कारोबारी कर्ज देते हैं। एक, नया कारखाना लगाने, विस्तार करने, उन्नत तकनीक और मशीनें लगाने, आदि बड़े निर्माण में स्थाई निवेश के लिए दिए गए कर्ज निश्चित अवधि के होते हैं जिन्हें मासिक, त्रैमासिक, छमाही, सालाना, आदि अंतराल पर मूल व ब्याज की किश्तों में चुकाना होता है। दूसरे, उत्पादन के लिए सामग्री, श्रम शक्ति खरीदने, उत्पादित माल के भंडारण और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच मध्यस्थ व्यापारियों से माल का भुगतान आने तक उधार देने के लिए बैंक नकद उधार, ओवरड्राफ्ट, गारंटी, लेटर ऑफ़ क्रेडिट, लेटर  अंडरटेकिंग, पैकिंग क्रेडिट, बिल डिस्कॉउंटिंग, आदि कई रूपों में कारोबारी कर्ज देते हैं, जो कहने के लिए तो 3, 6, 9 महीने या एक-डेढ़ साल में चुकाने होते हैं पर कभी चुकाए नहीं जाते, बस ब्याज चुका दिया जाता है, वह भी अक्सर अगला कर्ज और बड़ी रकम का लेकर। इसी पूंजी के बल पर सभी पूंजीपति अपने उत्पादन और कारोबार का विस्तार करते रहते हैं और दूसरे पूंजीपतियों से होड़ करते हैं।

पर पूंजीवादी व्यवस्था में सभी पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला यह निरंतर विस्तार हर कुछ वर्ष में 'अति-उत्पादन' का संकट पैदा करता है क्योंकि अधिकांश जनता की क्रय क्षमता सीमित होने से उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाता है। तब उद्योगों में नया निवेश बंद हो जाता है तथा पूंजीगत मालों की मांग खास तौर पर नीचे आ जाती है। इस स्थिति में इन विस्तार करते पूंजीपतियों में से कुछ के लिए यह चक्र टूट जाता है, वे दिवालिया हो जाते हैं, और उन्हें उद्योगों की कब्रगाह में दफना दिया जाता है। तब उनके लिए हुए कर्ज एनपीए, विलफुल डिफाल्टर, फ्रॉड, आदि के रूप में सामने आते हैं। साथ ही कभी-कभी विभिन्न कारणों से किसी बैंक द्वारा किसी पूंजीपति को नया कर्ज नहीं मिले तब भी उसका कारोबार तबाह हो जाता है व कर्ज डूब जाता है। इसलिए बैंकिंग उद्योग का संकट असल में पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित संकट को ही प्रतिबिंबित करता है।

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था में भी यही स्थिति है। पूँजीपतियों ने भारी मात्रा में बैंक कर्ज लेकर उत्पादन क्षमता में जो निवेश किया है वह बाजार में मौजूद माँग अर्थात ख़रीदारी क्षमता से अधिक है और उद्योगों को लगाई गई क्षमता पर नहीं चलाया जा पा रहा है। रिजर्व बैंक पिछले कई सालों से बता रहा है कि उद्योगों की जितनी उत्पादन क्षमता है वे उसके 65-75% के बीच ही उत्पादन कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर बिक्री न होने की वजह से पिछले वर्ष अधिकांश कार/दुपहिया वाहन बनाने वाले कारखाने हर महीने दसियों दिन तक उत्पादन बंद रखने के लिये विवश थे। हालत यहाँ तक पहुँच गई है कि उद्योगों के बंद होने से बिजली की माँग कम हो गई है और पिछले 5 महीने से बिजली का उत्पादन कम करना पड़ रहा है।

किंतु लगाई गई पूँजी का उत्पादन और बिक्री में पूरा इस्तेमाल न होने से उद्योगों का परिचालन लाभ कम हो जाता है। लाभ कम होने से उनके लिये बैंक कर्ज का ब्याज और किश्त चुकाना मुमकिन नहीं रहता। कुछ समय तक कर्ज की मात्रा बढ़ाकर या कोई दूसरा कर्ज देकर बैंक मूल कर्ज के ब्याज/किश्त को चुकता दिखाते हैं क्योंकि उन्हें उम्मीद होती है कि स्थिति सुधर जायेगी। कर्जदार ही नहीं बैंक भी कर्ज को डूबा नहीं दिखाना चाहते क्योंकि उससे बैंक को भी घाटा दिखाना पड़ता है। इस तरह कर्ज के भुगतान में समस्या को छिपाने को ही एवरग्रीनिंग कहा जाता है। किंतु अगर अर्थव्यवस्था की स्थिति न सुधरे तो किसी न किसी स्थिति में जाकर इसे छिपा पाना नामुमकिन हो जाता है। तब इसके मूल कारण आर्थिक मंदी का जिक्र न कर बैंक/रिजर्व बैंक व सरकार इसे फ्रॉड की संज्ञा देते हैं।
मगर वास्तविकता यही है कि इतने सारे कर्जों के चुकाये जाने में दिक्कत का मूल कारण अर्थव्यवस्था में गहराता जा रहा संकट है और इसी संकट का नतीजा एक के बाद एक बैंकों के धराशायी होने में नजर आ रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के कई बड़े बैंक भी इस दिवालिया होने के नतीजे से सिर्फ इसलिए बच पाये हैं क्योंकि सरकार ने उन्हें जिंदा रखने के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी झोंकी है जो आम मेहनतकश जनता पर लगाये गये भारी टैक्स व शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर खर्च में कटौती से जुटाई गई है।

 https://hindi.newsclick.in/Another-bank-collapses-due-to-deepening-economic-recession
16-01-2020

Wednesday, January 15, 2020

संकट में अर्थव्यवस्था, रिकॉर्ड ऊँचाई पर शेयर बाजार, रहस्य क्या है!

14 जनवरी को सेंसेक्स 42 हजार से 6 अंक ही पीछे रह गया। हाल के दिनों में एक और तो अर्थव्यवस्था में संकट – माँग, उत्पादन, बिक्री व मुनाफा दर में गिरावट - की खबरें आ रही हैं, दूसरी ओर शेयर बाजार के सूचकांक नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। दोनों का यह विपरीत लगने वाला व्यवहार अधिकांश लोगों के लिए मुश्किल, अनसुलझी पहेली बना हुआ है। फिर बीच बीच में कुछ अजीब खबरें भी आती रहती हैं। जैसे, एयरटेल को लगभग 25 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ, लेकिन उसके बाद उसके शेयर के दाम गिरने के बजाय उछल गये या बंद हो चुकी जेट एयरवेज़ के शेयर पिछले दिनों अचानक बढ़ने लगे। इसी तरह भारी घाटे से दिवालिया होने की स्थिति से जूझ रही अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इंफोकोम के शेयर कुछ दिन पहले तीन गुना तक चढ़ गये। हालाँकि आम तौर पर सब जानते हैं कि ऐसे मामलों में सट्टेबाजी की मुख्य भूमिका है पर सट्टेबाजी के पीछे भी कुछ आर्थिक कारण काम करते हैं जिन्हें समझना जरूरी है।
शेयर बाजार की हालिया तेजी के पीछे मुख्य तात्कालिक कारण तो सरकार द्वारा पिछले महीनों में घोषित आर्थिक नीतियाँ हैं अर्थात बैंक ऋण पर ब्याज दरों में कटौती, कॉर्पोरेट कर में छूट तथा व्यवसायियों को अन्य कई किस्म की राहत। इन सब का असर है कि कंपनी मालिक या शेयरधारक पूँजीपतियों के हाथ में बचे मुनाफे में वृद्धि। पूँजीपति अपने कारोबार में जो कुल मुनाफा अर्जित करते हैं उसमें से ही बैंक ऋण पर ब्याज व सरकार को दिया जाने वाला टैक्स चुकाते हैं। अगर इन दोनों को कम कर दिया जाये तो मुनाफा उतना ही रहने या कम होने पर भी पूँजीपति मालिकों के पास बच जाने वाला मुनाफे का अंश बढ़ जाता है। अभी आर्थिक संकट की वजह से कम माँग, उत्पादन व बिक्री के कारण कुल मुनाफा तो नहीं बढ़ रहा है पर उपरोक्त सरकारी कदमों की वजह से पूँजीपतियों के हाथ में रहने वाला मुनाफे का अंश बढ़ जाने से न सिर्फ औद्योगिक पूँजीपति वर्ग बल्कि कंपनियों में निवेश करने वाले वित्तीय पूँजीपति भी प्रसन्न हैं। साथ ही उन्हें सरकार की ओर से उनके मुनाफे को बढ़ाने वाले ऐसे ही ओर कदमों की भी आशा है। यह शेयर बाजार में उछाल की एक तात्कालिक वजह है।
किंतु इसका मूल कारण समझने के लिये हमें और गहराई में जाने की जरूरत है। पूंजीवाद का संकट जैसे-जैसे बढ़ रहा है, पूंजी निवेश वास्तविक उपयोगिता मूल्य की वस्तुओं वाले मालों के उत्पादन में कम और वित्तीय पूंजी के बाजारों - करेंसी, शेयर, जिंसों के सट्टे - में लग रहा है; इनके सीधे दाम तो बहुत लोगों को पता चलते हैं पर असली सट्टा तो उन ऑप्शन, हेज, फॉरवर्ड रेट एग्रीमेंट, स्वैप - डिफ़ॉल्ट, इंटरेस्ट रेट, करेंसी, आदि में हो रहा है जिन्हें डेरीवेटिव कहा जाता है अर्थात असली व्यापार में क्या होगा, दाम किधर जायेंगे, इस पर होने वाला सट्टा। एक उदाहरण - आज पूरी दुनिया में करेंसी के जितने सौदे होते हैं (जैसे डॉलर-रूपया) उनका सिर्फ 1% ही वास्तविक व्यापार या लेन-देन से जुड़ा है, बाकी सब सट्टा बाजार से जुड़ा है। इस तरह बाजार के मांग-पूर्ति के नियम से इनके दाम बढ़ते जाते हैं। जैसे अभी ही देखिये हर तिमाही में रिजर्व बैंक बताता है कि अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश कम हो रहा है पर शेयर बाजार उठ रहा है क्योंकि असली मालों की मांग में सिकुड़न है। उद्योग अपनी क्षमता के 65-70% पर ही उत्पादन कर रहे हैं, और वहां नए निवेश की कोई गुंजाईश नहीं है। अतः वित्तीय पूंजी सट्टा बाजार में मुनाफा ढूंढ रही है और शेयरों के भाव ऊपर जा रहे हैं।
प्रत्येक पूंजीपति अधिकतम मुनाफे और दूसरे पूंजीपतियों को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ने हेतु निरंतर नई तकनीक और पूंजी में निवेश बढ़ाता है ताकि कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन कर बाजार के ज्यादा हिस्से पर काबिज हो सके। सब पूंजीपति यही करते हैं और उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाने से अति उत्पादन का संकट पैदा होता है जिसका समाधान कुछ पूंजीपतियों की बरबादी और बचे हुओं के लिये बाजार के बढ़े हिस्से में होता है। अधिक पूंजी निवेश की इसी जरुरत ने पहले व्यक्तिगत पूंजी से साझेदारी को जन्म दिया। पर साझेदार मुनाफे और घाटे दोनों के लिए जिम्मेदार है अतः प्रबंध में भी हिस्सेदारी रखता है। इसलिए इस की सीमा जल्दी ही आ गईं। इसके बाद आधुनिक संयुक्त पूंजी कंपनी का जन्म हुआ जिसमें प्रत्येक शेयर धारक डिविडेंड या लाभांश में हिस्सा प्राप्त करता है लेकिन घाटा होने पर अपने हिस्से या शेयर से ज्यादा का जिम्मेदार नहीं, इसलिए प्रबंध में भी हिस्सेदार नहीं। इससे कम पूंजी लगाकर भी कंपनी प्रमोटर प्रबंध पर एकाधिकार और मुनाफे में अधिक हिस्सा रख सकता है।
लेकिन शेयर धारक पूंजी डूबने के जोखिम के रहते भी निवेश क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें अपनी पूंजी बैंक, सोने या जमीन/मकान में लगाने से प्राप्त होने वाली आमदनी से अधिक दर पर लाभांश या डिविडेंड मिलने की उम्मीद होती थी। वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवाद के पहले के दौर में यही होता था - बहुत से मध्यमवर्गीय, पेशेवर, व्यापारी, आदि अपनी पूंजी बड़ी कंपनियों के शेयर में लगाकर साल दर साल अपेक्षित आमदनी पाते रहते थे। उस वक्त शेयरों के दाम भी मिलने वाले लाभांश की दर से तय होते थे। लेकिन वित्तीय पूंजीवाद के दौर में, अर्थात औद्योगिक और बैंक पूंजी के मिलन के बाद स्थिति बदल गई। आज जब कंपनी बनती है तो 2 किस्म के निवेशक होते हैं - प्रमोटर और वित्तीय निवेशक (बैंक, बीमा, तमाम किस्म फंड जैसे वेंचर फंड, आदि)। इन्हें शेयर अलॉटमेंट पूंजी के हिस्से के वास्तविक मूल्य (10 रु का शेयर 10 रु में) या रियायती/डिस्काउंट दाम (10 रु का शेयर 8 या 9 रु में) पर होता है। वित्तीय निवेशक का मकसद कंपनी के शेयरों के दाम बढ़ने पर मुनाफा कमा लेना होता है, इसलिए लाभांश की घोषित दर का फायदा सिर्फ प्रमोटर को होता है। कारोबार के थोड़ा बढ़ते ही इसके शेयर अन्य निवेशकों को बढे दामों पर बेचे जाने शुरू हो जाते हैं, बाजार में निर्गम निकालकर जिन्हें आईपीओ, एफपीओ, आदि कहा जाता है। नतीजा यह कि इन निर्गमों में मूल्य प्रति शेयर आमदनी का 15-20 गुना होता है अर्थात कंपनी को होने वाली कुल आय ही शेयर मूल्य पर 5% है जबकि सारी आय भी लाभांश में नहीं दी जाती, उसका एक बड़ा हिस्सा कंपनी के अन्य निवेश के लिए रखा जाता है। फिर ये शेयर स्टॉक एक्सचेंज में और बढे मूल्य पर ख़रीदे-बेचे जाते हैं। आज की स्थिति में सेंसेक्स-निफ़्टी के दाम प्रति शेयर आमदनी के 28-30 गुना हैं अर्थात अगर पूरा लाभ भी लाभांश के तौर पर मिले तो 3% अर्थात बैंक के बचत खाते बराबर। पर वास्तविक लाभांश तो बहुत अधिक लाभ कमाने वाली कंपनियों में भी अक्सर शेयर मूल्य पर 1% से भी नीचे है! कुछ छोटी कंपनियों के मामले में तो शेयर मूल्य प्रति शेयर आय के 100 गुना से ऊपर तक जा पहुंचे हैं। कहा जा सकता है कि शेयर बाजार और लाभांश की दर में आज कोई संबंध नहीं है।
सवाल उठता है कि इतने कम लाभ के बावजूद भी शेयर बाजार में निवेश किसलिए हो रहा है? वह इस उम्मीद में कि शेयर का मूल्य बढ़ने से मुनाफा होगा! उस उम्मीद पर सटोरिया पूंजी की मांग शेयर मूल्य बढाती जाती है, जब तक कि कोई कमजोर कड़ी टूटने से धड़ाम न हो! एक तरफ वास्तविक माल उत्पादन में मुनाफे की गिरती दर है, तो दूसरी ओर अधिकतम मुनाफे के पीछे भागती अधिक से अधिक वित्तीय पूंजी। वह फिर कहाँ जाये? इस स्थिति में शेयर बाजार में शेयर अब कंपनी द्वारा उत्पादन पर कमाये लाभ में हिस्सा पाने के लिए पूंजी निवेश न होकर खुद ही एक माल में परिवर्तित हो गए हैं जिनके दाम बाजार में प्रचुर नकदी तरलता और मांग-पूर्ति के नियम से बढ़ते जाते हैं। अर्थात पूंजीवाद का संकट ही शेयर बाजार के ऊपर चढ़ते जाने की वजह है।
उदाहरण के तौर पर 2017 व 2018 के के दो साल में ही सेंसेक्स की 30 कंपनियों का कर पश्चात मुनाफा 7.3% कम हुआ। निफ्टी की 50 कंपनियों के लिए यह गिरावट 3.3% थी। उसके बाद तो संकट और भी तेजी से बढ़ा है। पर शेयर बाजार रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। अगर प्रति शेयर आय के मुक़ाबले दाम का अनुपात देखें - सेंसेक्स की 30 कंपनियों का आय/दाम अनुपात शेयर बाजार में गिरावट के वक्त सितंबर 2012 में 17.5 था अर्थात प्रति शेयर आय 10 रू हो तो शेयर का दाम 175 रू था। इसका मतलब है कि प्रति शेयर आय 6% से थोड़ी कम थी। अब यह अनुपात 28 है अर्थात 10 रू आय वाले शेयर का दाम 280 रू है - आय 4% से भी कम ही रह गई है अर्थात बैंक के बचत खाते के बराबर। यह स्थिति भी सबसे बड़ी कंपनियों की है, छोटी कंपनियों का हाल तो और बुरा है। जहां तक कंपनी के प्रोमोटर पूंजीपति और उनके करीबी या पृष्ठपोषक वित्तीय पूँजीपतियों का सवाल है उन्हें अधिकांशतः शेयर अंकित मूल्य पर (10 रू वाला 10 रू में) या कुछ प्रीमियम पर मिले होते हैं, इसलिए उनके लिए आय व लाभांश का अनुपात भिन्न है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें कई फायदे होते हैं - करोड़ों में वेतन, खर्च सब कंपनी के खाते में, कंपनी पर नियंत्रण है तो चोरी का मौका (कंपनी की संपत्ति को निजी में परिवर्तित कर लेना), आदि। शेयर के दाम बढ़ना उनके लिए मात्र एक अतिरिक्त लाभ है। पर शेयर बाजार में शेयर खरीदने वाले को तो पूरा 2-4% लाभ भी नहीं मिलता - इसका बड़ा हिस्सा तो कंपनी के रिजर्व में चला जाता है और लाभांश या डिविडेंड बहुत कम होता है - औसत शायद 1-2% या उससे भी नीचे।
कुछ दशक पहले तक शेयर में निवेश अर्थात कंपनी की पूंजी के एक हिस्से का मालिक बनने में निवेश करने का कारण यह था कि पूंजी पर मिलने वाला औसत लाभ हासिल हो। क्योंकि यही निवेश अगर बैंक के जरिये किया जाता तो इस औसत लाभ में से एक हिस्सा बिचौलिया बैंक रख लेता था, और पूंजी मालिक को मिलने वाला लाभ अर्थात जमाराशि पर ब्याज सीधे कंपनी के शेयर में निवेश करने पर मिलने वाले लाभ से कम होता था। इसलिए जो कंपनी अधिक लाभांश देती थी उसके शेयर के दाम अधिक हो जाते थे और सब पूंजी निवेशकों को एक औसत दर पर लाभ हासिल होता था। मगर अब उल्टा है - बैंक में बचत खाते में रखने पर ही 3.5% ब्याज मिलता है, एफड़ी में तो लगभग 6%
फिर भी लोग शेयर बाजार में पैसा क्यों लगाते हैं? मेहनतकश वर्ग की श्रम शक्ति खुद को मिलने वाले मूल्य अर्थात अर्जित की गई मजदूरी से फाजिल जो उत्पादन करती है वह पूँजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता है। यह लूटा गया फाजिल उत्पादन या अधिशेष ही पूंजी है। लंबे वक्त तक इस पूंजीवादी शोषण के चलते पूंजीपति वर्ग और उसके प्रबंधक उच्च मध्य वर्ग के पास बड़ी भारी मात्रा में पूंजी एकत्र हो गई है। पर पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के चलते अब इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी के लाभप्रद निवेश के विकल्प कम ही बचे हैं। इसलिए यह पूंजी शेयर बाजार व कई अन्य किस्म की सट्टेबाजी (जिंस, मुद्रा बाजार व उनके वायदा, ऑप्शन, फ्युचर, स्वैप जैसे डेरिवेटिव) में लग रही है। शेयर बाजार अब उद्योग-व्यापार से होने वाले औसत लाभ को पूंजी निवेशकों में वितरण का माध्यम नहीं रहा, बल्कि खुद मांग-पूर्ति के आधार पर शेयर के दामों में उतार-चढ़ाव का व्यापार से लाभ कमाना ही लक्ष्य बन गया है। पहले बड़ी पूंजी वाले वित्तीय निवेशक और दलाल चक्रीय व्यापार से शेयरों के दाम बढ़ाना शुरू करते हैं। इसके आधार पर इनके ही कर्मचारी विश्लेषक और कारोबारी मीडिया इसकी चर्चा कर माहौल तैयार करते हैं, जिससे निवेशक आकृष्ट होते हैं, जिससे मांग बढने से दाम बढ़ते हैं, उससे और माहौल बनता है, और निवेशक आकर्षित होते हैं, और मांग से और दाम बढ़ते हैं। इस तरह दाम बढ़ते जाते हैं और अपने मालिकाने के शेयर के बढ़ते दामों पर हिसाब लगाने से सबको संपन्नता भी बढ़ती नजर आती है। अभी तो जमीन/मकान वाला बाजार भी ढह गया है इसलिए उधर लगने वाला पैसा भी शेयर बाजार में ही आ रहा है। इसके चलते ऐसी स्थिति आ जाती है कि निवेशकों को सूद पर ऋण लेकर शेयर बाजार में लगाने में भी लाभ नजर आने लगता है। यह स्थिति अब तैयार हो रही है, बैंक व एनबीएफ़सी के फुटकर ऋण में कॉर्पोरेट ऋण के मुक़ाबले तेजी से इजाफा हो रहा है। यही एक दिन कहीं न कहीं किसी न किसी को भुगतान के संकट में पहुंचा देता है और एक जगह भुगतान का संकट पैदा होते ही नीचे की एक ईंट निकालने से इमारत के ढहने की तरह पूरी पोंजी स्कीम ढहने लगती है। तब उसकी नींव से कोई हर्षद मेहता, केतन परीख, आदि 'स्कैम' निकलता है।
अतः शेयर बाजार की वर्तमान छलांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मजबूती का नहीं, उस पर छाए संकट का नतीजा है।
      
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