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Financial Crisis In India - Brief Study

Thursday, January 2, 2020

आर्थिक आधार पर आरक्षण


7 जनवरी को मोदी सरकार 124वां संविधान लेकर आई जिसे 2 दिन के अंदर लगभग सभी दलों के समर्थन से संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया। इसके अनुसार जिन जातियों-समुदायों को पहले से ही शिक्षा और सरकारी नौकरी के लिए आरक्षण की सुविधा नहीं है उनके आर्थिक तौर पर कमजोर हिस्सों को भी इन दोनों क्षेत्रों में 10% आरक्षण मिलेगा। इसके लिए अर्हता, आदि के नियम राज्य सरकारें बनाएंगी। यह अनुसूचित जातियों-जनजातियों व पिछड़ी जातियों को प्राप्त 49.5% आरक्षण के अतिरिक्त है। इस संशोधन के उद्देश्य वक्तव्य के अनुसार समाज के आर्थिक तौर पर कमज़ोर हिस्से उच्च शिक्षा संस्थानों और सार्वजनिक नौकरियों से वंचित रहे हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से सशक्त लोगों के मुक़ाबले इनमें प्रवेश के लिए प्रतियोगिता हेतु अक्षम हैं। सरकार का कहना था कि संविधान की धारा 46 में सरकार के लिए यह नीति निर्देशक सिद्धांत है कि वह समाज के कमजोर हिस्सों के आर्थिक व शैक्षणिक हितों की हिफाजत करे। इस हेतु सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए तो आरक्षण की सकारात्मक कार्रवाई की जा चुकी है किंतु आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सों के लिए अभी कुछ नहीं किया गया है। अतः धारा 46 के निर्देश की पूर्ति और आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सों के लोगों को उच्च शिक्षा पाने और राजकीय रोजगार में हिस्सा लेने का उचित मौका देने हेतु संविधान में संशोधन कर यह प्रावधान किया जा रहा है। 

हालांकि आर्थिक रूप से कमजोर हिस्सों की पहचान का आधार क्या होगा यह अभी घोषित नहीं किया गया है मगर ऐसा इंगित किया गया है कि यह वही होगा जो पिछड़ी जातियों में क्रीमी लेयर तय करने का है। इसके अनुसार आठ लाख रुपये सालाना आय से कम वाले परिवार, मुंबई, दिल्ली, आदि बड़े शहरों में 999 वर्ग फुट तक के घर मालिक, अन्य शहरों में 209 या 109 वर्ग गज मकान वाले या एकड तक जमीन वाले किसान समाज के आर्थिक रूप से कमजोर हिस्से में आते हैं। इसके बिना किसी खास विश्लेषण में जाये ही कहा जा सकता है कि भारत की जनसंख्या के लगभग 90% लोग आर्थिक रूप से कमजोर हिस्से में आते हैं। आरक्षण के सवाल के सामाजिक-राजनीतिक पहलू पर चर्चा के पहले हम इसी मुद्दे पर विचार करेंगे कि क्या सरकार की मंशा वास्तव में इन 90% आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए उच्च शिक्षा व सार्वजनिक रोजगार के अवसर मुहैया कराना है।

पिछले तीन दशक की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में उच्च ही नहीं प्राथमिक शिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ है और वह निरंतर अत्यधिक महंगी होती गई है। पिछली यूपीए व अब मोदी सरकार के दौरान यह प्रक्रिया बहुत तेज हो गई है। स्थिति यह है कि अधिकांश स्तरीय सार्वजनिक क्षेत्र के उच्च शिक्षा संस्थानों में भी पढ़ाई का खर्च 2-3 लाख रुपये सालाना तक जा पहुंचा है। निजी क्षेत्र की हालत तो उससे भी कहीं बदतर है। तकनीकी और विज्ञान की तो छोड़िए, मानविकी के पाठ्यक्रमों में भी सालाना शुल्क अमेरिका-यूरोप के स्तर पर जा पहुंचा है और सालाना 10 लाख रु या इससे भी अधिक खर्च वाले संस्थान खुल रहे हैं। आगे सरकारी संरक्षण में प्रस्तावित अंबानी, नीलेकनी, रघुराम राजन, जिंदल, प्रेमजी, आदि धन्नासेठों या उनके प्रबंधकों के संस्थान तो और भी महंगे होने वाले हैं। दूसरी ओर, पुराने विश्वविद्यालयों जिनमें आम लोगों को प्रवेश का पहले मौका मिल जाता था उनमें सामान्य पाठ्यक्रमों में स्थान कटौती का शिकार हो रहे हैं और ऊंचे शुल्क वाले नए पाठ्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं। इस स्थिति में देश की 90% आर्थिक रूप से कमजोर जनता के लिए उच्च शिक्षा के दरवाजे पहले ही लगभग बंद हो चुके हैं और आरक्षण के नए प्रावधान से कतई खुलने वाले नहीं हैं। जिस देश में 60% जनता के पास कोई संपत्ति नहीं और एक बड़ी आबादी अभी 32 रु रोज वाली सरकारी गरीबी रेखा से भी नीचे है, वहाँ जो सरकार शिक्षा के निजीकरण और सार्वजनिक शिक्षा को अत्यधिक महंगा करने की नीति पर तेजी से चल रही हो, उसके द्वारा इस आरक्षण से आर्थिक रूप से कमजोर जनता को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने की मंशा की बात महाधूर्त लोग ही कह सकते हैं और अति भोले या मूर्ख लोग ही उसका विश्वास कर सकते हैं।    

रोजगार के सवाल पर विचार करें तो मात्र निजी क्षेत्र में ही नहीं ख़ुद मोदी सरकार के नियंत्रण वाली सरकारी नौकरियों में भी भयंकर स्थिति है सरकारी नौकरियों में भर्ती इस सरकार के पहले 3 साल में ही 89% घट गई। फिर भर्ती न करने की वजह से खाली पड़े 2 लाख पदों को भी सरकार ने यह कहकर समाप्त कर दिया कि इतने दिनों से काम चल रहा है तो इन पदों पर भर्ती की कोई जरूरत ही नहीं है इसी तरह रेलवे में भी 20 हजार पद समाप्त कर दिए गए अन्य सार्वजानिक ईकाइयों की भी यही स्थिति है सरकारी बैंकों को आपस में विलय कर बैंकों को कम किया  जा रहा है और इसके बाद इनकी कई हजार शाखायें बंद की जानी हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में 6 बैंकों के विलय के नतीजे में 2 हजार से अधिक शाखाएँ बंद हो रही हैं और अब 2 बैंकों के बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय से भी लगभग 1100 शाखाएँ बंद होने की संभावना है। इसलिये वहाँ भी नई नौकरियों की तादाद बहुत कम हो जाने वाली  है साथ ही वर्तमान कर्मचारियों को भी स्वैच्छिक रिटायरमेंट का प्रस्ताव दिया जा रहा है। अभी चुनाव के पहले सरकारी नौकरियों में भर्ती की जो खबरें आ भी रही हैं उनमें घोषणाएँ ज्यादा हैं वास्तविक प्रक्रिया कहीं बढ़ती दिखाई नहीं देती। जो रिक्तियाँ निकाली भी जाती हैं उनमें लाखों-करोड़ों की तादाद में भारी शुल्क के साथ आवेदन मंगाने के बाद प्रक्रिया ही रद्द हो जाती है, परीक्षा में घपला हो जाता है या अन्य किसी अनियमितता से कानूनी रुकावट पैदा कर दी जाती है और नौकरी के इच्छुक नौजवान भारी प्रताड़णा का शिकार होते हैं। नतीजा यह कि पिछले 5 साल में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की कुल तादाद ही लगभग 75 हजार घट गई है। यहाँ तक कि फौज-पुलिस जहाँ अभी तक नौकरियों में कटौती नहीं की गई थी वहाँ भी अब पुनर्गठन की योजना प्रस्तावित है जिसके अंतर्गत सेना की कुल संख्या करीब डेढ़ लाख कम कर दी जाएगी ताकि जवानों पर खर्च में कटौती कर तकनीक और अस्त्र-शस्त्रों की खरीद पर ज्यादा खर्च किया जा सके।

रोजगार की उम्मीदों की वास्तविक स्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि हर वर्ष नये रोजगार सृजन की दर कम हो रही है और वर्ष 2015 में अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले उद्योगों में सबसे कम केवल 1.35 लाख नये रोजगार ही सृजित हुए। सरकारी लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार इसके मुकाबले 2013 में 4.19 लाख और 2014 में 4.21 लाख नये रोजगार सृजित हुए थे। अगर लेबर ब्यूरो के आंकडों को गौर से देखें तो दरअसल स साल की दो तिमाहियों यानी अप्रैल-जून और अक्टूबर-दिसम्बर 2015 में क्रमशः 0.43 व 0.20 लाख रोजगार कम हो गये! इसके बाद मोदी सरकार ने अपने लेबर ब्यूरो के आंकड़े ही जारी करने बंद कर दिये और कहा कि रोजगार तो बहुत सृजित हो रहे हैं लेकिन उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। कुछ लोग इसे सिर्फ मोदी नीत बीजेपी सरकार की नीतियों की असफलता बता कर ही रूक जाते हैं लेकिन अगर हम गौर से देखें तो यह इस या उस नेता, इस या उस पार्टी का सवाल नहीं है, असल में तो यह पूँजीवादी व्यवस्था के नेता-निरपेक्ष, पार्टी-निरपेक्ष मूल आर्थिक नियमों का नतीजा है। रिजर्व बैंक के एक अध्ययन पर आधारित यह विश्लेषण काबिल-ए-गौर है कि 1999-2000 में अगर जीडीपी 1% बढती थी तो रोजगार में भी 0.39% का इजाफा होता था। 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गई कि 1% जीडीपी बढने से सिर्फ 0.15% रोजगार बढता है। 2016-17 आते-आते यह दर 0.09% ही रह गई। मतलब जीडीपी बढने, पूँजीपतियों का मुनाफा बढने से अब लोगों को रोजगार नहीं मिलता। 

रोजगार की असली हालत तो अब यह हो चुकी है कि आम मजदूरों और साधारण विश्वविद्यालय-कॉलिजों से पढने वालों को तो रोजगार की मंडी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक 'सौभाग्य' के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोजगारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की जरूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय स्टार्ट अप वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! कुछ वक्त पहले ही फ्लिपकार्ट, एल एंड टी इन्फोटेक जैसी कम्पनियों ने हजारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे बाद में कागज के टुकडे मात्र रह गये क्योंकि उन्हें काम पर ज्वाइन ही नहीं कराया गया!
असल में तो निजी सम्पत्ति और मुनाफे पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही असाध्य बीमारी की शिकार हो चुकी है; निजी मुनाफे-सम्पत्ति के लिये सामाजिक उत्पादन का निजी अधिग्रहण करने वाली यह व्यवस्था आज की स्थिति में उत्पादन का और अधिक विस्तार नहीं कर सकती। भारत में भी हम पूँजीवादी व्यवस्था के क्लासिक 'अति-उत्पादन' के संकट को देख रहे हैं। इस अति-उत्पादन का अर्थ समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं है बल्कि एक तरफ तो 90% जनता जरूरतें पूरी न होने से तबाह है दूसरी और आवश्यकता होते हुए भी क्रय-शक्ति के अभाव में जरूरत का सामान खरीदने में असमर्थ है। इस लिये बाजार में माँग नहीं है, कई सालों से उद्योग स्थापित क्षमता से काफी कम (लगभग 68-72%) पर ही उत्पादन कर रहे हैं। अतः न पूंजीपति ही नया निवेश कर रहे हैं और न ही रोजगार निर्माण हो रहा है। बल्कि पूँजीपति मालिक अपना मुनाफा बढाने के लिये और भी कम मजदूरों से और भी कम मजदूरी में ज्यादा से ज्यादा काम और उत्पादन कराना चाहते हैं। इसलिये पिछले कुछ समय में देखिये तो आम श्रमिकों के ही नहीं अपने को व्हाइट कॉलर मानने वाले अभिजात श्रमिकों के भी काम के घंटों मे लगातार वृद्धि हो रही है।

छँटनी और बेरोज़गारी इस वक़्त पूरे देश की आम मेहनतकश जनता के लिए एक भारी चिंता का विषय है 2014 के चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेंद्र मोदी ने पिछली सरकार की रोज़गार सृजन न कर पाने के लिए तीव्र आलोचना की थी और इसे अपना मुख्य लक्ष्य बताते हुए प्रति वर्ष करोड़ों नई नौकरियाँ देने का वादा किया था लेकिन वस्तुस्थिति इसके ठीक उलट है 2015-16 के आर्थिक सर्वे में कहा गया कि 2011-12 में बेरोज़गारी 3.8% थी जो 2015-16 में बढ़कर 5% हो गई वैसे यह संख्या और भी ज्यादा है क्योंकि किसी भी काम में साल के कुछ भी दिन लगे व्यक्तियों को इसमें बेरोजगार नहीं गिना जाता साथ ही 2016-17 का आर्थिक सर्वे यह भी बताता है कि रोजगार की प्रकृति भी स्थाई रोजगार के बजाय अस्थाई और संविदा/ठेका रोजगार की होती जा रही है जिससे श्रमिकों की मजदूरी, रोजगार स्थायित्व और सामाजिक सुरक्षा पर बेहद बुरा असर पड़ रहा है
मोदी सरकार ने रोजगार के लिए पाँच मुख्य योजनायें शुरू की थीं - मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया तथा स्मार्ट सिटी लेकिन इन पाँचों का अब तक कहीं कोई असर नजर नहीं आया है पहले ही क्षमता से नीचे चलते उद्योगों की स्थिति में नए निवेश की गुंजाईश ही नहीं है इसलिए मेक इन इंडिया का नतीजा क्या निकल सकता था? स्टार्ट अप जो शुरू भी हुए थे, उनकी हवा पहले ही निकलनी शुरू हो चुकी है डिजिटल के क्षेत्र का तो सबसे बुरा हाल सबको मालूम ही है कि आईटी की इन कम्पनियों में तो लाखों की तादाद में कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है स्मार्ट सिटी का क्या हुआ किसी को मालूम नहीं; और बिना रोजगार देने वाले कारोबार के सिर्फ स्किल इंडिया में कौशल प्रशिक्षण एक नौटंकी से बढ़कर क्या हो सकता है क्योंकि बेरोजगारी की वजह कौशल का अभाव नहीं नौकरियों की कमी है

वैसे तो यह प्रक्रिया पिछले कई सालों से ही जारी थी खुद सरकारी लेबर ब्यूरो के तिमाही सर्वे द्वारा जारी आँकड़े यह बहुत पहले से बता रहे थे कि नई नौकरियों की तादाद लगातार घट रही थी और मोदी के 2 करोड़ प्रति वर्ष नई नौकरियों के सृजन के वादे के मुकाबले एक-दो लाख की सँख्या पर आ पहुँची थी पर सरकार द्वारा नवम्बर 2016 में की गई नोटबंदी ने रोज़गार के इस संकट को एक महाविनाश में बदल दिया पहले ही नये निवेश की कमी और क्षमता से कम उत्पादन से जूझ रही अर्थव्यवस्था में इस जबर्दस्ती पैदा किये गये तरलता या नक़दी की उपलब्धता में कमी ने कारोबार के पूरे चक्र अर्थात खरीद, उत्पादन और बिक्री को बाधित कर दिया इससे बहुत सारे, खास तौर पर छोटे-मध्यम कारोबार या तो बंद या कम सक्रिय हो गए और उन्होंने अपनी सक्रियता के स्तर से ज़्यादा श्रमिकों को नौकरियों से बाहर कर दिया निर्माण और उद्योग के बड़ी सँख्या में रोज़गार देने वाले क्षेत्रों में इसका खास तौर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और कुछ विश्लेषकों के अनुसार लगभग एक करोड़ श्रमिकों को इससे स्थाई या अस्थाई बेरोज़गारी का सामना करना पड़ा और इनमें से बहुत को अभी भी वापस कोई रोज़गार नहीं मिला है

रोज़गार सृजन में भारी गिरावट और नौकरियों की कमी पर होने वाली आलोचना के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने इस पर सोचना तो शुरू किया लेकिन उनके सोचने की दिशा रोज़गार सृजन के उपाय नहीं कुछ और ही थी। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का बयान तो आँखें खोलने वाला था, "नौकरियों पर हो रही बहस शून्य में हो रही है क्योंकि लेबर ब्यूरो के सर्वे के जिन तिमाही रोज़गार की स्थिति के आँकड़ों का ज़िक्र हो रहा है, उनमें गंभीर समस्या है" नीति आयोग का कहना था कि खुद उनकी सरकार द्वारा जारी नौकरियों के आँकड़े भरोसे लायक़ ही नहीं है पनगढ़िया ने यह भी कहा कि नीति आयोग जल्दी ही ऐसी पद्धति विकसित करने वाला है जिससे नौकरियों और रोज़गार के भरोसेमंद आँकड़े प्रस्तुत किये जायें और इससे सिद्ध हो जायेगा कि भारत में 'रोज़गार विहीन वृद्धि' जैसी कोई स्थिति नहीं है! जाहिर है कि नीति आयोग नौकरियाँ कैसे बढ़ाईं जायें इस पर विचार करने के बजाय इस पर विचार करने में जुटा कि कैसे आँकड़े जुटाने का ऐसा कोई तरीका ईजाद किया जाये जो बताये कि देश में बेरोज़गारी की समस्या है ही नहीं और मोदी सरकार के दौर में नौकरियों की बहार आई हुई है! मोदी सरकार के कई चमचे अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न तरह से ऐसे आंकड़े तैयार भी किए, जैसे सौम्यकांति घोष द्वारा ईपीएफ़ओ डाटा तथा सुरजीत भल्ला द्वारा सीएमआईई डाटा के आधार पर। पर ये प्रयास कामयाब होने के बजाय भांडपन ही अधिक सिद्ध हुए क्योंकि इनके गलत तर्क और डाटा का खंडन तुरंत ही अन्य बहुत से विश्लेषकों द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया। हम यहाँ उसके विस्तार में नहीं जाएंगे। 

मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण में यह दिखाया था कि अपने प्रतियोगियों को पीछे छोड़ने और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की चाहत पूँजीपतियों को निरंतर नई तकनीकों व प्रौद्योगिकी में निवेश करने पर मजबूर करती है क्योंकि काम के घंटे बढ़ाकर या काम की तीव्रता तेज़ करके मुनाफ़ा बढ़ाने की अपनी एक सीमा होती है। नई प्रौद्योगिकी में निवेश करने से उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है और थोड़े समय के लिए मुनाफ़े में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार पूँजीपतियों की स्थिर पूँजी (मशीनरी, तकनीक, कच्चा माल आदि) परिवर्तनशील पूँजी (श्रमशक्ति) की तुलना में बढ़ जाती है जिसकी वजह से पूँजी का जैविक संघटन (स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात) बढ़ जाता है। श्रम की तुलना में पूँजी के पक्ष में आए इस झुकाव का अन्तरविरोधी परिणाम दीर्घावधि में मुनाफ़े की दर में कमी आई कमी के रूप में सामने आता है क्योंकि श्रमशक्ति ही मूल्य का स्रोत होती है। मार्क्स ने इसे मुनाफ़े की दर में होने वाली कमी की प्रवृत्ति की संज्ञा दी थी जो पूँजीवाद में अन्तर्निहित है।

आर्थिक मीडिया में में प्रकाशित कई रिपोर्ट मार्क्स के उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि करती है कि आर्थिक संकट के चक्र में घिरे पूँजीपति वर्ग के सामने एक ही रास्ता बचता है कि वह ज़्यादा पूँजी लगा कर नई तकनीक लाये और उत्पादन में श्रमशक्ति का हिस्सा कम करे इसके लिये ही नवउदारवादी अर्थशास्त्री यह सिद्धांत लेकर आये कि पूँजी की लागत कम होने से आर्थिक वृद्धि होती है इसलिये जब भी आर्थिक संकट हो केंद्रीय बैंकों द्वारा बाजार में और नक़दी लाओ, ब्याज दर को कम करो, जिससे पूँजीपति सस्ती ब्याज दरों पर पूँजी जुटाकर निवेश कर सकें जापान में तो ब्याज ख़त्म ही हो गया है और अमेरिका-यूरोप में ब्याज दर लगभग शून्य के पास पहुँच गई है, इस दर पर वहाँ के केंद्रीय बैंकों ने खरबों डॉलर/यूरो वहाँ के पूँजीपतियों को मुहैया कराये - खूब पूँजी लगाओ, नई तकनीक से श्रमशक्ति पर होने खर्च कम करो अर्थात श्रमिकों की संख्या कम करो नतीजा, और बेरोजगारी, बाज़ार में माँग में और कमीभारत में भी इस वक़्त यही चल रहा है एक रिपोर्ट कहती है कि पिछले 35 साल में रोज़गार 2% से कम सालाना बढे हैं जबकि पूँजी का उपयोग सालाना 14% सालाना की दर से बढ़ा है नतीजा बड़े उद्योगों में भी प्रति फैक्ट्री श्रमिक 80 से घटकर 60 ही रह गए जबकि प्रति फैक्ट्री पूँजी औसतन 50 लाख से बढ़कर 10 करोड़ रू हो गई क्योंकि जहाँ पहले पूँजी बढ़ाना श्रमिक बढ़ाने से महँगा पड़ता था, अब पूँजी बढ़ाना सस्ता पड़ता है
 
यही वजह है कि जैसे-जैसे छँटनी और बेरोज़गारी के काले बादल भारत के उद्योग, आईटी सेक्टर व अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों पर मंडराते जा रहे हैं, वैसे-वैसे शासक वर्ग के बुद्धिजीवी और प्रचार माध्यम हमें यह समझाने में अपनी पूरी बौद्धिक ऊर्जा झोंक रहे हैं कि ऐसी गंभीर परिस्थिति के लिए मुख्य रूप से रोबोट तथा स्वचालन की अन्य प्रौद्योगिकी जिम्मेदार हैं। यह सही है कि कई तकनीकों में हाल में हुई खोजों में उत्पादन की प्रक्रिया में रूपांतरण की संभावना निहित है जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग उत्पादन व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे क्योंकि उनके वर्तमान कौशल की अब कोई ज़रूरत नहीं रह जाएगी। परन्तु यथार्थ के इस पहलू पर ज़ोर देते समय अक्सर यह सच्चाई पर्दे के पीछे छिपा दी जाती है कि ऐसा केवल पूँजीवादी उत्पादन संबंधों के तहत होता है कि ऑटोमेशन की वजह से लोगों की आजीविका ख़तरे में पड़ जाती है। इसका असल कारण है कि आवश्यकताओं की पूर्ति न होते हुए भी क्रय क्षमता के अभाव में लोग उत्पादों को खरीद नहीं पाते और पूँजीवाद में एक कृत्रिम अतिउत्पादन का संकट पैदा हो जाता है अर्थात बाजार में माँग से अधिक उत्पादन इसलिये उत्पादन के विस्तार में असमर्थ पूँजीवाद अपने मुनाफे के लिये ऑटोमेशन द्वारा छँटनी का रास्ता ही अपनाता है जबकि उत्पादन के साधनों में पर सामूहिक स्वामित्व की समाजवादी व्यवस्था में सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मक़सद से उत्पादन के लिये एक और तो नई तकनीकों का प्रयोग उत्पादन के विस्तार हेतु किया जा सकता है, दूसरी और काम के घंटे कम कर लोगों का जीवन और उनकी आजीविका कठिन होने की बजाय पहले से सुगम करने के लिये ऐसी व्यवस्था में न सिर्फ सभी काम चाहने वालों हेतु रोजगार होगा, बल्कि सबके लिए काम करना भी अनिवार्य करना होगा, निठल्ले बैठकर खाना नहीं
 
कुछ दिन पहले ही रोजगार का विस्तृत करने वाली सबसे भरोसेमंद संस्था सीएमआईई ने अपने ताजा आंकड़ों में बताया कि वर्ष 2018 में 1 करोड़ 10 लाख रोजगार नष्ट हो गए। दिसंबर 2017 में जहाँ 40 करोड़ 80 लाख व्यक्ति किसी न किसी रोजगार में थे, दिसंबर 2018 में 39 करोड़ 70 लाख ही रह गए। इनमें से 91 लाख लोग गांवों में बेरोजगार हुए तो 18 लाख शहरों में। बेरोजगार होने वालों में से 88 लाख महिलाओं को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा तो 22 लाख पुरुषों को। इन बेरोजगार हुई महिलाओं में से 65 लाख ग्रामीण हैं तो 23 लाख शहरी। बात साफ है कि जो पहले से ही पिछड़े, गरीब, शोषित हैं, उन पर पूंजीवादी व्यवस्था का संकट उतनी ही अधिक मुसीबतों का बायस बन रहा है। सीएमआईई ने ही यह तर्क भी प्रस्तुत किया कि भारत के परिप्रेक्ष्य में बेरोजगारी की दर समस्या को समझने की सही पद्धति नहीं है क्योंकि यह रोजगार की विकट स्थिति की वास्तविकता सामने नहीं लाती। इसके बजाय रोजगार दर बेहतर उपाय है, रोजगार दर बताती है कि 15 से 60 आयु वर्ग में कितने लोग रोजगाररत हैं। विकसित देशों व चीन, आदि में यह दर 60 से 70% के बीच है, शेष जनसंख्या या तो शिक्षा-प्रशिक्षण में है, बेरोजगार है या निराश होकर रोजगार ढूंढना बंद कर चुकी है। किंतु भारत में रोजगार दर घटकर 40% से नीचे चली गई है। इसका अर्थ है कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा रोजगार की कोई आशा ही नहीं देखता और उसे ढूँढने तक की कोशिश नहीं कर रहा। खास तौर पर महिलाओं में बहुत बड़ा हिस्सा आज भी घर में बिना भुगतान वाला काम करने तक ही सीमित है। अर्थात रोजगार की समस्या हमारे सांस्कृतिक विकास और स्त्री-पुरुष समानता में भी बहुत बड़ी बाधक है।

यह तो स्पष्ट ही है कि आर्थिक रूप से कमजोर जनसंख्या को उच्च शिक्षा देना या रोजगार देना वर्तमान सरकार का मकसद नहीं। फिर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण के सवाल के सामाजिक राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं? इसके लिए हमें भारत में जाति और वर्ग विभाजन की स्थित पर एक नजर डालना जरूरी है। मौके से थॉमस पिकेट्टी के वर्ल्ड इनइक्वलिटी डाटाबेस ने नितिन भारती का एक पेपर हाल में ही प्रकाशित किया है जो जातियों के बीच व जातियों के अंदर आर्थिक असमानता पर अहम जानकारी देता है। ध्यान रहे कि यह 2012 के आंकड़े हैं, जबकि पिछले 7 सालों में तो आर्थिक गैरबराबरी और भी तीक्ष्ण हुई है। जाति समूहों के बीच आर्थिक असमानता तो नीचे दी गई प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी से ही स्पष्ट हो जाती है:
एसटी                -      16,401
एससी               -      19,032
मुस्लिम              -      20,046
ओबीसी              -      21,546
ब्राह्मण              -      35,303
गैर ब्राह्मण सवर्ण           36,060
अन्य गैर हिंदू         -      56,048

लेकिन प्रत्येक जातिसमूह के अंदर भी असमानता एवं वर्ग विभाजन बहुत गहन तथा स्पष्ट है और तेजी से बढ़ रही है। हर जाति के शीर्ष 10% हिस्से के पास ही उस जाति के पास कुल संपत्ति का निम्न हिस्सा केंद्रित हो चुका है:
एसटी                -      52%
एससी               -      47%
मुस्लिम              -      51%
ओबीसी              -      52%
सवर्ण                -      60%

एक और तरह से देखें तो अंदरूनी गैरबराबरी मुस्लिमों में सर्वाधिक है जहाँ शीर्ष 10% तली के 10% से 57 गुना संपत्ति के मालिक हैं। उसके बाद सवर्णों में यह अनुपात 45 गुना है। यही अनुपात ओबीसी में 32, एससी में 22 तथा एसटी में 23 गुना है। निष्कर्ष - सबसे भयंकर कंगाली में मुस्लिमों का गरीब हिस्सा है और सवर्णों का ऊपरी हिस्सा शोषकों में सबसे ऊपर है। सवर्णों का सबसे नीचे वाला हिस्सा आर्थिक तौर पर तो दलितों-आदिवासियों जैसी हालत में ही पहुँच चुका है, मगर अभी भी ये गरीब सवर्ण खुद को सामाजिक तौर पर श्रेष्ठ मानने के दिमागी फितूर और जातिवादी मानसिकता के शिकार हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि वर्ग विभाजन दलितों और आदिवासियों में भी स्पष्ट तौर पर मौजूद है। इसके आधार पर हम सामान्य तौर पर आरक्षण एवं इस नए आर्थिक आधार पर आरक्षण के बारे में कुछ निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं। 

सर्वप्रथम तो सरकार ने लगभग मान ही लिया है कि 66667 रू महीना या 3,303 रू दिहाड़ी (महीने में 22 कार्य दिवस के आधार पर) से कम आय वाले परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हैं और उन्हें उच्च शिक्षा व रोजगार प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। तो क्या मजदूर यूनियनों को सभी मजदूरों, शहरी या ग्रामीण, औद्योगिक या कृषि, हेतु इतने न्यूनतम मेहनताने के लिए संघर्ष नहीं छेडना चाहिए? इतनी आय के बिना आरक्षण मिलने का भी कोई वास्तविक अर्थ नहीं है क्योंकि वे तब भी शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ रहने वाले हैं।

दूसरे, जो पहले से ही आरक्षित समुदाय में हैं, कम आय तो उनके लिए भी समस्या है। क्या आरक्षण के बावजूद भी वे शिक्षा व समुचित रोजगार हासिल कर पा रहे हैं? क्या उनके लिए आरक्षित किंतु बहुत कम मात्रा में उपलब्ध महंगी शिक्षा व सीमित रोजगार का फायदा उनमें मौजूद संपत्तिशाली तबके को ही प्राप्त नहीं हो रहा है? क्या सभी के लिए अनिवार्य समान, सार्वजनिक, मुफ्त शिक्षा व सबके लिए रोजगार सबसे अधिक उनके ही हित में नहीं है? अतः इसके लिए लडाई का नेतृत्व भी उन्हें ही करना होगा। ज्योतिबा फुले 19वीं सदी में ही इस मांग को सबसे पहले उठाने वालों में से थे। लेकिन आज हमेशा फुले का नाम लेने वाले दल भी इस मांग को कभी नहीं उठाते बल्कि अपने शासन में उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा को बर्बाद करने में अन्य दलों के समान ही कोई कमी नहीं छोडी।

तीसरे, यह कहना भी जरूरी है कि जब तक समाज में जाति आधारित सामाजिक भेदभाव व शोषण मौजूद है तब तक समान शिक्षा और सबके लिए रोजगार की मांग को हासिल करने के बाद भी लंबे अरसे से वंचित समुदायों के लिए आरक्षण व अन्य सकारात्मक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता तब तक बनी रहेगी जब तक यह संभावना रहेगी कि उन्हें कुछ विशेष संस्थानों या पेशों में यथोचित प्रतिनिधित्व से जातिगत आधार पर वंचित किया जा सकता है। ऐसी आशंका समाप्त हो जाने पर आरक्षण खुद उनके लिए भी कोई मुद्दा नहीं रह जाएगा।
अंतिम, जो लोग जाति आधार पर आरक्षण वाले समुदायों से नहीं आते क्या उन्हें भी आज की अत्यंत महंगी निजी शिक्षा व रोजगार के सृजन के संपूर्ण अभाव की स्थिति में आर्थिक आधार पर आरक्षण के झुनझुने या आरक्षण की पूरी समाप्ति से कुछ हासिल हो सकता है? नहीं। तो उनके द्वारा आरक्षण समाप्ति की मांग या खुद के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग जातिगत नफरत के अतिरिक्त और किस विचार से प्रेरित हो सकती है? अगर वे सच में जातिवाद की मानसिकता से मुक्त हैं तो उन्हें भी इसे छोडकर सब के लिए शिक्षा सबके लिए रोजगार के सवाल पर ही क्यों नहीं जुटना चाहिए?

समयांतर, जनवरी 2019


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