कार्ल मार्क्स पहले थे जिन्होने सामाजिक उत्पादन प्रणाली के
विश्लेषण हेतु ऐतिहासिक भौतिकवाद की वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत की। किन्तु इतना तो
अरस्तू के वक्त के यूनानी भी जानते थे कि बिना मानव श्रम लगे कोई मूल्य उत्पादित
नहीं हो सकता। पूँजीपति, उनके शेयरधारक, प्रबंधक तथा उनके बौद्धिक दरबारी सामाजिक संपत्ति में कभी कोई मूल्यवृद्धि
नहीं करते, वे बस श्रमिकों द्वारा उत्पादित मूल्य में से हड़पे गये
अधिशेष मूल्य में से हिस्सा प्राप्त करते हैं। अतः कोविड़-19 से निपटने हेतु व्यापक
जाँच एवं परीक्षण और इसी मकसद से शीघ्रता पूर्वक तैयार किए गये विशाल सार्वजनिक
स्वास्थ्य परिसरों में संक्रमित व्यक्तियों को इलाज के लिए अलग रखने की मेडिकल
विज्ञान द्वारा सुझाई रणनीति की उपेक्षा कर जब सरकार ने प्राथमिक उपाय के तौर पर
पूर्ण तथा बलपूर्वक लागू की जाने वाली घरबंदी (लॉकडाउन) का ऐलान किया तो मात्र जड़मति
व भोले लोग ही तालियाँ बजा रहे थे। ताली-थाली बजाने के इस भौंडे प्रहसन में वही
शामिल थे जो अपनी ऊंची दीवारों-फाटकों से घिरी कॉलोनियों-सोसायटियों में खुद को कोरोना
से ‘सुरक्षित’ मान सोच रहे थे कि
अब यह वाइरस मात्र गंदगी से बजबजाती शहरी झोंपड्पट्टियों में रहने वाली मेहनतकश
भीड़ को ही अपना शिकार बनायेगा।
नव-उदारवादी आर्थिक
नीतियाँ
कोविड-19 ने मानवता पर अपना हमला उस वक्त किया है जब पहले
से ही जर्जर व संकटग्रस्त पूंजीवाद ने पिछले 4 दशकों में निजीकरण, न्यूनतम सार्वजनिक नियमन, औने-पौने दामों पर
संसाधनों को निजी पूँजीपतियों के हाथ में सौंपने, प्रत्यक्ष कर दरों
में कटौती, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, यातायात जैसी
सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च में ‘बचत’ जैसी नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के जरिये नाममात्र की सार्वजनिक स्वास्थ्य
सेवाओं को भी लगभग निर्मूल कर डाला है। इस के जरिये पूँजीपतियों को निर्बाध छूट दी
गई है कि वे लगातार बढ़ती दर पर सापेक्ष व निरपेक्ष अधिशेष मूल्य हथियाते हुये
श्रमिकों के शोषण की रफ्तार को तेज कर सकें। यह काम पूँजी के जैविक संघटन को
निरंतर बढ़ाने की प्रक्रिया से किया जाता है जिसके लिए प्रति इकाई उत्पादन में प्रयुक्त
परिवर्तनशील पूँजी या श्रमशक्ति की मात्रा को तुलनात्मक रूप से घटाने हेतु स्थायी
पूँजी, खास कर उसके जड़ पूँजी वाले अंश में, भारी मात्रा में निवेश किया जाता है। बेरोजगार श्रमिकों की मौजूदा विशाल फौज
इसी का नतीजा है।
वहीं इसने अधिसंख्य मजदूरों को श्रम क़ानूनों व ट्रेड
यूनियनों के जरिये सामूहिक सौदेबाजी की रही-सही सुरक्षा से भी ‘आजाद’ कर दिया है।
फिलहाल कामगारों की विशाल बहुसंख्या उन ‘शून्य घंटे’ वाली शर्तों पर काम करती है जिनमें श्रमिकों की माँग के मुक़ाबले बहुत
अधिक आपूर्ति के कारण श्रमशक्ति के मूल्य से कहीं नीची मजदूरी मिलती है, कोई नियमित रोजगार, मजदूरी,
श्रम कानून, काम के घंटे,
बीमा-चिकित्सा जाँच, दुर्घटना मुआवजा नहीं होता। बस जितनी
देर के लिए कोई काम दिया गया पीस रेट पर उतना भुगतान होता है। अर्थात ये श्रमिक भी
पूँजीपतियों के अति-मुनाफ़ों के हित में आने वाली हर रुकावट हर बंधन से ‘आजाद’ कर दिये गये हैं। अतः एक ओर जहाँ पूँजीपति
वर्ग ने दौलत का भारी अंबार लगा लिया है, वहीं अधिकांश
कामगार कंगाली की खाई में धकेले जा रहे हैं।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का
मौजूदा संकट
लेकिन, मार्क्स के अनुसार
उत्पादन प्रक्रिया में सभी मूल्यवर्धन परिवर्तनशील पूँजी या प्रयुक्त श्रमशक्ति से
ही होता है। अतः प्रति इकाई उत्पादित माल में लगी परिवर्तनशील पूँजी को
तुलनात्मक रूप से कम करते जाने से प्रति इकाई अधिशेष मूल्य अर्थात लाभ भी गिरावट
की प्रवृत्ति का शिकार होता है, हालाँकि कम दाम पर
माल की बिक्री बढ़ने से लाभ के गिरने की दर में रुकावट होती है, तथा कुल लाभ अधिक भी हो सकता है। किन्तु जल्द ही सभी पूँजीपति इसी युक्ति से
कम मूल्य पर अधिकाधिक उत्पादन कर भारी मात्रा में माल बाजार में लाने लगते हैं तो
बाजार पट जाते हैं और अति-उत्पादन का संकट पैदा हो जाता है।
यहीं ऋण पूँजी नामक एक और घटक दृष्टिगोचर होता है क्योंकि
औद्योगिक पूँजीपति जड़ पूँजी में ये विशाल निवेश आम तौर पर बैंक/वित्तीय
संस्थाओं से कर्ज लेकर करते हैं और इसके बदले में उन्हें ब्याज का भुगतान करते
हैं। यह ब्याज औद्योगिक पूँजीपतियों द्वारा हथियाये कुल अधिशेष मूल्य में से किया
जाता है अर्थात उद्योग के कुल अर्जित लाभ में से एक हिस्सा वित्तीय पूँजीपति को
मिलता है। पर अति-उत्पादन से बिक्री गिरने की दशा में या तो औद्योगिक
पूँजीपति को स्थापित क्षमता से कम पर काम करते हुये माल उत्पादन घटाना पड़ता है या
उत्पादित माल पूरा बिक नहीं पाता है। पहली दशा में पूँजीपति द्वारा हासिल कुल
अधिशेष मूल्य कम हो जाता है जबकि दूसरी स्थिति में उत्पादित माल में शामिल अधिशेष
मूल्य को बिक्री द्वारा मुद्रा पूँजी में बदलना मुमकिन नहीं होता। दोनों
ही मामलों में नतीजा या तो हानि होती है या इतना कम लाभ कि वह कर्ज पूँजी पर ब्याज
चुकाने के लिए अपर्याप्त हो। इससे कई पूँजीपति दिवालिया होकर या तो निबट जाते हैं
या बड़े पूँजीपतियों द्वारा हजम कर लिए जाते हैं। साथ ही संकट बैंक/वित्तीय
पूँजीपतियों तक फैल जाता है क्योंकि उन्हें ऋण दी गई पूँजी का एक हिस्सा बट्टे
खाते में डालना पड़ता है, तथा संकट के
दौरान पूँजीपतियों की साख संदिग्ध हो जाने से बैंक अधिक कर्ज भी नहीं दे पाते
क्योंकि यह तय कर पाना नामुमकिन होता है कि कौन पूँजीपति बचेगा और कौन डूबेगा। अतः
पूंजीवादी संकट के दौर में ऐसी स्थितियाँ भी पैदा होती हैं जब बाजार अनबिके माल से
पटे हों और कर्ज न दी जा सकने वाली नकदी से बैंकों की तिजोरी भरी हो!
भारतीय
अर्थव्यवस्था का संकट
1980 के दशक में आरंभ और 1991 पश्चात तीव्र गति प्राप्त
करने के बाद से यही प्रक्रिया भारतीय अर्थव्यवस्था में भी गतिमान है। तब से स्थायी
पूँजी व इसके जड़ पूँजी अंश में भारी रक़म का निवेश किया गया है जबकि परिवर्तनशील
पूँजी की मात्रा तुलनात्मक रूप से घटी है। इस दौर में कॉर्पोरेट कर्ज की मात्रा उस
वक्त के सकाल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुमानित 10-15% से बढ़कर मौजूदा जीडीपी का
लगभग 60% हो गई है। कई छोटे संकटों के बाद इसने अंततः 2008 के वैश्विक वित्तीय
संकट के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में भी गहरा संकट पैदा किया। तत्कालीन
सरकार ने इस संकट को टालने हेतु अधिक सरकारी खर्च और सार्वजनिक बैंकों के जरिये
निर्माण व सड़क, बन्दरगाह, घरेलू व
व्यवसायिक संपत्ति वगैरह आधारभूत ढाँचे को बड़ी मात्रा में कर्ज देकर संपत्ति दामों
में वृद्धि के बड़े बुलबुले को जन्म दिया। लेकिन 2011 आते-आते इससे संकट और भी गहन
हो गया जिसने अन्य बातों के अलावा पूँजीपति वर्ग को फासिस्ट पार्टी के शासन का
विकल्प चुनने के लिए प्रेरित किया। किन्तु उसने भी संकट को न सिर्फ सुलझाया नहीं है
बल्कि नोटबंदी तथा जीएसटी के जरिये कोढ़ में खाज का ही काम किया है।
मुख्तसर में,
कोविड-19 महामारी फैलने के वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा कुछ यूँ थी – अत्यंत
सीमित कुल माँग, लगभग एक दशक से स्थापित औद्योगिक क्षमता का
निम्न उपयोग (रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति रिपोर्टों अनुसार 65-75%), पूँजी की लाभप्रदता में गिरावट, बिक्री की गति मंद
होने से पूँजी के चक्र की अवधि का लंबा खिंचना, बड़ी तादाद
में कंपनियों का संचालन लाभ में से कर्ज पर ब्याज की रकम चुकाने में असमर्थ हो
जाना, नवीन जड़ पूँजी निर्माण के लिए निवेश में तीव्र गिरावट।
परिणामस्वरूप बैंक व अन्य वित्तीय पूँजीपतियों के पास संचित मुद्रा पूँजी का ऐसा
अंबार है जिसे वे उत्पादक पूँजी में नियोजित करने में असमर्थ हैं (उद्योग को बैंक
ऋण में वृद्धि ऐतिहासिक स्तर की निचली दरों पर है)। इससे वित्तीय सट्टेबाजी तेजी
से बढ़ रही है। इसके साथ ही सरकार का राजकोषीय घाटा आकाश छू रहा है, क्योंकि, प्रथम, सरकार ने
पिछले सालों में वृद्धि दर को ऊँचा रखने के सरकारी उपभोग को खूब बढ़ाया; दूसरे, पूँजीपति वर्ग को भारी कर व अन्य वित्तीय
रियायतें दी गईं; तीसरे, ठहरावग्रस्त
अर्थव्यवस्था में पहले कर वसूली में इजाफे की दर गिरी, फिर
उसके बाद तो कुल वसूली ही गिरने लगी। चुनाँचे, आज
के हालात में खुद केंद्र सरकार भी आर्थिक चक्र को वित्तीय ‘उद्दीपन’ देने में में असमर्थ होकर पूरी तरह रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के
दांव-पेंच के भरोसे ही है। एक और अहम कारक है अधिकांश राज्य सरकारों का लगभग
दिवालिया हो जाना।
घरबंदी क्यों?
इस संकटग्रस्त हालत में मौजूदा सरकार ने पाया कि पर्याप्त
अग्रिम जानकारी के बावजूद वह अपने ही वैज्ञानिक एवं मेडिकल सलाहकारों द्वारा
महामारी से निपटने के लिए सुझाये गए उपयुक्त विकल्प पर अमल करने असमर्थ थी। यह
विकल्प था – संभावित संक्रमित व्यक्तियों की व्यापक जाँच-पड़ताल और परीक्षण के
जरिये पहचान एवं पुष्टि, इस हेतु
टेस्टिंग किट एवं प्रयोगशालाओं का इंतजाम, उनको क्वारंटीन के
जरिये अन्यों से अलग करना और जरूरत अनुसार इलाज की व्यवस्था,
इस सबके लिए शीघ्रताशीघ्र युद्ध स्तर पर विशाल सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का
निर्माण करना, तथा सभी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पर्याप्त
सुरक्षा उपकरणों/उपायों को उपलब्ध कराना। किन्तु एक ओर यह तैयारी न करने और दूसरी
ओर नरेंद्र मोदी की धैर्यपूर्ण एवं कष्टसाध्य काम के बजाय खुद को अतिमानव के रूप
में स्थापित करने वाले ‘चमत्कारिक’
फैसलों के ऐलान की प्रवृत्ति का नतीजा था इस सरकार द्वारा पूरे देश में घरबंदी और
अधिकांश आर्थिक गतिविधियों को ठप करने का फैसला। आम मेहनतकश जनता की जीविका के
प्रति रत्ती भर परवाह रहित और उसके दुख दर्द पर जरा भी हमदर्दी न रखने वाली सरकार
ने इस फैसले को लागू कराने के लिए भी समझाने-बुझाने के बजाय पुलिस की नृशंस लाठी
की ताकत का ही सहारा लिया।
मजदूर वर्ग पर
घरबंदी का असर
पूंजीवाद में मजदूर वर्ग के पास जिंदा रहने का एकमात्र उपाय
है अपनी श्रम शक्ति को बेचना। उनकी आय का एकमात्र उपाय पूँजीपति को अपनी श्रमशक्ति
विक्रय कर प्राप्त मजदूरी ही है। न उनके पास कोई संपत्ति है, न मुश्किल वक्त में सहारे के लिए कोई वित्तीय बचत क्योंकि उनकी श्रमशक्ति का
मूल्य उनके जिंदा रहने, हर दिन श्रमशक्ति बेचने के लिए हाजिर होने और नए मजदूर पैदा करने
की न्यूनतम आवश्यकताओं के मूल्य के बराबर होता है। न्यून स्वतःस्फूर्त चेतना
सम्पन्न मजदूर भी इतनी बात समझते हैं अतः वे अपने सामने खड़े भुखमरी के संकट को देख
पा रहे थे, खास तौर पर इसलिए कि शहरों में मूल खाद्य
पदार्थों के अलावा उन्हें भाड़े, बिजली,
यहाँ तक कि शौचालय जाने के लिए भी भुगतान करना होता है। अगर वे राशन की आपूर्ति के
सरकारी वादे पर भरोसा कर लेते तब भी उन्हें आशा का कोई कारण दिखाई नहीं दे रहा था।
इसीलिये मजदूरों के एक बड़े हिस्से ने तुरंत पैदल ही अपने देहाती घरों की ओर रवाना
होकर इस बेरहम हुक्म के खिलाफ जैसे विद्रोह ही कर डाला। अपनी गाँव घर की गरीबी की विषादभरी
ही सही पर पुरानी यादों के बल पर उन्हें लगा कि अधभूखे ही सही पर अपने परिवार के
साथ वे वहाँ जीवित तो रह पायेंगे। इस पर पूंजीवादी राजसत्ता अपनी पूरी ताकत और
बेरहमी के साथ उन पर टूट पड़ी क्योंकि उद्योगों के दोबारा चालू होने के वक्त उनकी
जरूरत को देखते हुये उनका शहरों में ही रहना पूँजीपतियों के वास्ते आवश्यक है।
उनके लिए तो मजदूरों का अधभूखे रहना बेहतर है ताकि तब वे और भी कम मजदूरी पर काम
करने के लिए विवश किए जा सकेंगे। किन्तु इससे भी मजदूरों के एक हिस्से को दमित
नहीं किया जा सका और अब भी उन्हें देश भर में अपने गाँवों की ओर सैंकड़ों-हजारों
किलोमीटर चलते, साइकल चलाते, किसी गाड़ी
में कुछ दूर तक लिफ्ट लेते, यहाँ तक कि इस भीषण गर्मी में
बंद ट्रकों में किसी तरह दब-भिंचकर सफर करते पाया जा सकता है।
मजदूरों पर इस घरबंदी का सबसे
भीषण प्रभाव बेरोजगारी में भारी उछाल है जो सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी
(सीएमआईई) के अनुसार 26% के ऊपर जा पहुँची है। यह भी तब जबकि यह दर सिर्फ सिर्फ
श्रम बल में से निकाली जाती है अर्थात काम करने की उम्र के वे व्यक्ति जो भुगतान
हेतु काम करते हैं या ढूँढ रहे होते हैं। यह श्रम बल भारतीय जनसंख्या में से काम
करने लायक उम्र वाली आबादी का मात्र 36% है। इनमें से भी एक चौथाई अभी बेरोजगार
हैं। इससे बेरोजगारी की मौजूदा भयंकरता का अनुमान लगाया जा सकता है। खुद
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) भी मान रहा है कि कोविड़ संकट लगभग 40 करोड़
जनसंख्या को मुश्किल से बस पेट भरने लायक आधार वाली गरीबी रेखा के नीचे धकेल सकता
है अर्थात या तो उन्हें स्थायी बेरोजगार कर या उनकी श्रमशक्ति के मूल्य से भी नीचे
वाली नाममात्र की मजदूरी पर काम के लिए विवश कर उन्हें पूरी तरह कंगाली की ज़िंदगी
में धकेल देगा। ठीक इसी वक्त महामारी के बहाने काम के घंटों को 8 से बढ़ाकर 12 कर
देने का आदेश भी निकाला जा रहा है। केंद्र सरकार ने राज्यों को यह भी आदेश दिया है
कि उन्हें राज्य के बाहर जाने की इजाजत न दें बल्कि उसी राज्य में जहाँ कोई काम हो
वहाँ भेज दे जो एक किस्म से बंधुआ मजदूरी की तरह के लेबर कैंप बनाने जैसी स्थिति
होगी। हालाँकि अभी अपने मूल राज्य में जाने की रियायत देने की बात की गई है पर
उसके लिए कोई व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी लेने से केंद्र ने इंकार कर दिया है।
पूंजीवादी अर्थ एवं वित्त व्यवस्था
पर प्रभाव
पहले से ही सिकुड़ती बाजार माँग
का शिकार होकर उद्योगों की स्थापित क्षमता से नीचे काम कर रही अर्थव्यवस्था में इस
घरबंदी ने दरअसल माँग के एक बड़े भाग को रातोंरात गायब कर दिया है क्योंकि बीमारी
और खराब आर्थिक हालत की आशंका दोनों से घबराकर घरों में दुबके लोग उपभोग कम कर रहे
हैं। साथ ही बंद उद्योगों की वजह से उनमें स्थायी पूंजी के तौर पर इस्तेमाल होने
वाली जिंसों की माँग भी ठप हो गई है। इसका एक नतीजा है पूंजीपति वर्ग को हासिल
होने वाले कुल अधिशेष मूल्य में ज़ोर की गिरावट क्योंकि मूल्यवर्धन के एकमात्र
स्रोत मजदूरों की श्रमशक्ति का प्रयोग किए बगैर कोई अधिशेष मूल्य पैदा किया ही
नहीं जा सकता। दूसरे, बिक्री मंद होने से पूँजी के चक्र की अवधि
लंबी खिंच रही है और उत्पादित मालों में जड़ित अधिशेष मूल्य को वापस मुद्रा पूँजी
में बदलने में देर हो रही है जिससे उनकी कार्यशील पूँजी की जरूरत बढ़ती और
लाभप्रदता कम हो जाती है क्योंकि अब उतनी ही पूँजी से समान समयावधि में कम चक्र
पूरे किए जा सकते हैं। तीसरे, जड़ पूँजी में निवेश ऋण पूँजी
से किया जाता है अतः उस पर देय ब्याज जमा होकर बढ़ता जा रहा है क्योंकि न पर्याप्त
अधिशेष पैदा हो रहा है और न ही वह पर्याप्त मात्रा में मुद्रा पूँजी में बदला जा
सकता है। चुनांचे, और बहुत से पूँजीपति खुद को बैंकों से लिए
कर्ज पर ब्याज चुकाने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। यद्यपि रिजर्व बैंक ने बैंकों
को कहा है कि वे तीन महीने के लिए भुगतान में रियायत दे दें पर इससे चुकता किए
जाने वाले ब्याज की रकम घटने के बजाय चक्रवृद्धि ब्याज के नियम से और भी बड़ी हो
जायेगी।
सरकारी कदम
इस हकीकत से खूब वाकिफ सरकार, रिजर्व बैंक व
उद्योगपति इस फौरी संकट को फिलहाल टाल कोई रास्ता निकालने हेतु कोशिश कर रहे हैं।
रिजर्व बैंक ने अभी बैंकों को कहा है कि वो 3
महीने की मौजूदा भुगतान चूक के बाद भी और 3 महीने कर्ज को गैर निष्पादित या एनपीए
करार न दे। सरकार ने भी एक अध्यादेश जारी कर अपने ‘बड़े’ सुधार अर्थात
दिवालिया कानून की कार्यवाही को 6 महीने के लिए रोक दिया है। अर्थात दिवालिया होने
पर कारोबार को अभी दिवालिया करार नहीं दिया जायेगा और कर्ज के
भुगतान में 6 महीने की देरी तक भी उसे ठीक माना जायेगा। किन्तु इससे
घटनाक्रम को कुछ वक्त के लिए टाला ही जा सकता है, हकीकत को बदला
नहीं जा सकता।
उद्योगों पर ब्याज का बोझ कम करने हेतु रिजर्व बैंक ने ब्याज
दरों में भारी कटौती कर बैंकों की लघु अवधि नकदी की जरूरत पर रिपो दर को 4.40% और
बैंकों के पास उपलब्ध फालतू नकदी को रिजर्व
बैंक के पास जमा करने पर मिलने वाले ब्याज की रिवर्ज रिपो दर को घटाकर 3.75% कर
दिया है। रिपो दर को घटाकर बैंकों को उनके द्वारा दिये कर्ज पर ब्याज दर घटाने का
संकेत दिया जाता है और रिवर्ज रिपो दर घटाकर बैंकों को अधिक कर्ज देने के लिए
प्रोत्साहित किया जाता है क्योकि इससे उनकी अतिरिक्त नकदी रिजर्व बैंक के पास जमा
करने पर होने वाली आमदनी घट जाती है। परंतु इन दोनों कदमों के बावजूद न बैंकों ने
कर्ज पर ब्याज दर में कोई खास कटौती की है न ही अधिक कर्ज देना आरंभ किया है।
रिजर्व बैंक द्वारा जारी आँकड़ों अनुसार बैंक उद्योगों को अधिक ब्याज दर पर कर्ज
देने के बजाय हर दिन 7 लाख करोड़ रुपये से अधिक उसके पास 3.75% की दर पर ही जमा कर
रहे हैं। असल बात यह है कि बैंकों के लिए भी इस समय ब्याज के बजाय मूल धन की
सुरक्षा ज्यादा अहम है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि इस संकट के दौर में कौन
पूँजीपति बचेगा और कौन डूब जायेगा। खुद औद्योगिक पूँजीपति भी यही कर रहे हैं।
हालाँकि आम दिनों में अधिकांश व्यापार साख व उधार पर ही होता है पर मौजूदा हालत
में किसी को किसी की साख पर भरोसा नहीं, तो उधार कैसे
दे। फिर ज़्यादातर बड़े कॉर्पोरेट अपनी लागत घटाने वास्ते अपने लघु-मध्यम
आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान में देर कर उनकी हालत को और भी विकट बना रहे हैं।
अतः अधिकांश बुर्जुआ विशेषज्ञ नुस्खा दे रहे हैं कि सरकार
को एक खोटा (Bad) बैंक बनाकर अन्य बैंकों के डूबे कर्जों को अपने सिर ओट
लेना चाहिए और भविष्य में दिये जाने वाले कर्जों पर डूबने के जोखिम से बैंकों को
बचाने के लिए सरकारी गारंटी योजना लनी चाहिए जिससे बैंक निडर होकर पूँजीपतियों को
कर्ज बाँट सकें। इसका मतलब होगा निजी पूँजीपतियों के नुकसान को सरकार के मत्थे
मढ़कर सार्वजनिक वित्त घाटे में बदल देना ताकि उसकी भरपाई सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च
में ‘बचत’, ऊँचे अप्रत्यक्ष
करों और तमाम तरह के शुल्कों, भाड़ों,
उपकरों, वगैरह को बढ़ाकर आम जनता से वसूली से की जाए
अर्थात सबसे घातक किस्म का नव-उदारवादी नुस्खा।
इसका नतीजा क्या होगा? प्रथम, इजारेदारीकरण की रफ्तार तेज होगी क्योंकि छोटे औद्योगिक/व्यापारिक
पूँजीपतियों को बड़े प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले अधिक दिक्कत होगी तथा उनके बरबाद
होने का जोखिम ज्यादा है। ऋणसाख की सूचना जुटाने वाली कंपनी ट्रांसयूनियन सिबिल के
मुताबिक इन छोटे कारोबारियों के द्वारा ऋणों के भूगतान में चूक की संभावना
सर्वाधिक है। दूसरे, जो बचत करने वाले बैंकों की मध्यस्थता
के जरिये औद्योगिक पूँजीपतियों को ऋण देते हैं उनकी आय गिरेगी क्योंकि लाभप्रदता
गिर रही है और काफी कर्ज डूबने का जोखिम है। मध्यम वर्ग के लोग जो बचत राशि को जमा
कर उस पर आय के जरिये अपने भविष्य को सुरक्षित करते हैं खुद को असुरक्षित पायेंगे
क्योंकि पूँजीपति वर्ग कुल हासिल अधिशेष मूल्य में से उनका भाग कम कर रहा है।
तीसरे, कर्ज पर जोखिम बढ़ने से कई बैंक व अन्य संस्थान अपने
अस्तित्व को संकट में पायेंगे। पहले ही एक बड़ा म्यूचुअल फंड फ़्रेंकलिन टेम्पलटन 28
हजार करोड़ रुपये की अपनी जमा योजनाओं को बिना अग्रिम नोटिस के बंद कर इनमें से एक
भी रुपये की निकासी का रास्ता बंद कर चुका है। कई और म्यूचुअल फंड/बैंक/गैर बैंक
वित्त कंपनियाँ/बीमा कंपनियाँ आने वाले दिनों में संकट में होंगी क्योंकि औद्योगिक
ही नहीं, नौकरी व वेतन कटौती के शिकार व्यक्तिगत कर्जदाता भी
खुद को कर्ज की किश्त चुकाने में असमर्थ पा रहे हैं। नौकरी व वेतन कटौती के कारण
कई मध्यम वर्गीय अपनी स्थिति को बरकरार रखने मे नाकामयाब होंगे और महीनावार
किश्तों पर बैंक से कर्ज लेकर हासिल की गई संपत्ति को बचा पाना भी उनके लिए
मुश्किल होगा। तेजी के दिनों में इन सम्पत्तियों की बुलबुले की तरह बढ़ी कीमतें भी
गिरेंगी और इससे पैदा अमीरी के आभास का बुलबुला भी फूट जायेगा। चुनांचे, उनके सर्वहाराकरण का जोखिम बढ़ जायेगा।
केंद्र-राज्य संबंध और वित्तीय
स्थिति
अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि केंद्र व राज्यों दोनों
की वित्तीय स्थिति संकटपूर्ण है तथा आर्थिक संकट व पूँजीपतियों को दी गई नीची
प्रत्यक्ष कर दरों व अन्य रियायतों के कारण राजकोषीय घाटा आसमान छू रहा है। ये
सरकारें अपने कर्मचारियों को वेतन देने में भी खुद को दिक्कत में पा रही हैं और एक
के बाद दूसरा राज्य वेतन भुगतान को आंशिक रूप में स्थगित कर रहा है। राज्यों की
वित्तीय स्थिति तंग है क्योंकि इन्होंने जीएसटी के जरिये अपने टैक्स लगाने के काफी
अधिकार केंद्र के हाथ सौंप दिये और अब इनके हाथ बंधे हैं। जहाँ तक केंद्रीय करों
के बँटवारे का मुद्दा है केंद्र सरकार अब कर वसूली में अधिकतर वृद्धि सेस व
सरचार्ज के जरिये कर रही है। इन्हें तकनीकी तौर पर करों में शामिल नहीं माना जाता
अतः यह राशि राज्यों में बँटवारे के लिए उपलब्ध नहीं होती। इसलिये अधिकार के तौर
पर राज्यों को मिलने वाली रकम में वास्तविक तौर पर निरंतर कमी आ रही है। करों के
अतिरिक्त अन्य राशि को केंद्र मनमाने तरीके से राज्यों को आबंटित कर सकता है। उसमें
राजनीतिक व अन्य शर्ते और पसंद-नापसंद शामिल होते हैं। वहीं कोविड से निपटने और
इसके लिए जरूरी खर्च की अधिकांश ज़िम्मेदारी राज्यों की है। यह भी रिपोर्ट है कि
केंद्र ने कई उद्योगपतियों पर दबाव डालकर उन्हें अपना योगदान मुख्यमंत्री
राहत कोष के बजाय नये बने पीएम-केयर्स कोष में करने को कहा है। राज्यों की वित्तीय
स्थिति में संकट को भाँपकर बैंक भी राज्य सरकारों को ऊँची ब्याज दरों,
जैसे 10 वर्ष के बॉन्ड पर 7-8%, पर ही कर्ज दे रहे हैं जबकि
उन्हें खुद रिजर्व बैंक से 4.40% पर नकदी मिल रही है और रिजर्व बैंक में जमा करने
पर 3.75% ब्याज ही मिलता है। अतः वित्तीय मदद हेतु केंद्र पर राज्यों की निर्भरता
लगातार अधिकाधिक बढ़ती जा रही है। फलस्वरूप राजनीतिक असहमति और केंद्र की नीतियों
के विरोध की उनकी क्षमता निरंतर सीमित हो रही है और भारतीय राज्य का ढाँचा नाम में
संघीय होते हुये भी अधिकाधिक केंद्रीकृत होता जा रहा है।
संक्षेप में, कोविड-19 महामारी
पूंजीवादी संकट को और गहन करेगी, पूँजीपतियों में
बचाव के लिए गलाकाट होड को बढ़ाएगी, अर्थव्यवस्था में
एकाधिकारीकरण की रफ्तार तेज करेगी, अभिजात मजदूर वर्ग व टटपुंजिया तबके का सर्वहाराकरण तेज होगा, मेहनतकश वर्ग का बड़ा हिस्सा कंगाली की ओर धकेल दिया जायेगा तथा वर्ग
अंतर्विरोध तीक्ष्ण होंगे। साथ ही पूंजीवाद में असमतल विकास से जन्में पूंजीपति
वर्ग के इलाकाई व केंद्र-राज्य अंतर्विरोध भी गहरे होंगे।
'यथार्थ' मई 2020 अंक में प्रकाशित
पीडीएफ़ प्रति के लिए कृपया ई-मेल या व्हाट्सप्प नंबर दें
व्हाट्सऐप नंबर :9826412892
ReplyDeleteसारगर्भित और गहन विश्लेषण। पूंजीवादी सर्वहाराकरण, सम्पत्तिहरण और नवउदारवादी लूट को विस्तृत रूप में समझाया गया है। लाभ के गिरते दर और ऑर्गेनिक कंपोजिशन ऑफ कैपिटल को वर्तमान सन्दर्भ में स्पष्ट किया गया है। साथ ही नवउदारवादी नीति के तहत सार्वजनिक सेवाओं में अनवरत कटौती द्वारा पूंजीपतियों की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सेवा को भी दिखाया गया है। छोटे और टुटपुँजिया व्यापारियों और मध्यमवर्ग पर गहराते संकट को भी चित्रित किया गया है। वहीं राज्य के संघीय ढांचे में दरार को भी दिखाया गया है।
ReplyDeleteलेख में वित्तीयकरण जनित संकट पर थोड़ा और प्रकाश डाला जा सकता था।
अच्छा और जरूरी लेख। युवा पाठकों के बीच ऐसे लेखों का प्रसारण काफी प्रभावी हो सकता है।