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Financial Crisis In India - Brief Study

CAA NRC NPR

जन संघर्ष समितियों का गठन करना होगा


भारत के शासक वर्ग ने अपनी फासिस्ट संघी-बीजेपी सरकार के जरिये नागरिकता कानून में संशोधन (CAA) तथा नागरिकता पंजीकरण (NPR / NRC) की योजना द्वारा देश की आम जनता के खिलाफ ही जंग का ऐलान कर दिया है।  पूरे देश में नागरिकता पंजीकरण के संघ-बीजपी के इरादे के साथ नागरिकता कानून में इस हालिया संशोधन ने भारतीय सामाजिक जीवन में एक गंभीर संकट की स्थिति पैदा कर दी है क्योंकि यह धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव के सिद्धांत को कानूनी तौर पर स्थापित करता है। यह सिद्धांत एक बार स्वीकृत हो जाये तो नाजी जर्मनी में यहूदियों और घुमंतू जिप्सीयों, जायनवादी इजरायल में फिलिस्तीनीयों, बौद्ध अंधतावादी श्रीलंका व म्यांमार में तमिलों व रोहिंग्या को निचले दर्जे के नागरिक मानने की तरह भारत में भी मुस्लिमों को आधिकारिक तौर पर दूसरे दर्जे का नागरिक बना देगा। अतः इसमें शक की कतई कोई गुंजाइश नहीं कि यह भारतीय राष्ट्र के पहले से ही बेहद कमजोर सेकुलर संगठन के बुनियादी विचार पर बेहद गंभीर हमला है। यही वजह है कि इसने जनता के एक बड़े हिस्से को चिंतित ही नहीं आतंकित कर इसके खिलाफ एक व्यापक जनप्रतिरोध खड़ा किया है।  

मकसद क्या है?
मोदी –शाह के नेतृत्व में संघ – बीजेपी इस कानून को कभी पड़ोसी देशों में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों तो कभी जुल्म के शिकार दलितों को शरण देने के नाम पर उचित ठहराने के प्रचार में लगे हैं। किन्तु अगर उन्हें वास्तव में पड़ोसी देशों में जुल्म के शिकार अल्पसंख्यकों की फिक्र होती तो निश्चित ही इस कानून में 3 देशों और विशिष्ट धर्मों तक इसे सीमित करने की जरूरत न होती तब इसमें सभी पड़ोसी देशों के सभी उत्पीड़ित समुदायों के लिए शरण के रास्ते खुले होते। दूसरी ओर अगर उन्हें दलितों पर जुल्म की ऐसी ही चिंता होती तो उनके शासनकाल में ही भारत में मेहनतकश दलित जनता पर निरंतर ढाये जाने वाले जुल्मों और हर तरह के भेदभाव में भयंकर वृद्धि न हो रही होती। वैसे भी घोर प्रतिगामी ब्राह्मणवादी हिंदुत्व आधारित संघी विचार में दलितों और मुसलमानों के खिलाफ नफरत किसी से छिपी नहीं है।

अगर हम उत्पीड़ित शरणार्थियों की मदद के तर्क को भी देखें तो अब तक के भारतीय नागरिकता कानून में शरणार्थियों को नागरिकता देने में कोई बाधा नहीं थी। भारत विभाजन के समय पड़ोसी मुल्कों – पाकिस्तान, अफगानिस्तान या बर्मा से आये करोड़ों शरणार्थियों में से क्या कोई एक भी मामला बता सकता है जिसे भारत की नागरिकता न दी गई हो। खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कुछ दिन पहले माना है कि पिछले 6 साल में उनकी सरकार ने ही 2838 पाकिस्तानी, 914 अफगानिस्तानी और 172 बांग्लादेशियों को अपनी नागरिकता प्रदान की है। इस संख्या में 500 से अधिक मुस्लिम भी शामिल हैं। 1964 से लेकर 2008 तक भी चार लाख से ज्यादा श्रीलंकाई तमिलों को भारतीय नागरिकता प्रदान की गई है। इसके अतिरिक्त जब 1970 के दशक में पूर्वी अफ्रीका के देशों से भारतीय मूल के शरणार्थी आये तो उन्हें भी भारत की नागरिकता मिली। स्पष्ट है कि शरणार्थियों को नागरिकता देने में अबतक भी कोई बाधा नहीं थी, और अगर अब भी कोई शरणार्थी नागरिकता विहीन है तो उसकी जिम्मेदार तो खुद मोदी-शाह की भ्रष्ट सरकार ही है। अतः शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए कानून में संशोधन करने का तर्क पूरी तरह निराधार एवं झूठा है।

आर्थिक संकट से बढ़ता असंतोष
यह भी समझना जरूरी है कि इस कदम को किस सामाजिक-आर्थिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में लाया गया है। 2014 में भारत के पूंजीपति वर्ग ने विकास और अच्छे दिन लाने के लिये कुशल व फैसले लेने वाले महामानव के रूप में नरेंद्र मोदी का गुणगान कर लंबे समय से गरीबी, बेरोजगारी, शोषण और भ्रष्टाचार का दंश झेलती देश की जनता के एक बड़े हिस्से को उसके पक्ष में खड़ा किया था। इस प्रचार से बहुत से वे लोग भी भ्रमित हो गये थे जो संघ के नफरती कार्यक्रम से सहमति नहीं रखते थे।

मोदी सरकार के लगभग 6 साल के शासन ने जनता को क्या दिया है? 50 साल की सबसे अधिक बेरोजगारी, शहर हो या गाँव गिरती हुई मजदूरी, लाखों की तादाद में गरीब किसानों और बेरोजगारों द्वारा ज़िंदगी से हताश होकर ख़ुदकुशी, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सर्वाधिक जरूरी सार्वजनिक सेवाओं की बरबादी और निजीकरण, छात्रों को मिलने वाली तमाम किस्म की स्कोलरशिप में कटौती, बंद होते उद्योग, रेलवे-सड़क यातायात के भाड़ों में भारी इजाफा और उनका निजी पूँजीपतियों के हाथों में सौंपा जाना, आधार जैसे नियमों के बहाने बड़ी तादाद में सबसे गरीब लोगों को सार्वजनिक सस्ते राशन से वंचित करना, आम मेहनतकश जनता के लिये बढ़ती भुखमरी, बच्चों के लिये आंगनवाड़ी और स्कूलों में छात्रों के लिये मिड डे मील जैसी योजनाओं में कटौती और अंडा-दूध जैसे पोषक खाद्यों पर रोक लगाना, नई माताओं के पोषण के लिये दी जाने वाली मदद में कटौती, बच्चों में बढ़ता भारी कुपोषण वगैरह वगैरह जैसी चीजों की एक बहुत लंबी सूची है।

मगर क्यों? इसलिये क्योंकि भारत के सरमायेदार तबके द्वारा पचासों हजार करोड़ रुपये खर्च से लाई गई यह सरकार मेहनतकश जनता के लिये नहीं बल्कि उन सरमायेदारों के मुनाफ़ों के लिये काम कर रही है। उन पर लगने वाले टैक्सों में भारी कमी की गई है। सिर्फ इस साल ही उन्हें कंपनी टैक्स में डेढ़ लाख करोड़ रुपये की छूट दी गई है। सरकारी बैंकों द्वारा उनके 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज बट्टे खाते में डाल राहत दी गई है। पूँजीपतियों को हर तरह की छूट दी जा रही है। रेलवे, एयरलाइन, टेलीकॉम, सड़क परिवहन, अस्पताल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, बंदरगाह, हवाई अड्डे, बिजलीघर, खान, जंगल, नदी, झील-तालाब, पहाड़ सब औने-पौने दामों में उन्हें सौंपे जा रहे हैं। मिट्टी, हवा,पानी को जहरीला बनाने से रोकने के लिये जो थोड़े बहुत पर्यावरण संरक्षण के नियम थे उनमें ढील दी जा रही है ताकि उन्हें इस पर खर्च ण करना पड़े। इससे देश के बहुत से इलाकों में आम गरीब लोगों का सांस लेना और पानी पीना तक मुहाल हो गया है। 

उधर मजदूर पूँजीपतियों से अपनी वाजिब मजदूरी तक न माँग सकें इसके लिये मजदूरों के यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकारों को छीना जा रहा है। मजदूरों को 8 घंटे के बजाय 10-12 घंटे व अधिक काम करने पर मजबूर किया जा रहा है। कानूनी न्यूनतम मजदूरी पर नियमित श्रमिक रखने के बजाय उससे आधी-तिहाई मजदूरी वाले ठेका मजदूरों को रखने की छूट दी जा रही है। विरोध करने पर मजदूरों पर पुलिस के साथ अपराधी गुंडा दल भी हमला कर रहे हैं और श्रमिक कार्यकर्ताओं को झूठे मामलों में फँसा कर लंबी सजाये दी जा रही हैं, मारुति व दिल्ली के आसपास के कार-दुपहिया कारखानों के मजदूरों के साथ हुये जुल्म इसका उदाहरण हैं।

इस सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी आदि के जरिये छोटे उद्योगों-काम धंधों पर भारी चोट की है ताकि वे ठप होकर बड़े पूँजीपतियों के कारोबार में इजाफे के लिये रास्ता साफ हो सके। इससे बड़े पैमाने पर छोटे कामधंधे वाले दिवालिया हो गये हैं तथा बेरोजगारी में भारी वृद्धि हुई है। रोजगार इतने कम हैं कि दिहाड़ी मजदूरों तक को काम मिलने में मुश्किल खड़ी हो गई है। एक काम के लिये इतने मजदूर उपलब्ध हैं कि उनमें आपसी होड के कारण मजदूरी गिरने लगी है। नतीजा है कि आम जनता को अपने रोजमर्रा के जरूरी खर्च तक में कटौती करनी पड़ रही है। चाय, चीनी, बिस्कुट, नमक, मसाले, दाल, आदि बेचने वाले पूँजीपतियों को भी पिछले दिनों कहना पड़ा कि आम लोग इन चीजों की ख़रीदारी से पहले दो बार सोच रहे हैं। सरकारी सर्वे में भी यही पता चला तो सरकार ने सर्वे के नतीजों को सार्वजनिक करने पर ही रोक लगा दी। अर्थव्यवस्था में इस गिरावट से आब खुद सरकार की वित्तीय स्थिति भयानक घाटे में पहुँच गई है क्योंकि मंदी की वजह से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों तरह के करों की वसूली में कमी आई है। नतीजा यह है कि सरकार अब समस्त सार्वजनिक संपत्ति और उद्योगों को निजी पूंजीपतियों के हाथ औने-पौने दामों बेचकर अपना घाटा पूरा करने को विवश है।

शासकों को मालूम है कि इस हालात के चलते देश की आम मेहनतकश जनता में असंतोष है। हालाँकि किसी मजबूत विपक्ष के अभाव में अभी उसे उतनी बड़ी चुनौती नहीं मिल रही है मगर उसका खतरा बना हुआ है ही। इस वजह से ही अपने इन सब कारनामों के खिलाफ आम लोगों को बड़ी तादाद में संगठित होने से रोकने के लिये संघ-बीजेपी सरकार एक के बाद एक आपस में बांटने वाले नफरती प्रपंच रचती-फैलाती आई है जिसमें लव जिहाद, गाय के नाम पर गुंडा दलों द्वारा हत्याएं, जनसंख्या बढ़ने का हव्वा, हर विरोध करने वाले को देशद्रोही कहना और पाकिस्तान भेजने की धमकी, दाभोलकर, पनसारे, काल्बुर्गी, गौरी लंकेश जैसे संघ विरोधी बुद्धिजीवियों के कत्ल, रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या व जातिगत नफरत का प्रसार, करोड़ों बंगलादेशी-रोहींग्या घुसपैठियों का हव्वा खड़ा करना, पाकिस्तान-चीन के साथ सीमा पर युद्धोन्माद का माहौल बनाना, टुकड़े टुकड़े गैंग का झूठ फैलाना, हैदराबाद जेएनयू जादवपुर विश्वभारती जैसे विश्वविद्यालयों में छात्रों पर हमले, आदि शामिल हैं।   

गरीबों से लूट का जरिया
नागरिकता और घुसपैठियों का हव्वा भी भारतीय राजसत्ता में शामिल सभी दलों ने लंबे समय से अपने जनविरोधी कार्यों को छिपाने के लिये ही पैदा किया हुआ है। जैसे जैसे आर्थिक संकट तेज होता है भारतीय शासक वर्ग इसके लिये करोड़ों घुसपैठियों की वजह से आबादी में वृद्धि को जिम्मेदार बताने का झूठ प्रचार करता आया है। असम में करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों के होने का झूठा प्रचार भी खुद सरकार करती आई है। इसी वजह से असम छात्र आंदोलन में यह मुद्दा सर्वोपरि था तथा 1985 के असम समझौते में नागरिकता पंजीकरण की बात तय हुई थी। इसलिए असम के आम लोगों को इस बारे में पहले से जानकारी थी और उन्होंने कुछ हद तक अपने नागरिक होने के प्रमाण सुरक्षित रखने का प्रयास भी किया था। उसके बावजूद भी नतीजा यह निकला कि भूतपूर्व राष्ट्रपति के परिवार से सेना/पुलिस में जीवन भर नौकरी करने वाले कई व्यक्ति भी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने में असफल रहे और नागरिकता पंजी की अंतिम सूची से 19 लाख व्यक्ति बाहर कर दिये गये। पर खुद इस प्रक्रिया की सख्त समर्थक बीजेपी सरकार भी तब भौंचक्की रह गई जब उनकी उम्मीद के विरुद्ध इनमें दो तिहाई से अधिक गैर-मुस्लिम निकले। पूरी प्रक्रिया पर सरकार ने 1600 करोड़ रुपये खर्च किये जिसमें इसमें सालों तक लगे रहे 55000 कर्मचारियों का वेतन शामिल नहीं है। 

किंतु इससे भी महत्वपूर्ण है कुछ संस्थाओं द्वारा लगाया गया यह अनुमान कि असम की जनता ने खुद की नागरिकता स्थापित करने के लिए लगभग 8000 करोड़ रुपये खर्च किये अर्थात प्रति व्यक्ति औसत 2 हजार रुपये या 5 सदस्यीय परिवार के लिये औसत 10 हजार रुपये। इसमें भी हम यह मान सकते हैं कि दस्तावेज़ जुटाने, आदि में दिक्कत और रिश्वत चुकाने की जरूरत गरीब लोगों को ही अधिक पड़ी होगी तब यह समझा जा सकता है कि बहुत से गरीब मेहनतकश जनता के लिये नागरिकता पंजीकरण बहुत बड़ी आफत बनकर आया है जिसमें उनकी पूरी बचत खप गई या उन्हें अपनी संपत्ति तक बेचनी पड़ी होगी। हमारे देश की गरीब मेहनतकश जनता में से अधिकांश के पास दस्तावेजों का सख्त अभाव है या उनमें बहुत सारी गलतियाँ हैं। अगर ऐसा ही नागरिक पंजीकरण पूरे देश में लागू किया गया तो अपनी नागरिकता प्रमाणित कर पाना उनके लिये भारी संकट का सबब होगा। भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार और रिश्वतख़ोरी की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। अगर असम के 3.30 करोड़ लोगों को 8000 करोड़ रुपये इस काम में खर्च करने पड़े तो पूरे देश में ऐसा ही होने पर यह खर्च 3 लाख करोड़ तक जा सकता है। इसके अतिरिक्त सरकारी खर्च भी एक लाख करोड़ रुपये तक जा सकता है। वह भी करों के जरिये जनता से ही वसूल होगा। इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा और सरकारी कामकाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। फिर जनता का जो समय व पैसा काग़ज़ात ढूँढ़ने-बनवाने में लगेगा और सरकारी दफ़्तरों में जो भ्रष्टाचार होगा वह अलग। समझा जा सकता है कि नागरिक पंजीकरण पर यह खर्च देश की आम जनता से बहुत बड़ी और विकराल लूट सिद्ध होगा।

श्रमिकों का दोहरा शोषण
इसका एक और पहलू है कि नागरिकता छिनने का डर भारत के पहले ही श्रम क़ानूनों की सुरक्षा से वंचित गरीब असंगठित श्रमिकों को कम मजदूरी पर बिना संगठित हुए, बिना अपना कोई अधिकार माँगे काम करने पर मजबूर करने का भी बड़ा जरिया बनने की आशंका है। जब भी कोई वाजिब मजदूरी माँगे, यूनियन बनाने का प्रयास करे या कुछ और अधिकार माँगे, मालिक उनमें जो मुखर हों, उन्हें पुलिस से साँठगाँठ कर अवैध आप्रवासी घोषित करा सकते हैं। सस्ते मजदूरों को शोषण के फंदे में फँसाये रखने के लिए अमेरिका यूरोप में यह तरीका पहले ही आजमाया जाता रहा है।

जब भी मजदूर न्याय माँगें श्रमिकों के शोषण के सवाल को अवैध आप्रवास के अंधभावनात्मक मुद्दे में तब्दील कर दिया जाता है। अतः नागरिकता से वंचित रखना श्रमिकों व छोटे कारोबारियों के गहन शोषण का एक बड़ा औज़ार है। अमेरिका में अवैध आप्रवासी घोषित करने की धमकी के साथ एक अन्य तरीका भी प्रयोग में है। वहाँ गरीब मेहनतकश विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल वालों को छोटे से छोटे अपराधों में लंबे वक्त के लिए जेल भेजा जाता है या जमानत की शर्त इतनी कठिन रखी जाती है कि वे उन्हें पूरा न कर सकें और वे जेल में ही रहें। आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है। उसमें भी ये दो समुदाय ही आबादी के अनुपात में अधिक हैं। ऊपर से बहुत सी जेल निजी क्षेत्र को सौंप दी गईं हैं। निजी क्षेत्र को जेल चलाने पर दो तरह से मुनाफा होता है - एक, सरकार से प्रति कैदी मिलने वाला पैसा; दूसरे, इन कैदियों से नाममात्र की मजदूरी पर कराया गया बेहद कठिन श्रम, जिसमें सुरक्षा के भी कोई उपाय नहीं होते क्योंकि कैदियों की जान बहुत सस्ती होती है। भारत में भी जैसे आर्थिक संकट गहरा रहा है, श्रम सुधारों के नाम पहले से कमजोर श्रम अधिकारों को और भी कमजोर किया जा रहा है। भारत में पहले ही अधिकांश मजदूर बहुत असुरक्षित स्थितियों में लंबे घंटे काम करने के लिये मजबूर होते हैं व साल में 48 हजार श्रमिक कार्य स्थल पर हुई दुर्घटनाओं में अपनी जान गँवा देते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरों के शोषण को और भी तीक्ष्ण करने के लिए नागरिकता कानून एक भयानक औज़ार बन जायेगा। पूँजीवादी कॉर्पोरेट मीडिया में इसके पक्ष में प्रचार की यह भी एक बड़ी वजह है। इसीलिये भारत सरकार बांग्लादेश को बार बार आश्वासन भी दे रही है कि किसी को देश से निकाला नहीं जायेगा, यह तो पूर्णतया आंतरिक मामला है।

उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूरों के खिलाफ विभिन्न राज्यों में समय समय पर जो नफ़रत फैलाई जाती है, हमले किये जाते हैं, उसे भी इस संदर्भ में देखना चाहिए। कुछ श्रमिकों व छोटे काम धंधे वालों को पीटने, मारने, सामान तोड़ने, जलाने का मुख्य मकसद भी इन मजदूरों को भयभीत रखना होता है। जैसे ही यह भय बढ़कर वास्तविक पलायन में बदलता है, तब तक नफरत फैलाता मीडिया तुरंत जनवादी बनकर राष्ट्रीय एकता, पलायन रोकने की बातें करने लगता है क्योंकि मजदूर वास्तव में ही पलायन कर चले जायें तो सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे। तब तो उल्टा नुकसान ही हो जायेगा। स्पष्ट है कि अगर नया नागरिकता कानून लागू हुआ और उसके अंतर्गत पूरे देश में नागरिकता पंजीकरण किया गया तो नागरिकता से वंचित होने के भय से भारत में भी शोषण के दोनों उपरोक्त रूप भविष्य में नजर आ सकते हैं अर्थात श्रमिकों को अवैध करार कराने की धमकी के जरिये किया जाने वाला दोहन और डिटेंशन केंद्रों में बिना किसी श्रम कानून की सुरक्षा वाला भयंकर खास तौर पर स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक किस्म का श्रम। भारतीय समाज की जो स्थिति है उसमें यह भी तय है कि इसका सर्वाधिक शिकार अल्पसंखयक मुस्लिम, व जातिगत नफरत के शिकार दलित व आदिवासी समुदाय ही होंगे।

नागरिकता कानून में बदलाव के असर
यहाँ नागरिकता कानून में समय समय पर किए जाने वाले बदलावों के जरिये भारतीय शासक वर्ग द्वारा इस मुद्दे को हवा देने का इतिहास भी जान लेना जरूरी है। भारत के मूल नागरिकता कानून में अमेरिका-यूरोप सहित दुनिया के अधिकांश देशों की तरह भारत में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को भारत की नागरिकता का अधिकार था। 1955 में बने नागरिकता कानून में अविभाजित भारत के हिस्सों (भारत/पाकिस्तान) से आने वालों को 7 साल में और अन्य देशों से आने वालों को 12 साल में नागरिकता देने का प्रावधान किया गया था। पहले इस कानून में 1987 में परिवर्तन कर माता-पिता में से एक के भारतीय नागरिक होने की शर्त जोड़ी गई। लेकिन असली समस्या 2003 में किए गए संशोधन से हुई जिसे एनडीए सरकार ने कांग्रेस के समर्थन से पारित किया था। इसमें बिना वैध दस्तावेजों के भारत आये व्यक्तियों को अवैध घोषित कर नागरिकता देने पर रोक लगा दी गई। साथ ही वैध नागरिकों का एक रजिस्टर बनाने का फैसला किया गया जिससे अवैध नागरिकों को पहचानकर देश से बाहर निकाला जा सके। पाकिस्तान/बांग्लादेश से आये शरणार्थियों को नागरिकता देने में बाधा यही कानून है जिससे अखबारों में इंटेलीजेंस ब्यूरो के हवाले से छपी खबरों के अनुसार अभी 31,313 व्यक्ति नागरिकता के लिए इंतजार कर रहे हैं जिनमें 25,447 हिंदू, 5,807 सिक्ख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी हैं। इसी की वजह से पिछले सालों में इन देशों से आये लोगों को नागरिकता मिलने की संख्या बहुत घट गई (निर्मला सीतारमन द्वारा बताई संख्या जो ऊपर दी गई थी)। किन्तु इस प्रावधान को रद्द करने के बजाय मोदी सरकार ने अब इसमें से तीन देशों से आये हिंदू, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, जैन व पारसी धर्मावलम्बियों को नागरिकता देने और अन्य धर्मावलंबियों को इससे वंचित करने का प्रावधान कर अपने सांप्रदायिक कार्यक्रम को लागू कर दिया है। अतः समस्या का वास्तविक समाधान CAA लाना नहीं बल्कि 2003 के संशोधन को वापस लेना है।   

सीएए क़ानून बनने के पहले और बाद तक गृह मंत्री अमित शाह बार-बार कहते रहे हैं कि इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी ज़रूर आयेगा। तभी से इसको लेकर विभिन्न पहलुओं पर चर्चा और प्रदर्शन होते रहे हैं। जिस एक राज्य असम में इसको लागू किया गया है, वहाँ इसे लागू करने की जिन मुख्य लोगों ने माँग की थी, वे ही अब इसे एक व्यर्थ और जोश में होश खोने वाली क़वायद बता रहे हैं। इससे देश भर में आम तौर पर जनता के एक बड़े हिस्से में एनआरसी को लेकर चिंता और बेचैनी पैदा हुई है। अतः अब सरकार इसे झूठ बोलकर चोर दरवाजे से एनपीआर के नाम पर करने का प्रयास कर रही है। इसके लिये ही एनपीआर में नई सूचनाएँ मांगी जा रही हैं। साथ ही इसके बाद सरकारी तंत्र को किसी भी नागरिक से पूछताछ करने, दस्तावेजी सबूत माँगने और किसी को भी संदेहपूर्ण नागरिक घोषित करने का अधिकार दिया गया है। फिर कोई भी व्यक्ति किसी के भी खिलाफ आपत्ति दर्ज कर उसे संदेहजनक नागरिक घोषित करा सकता है। ऐसे घोषित नागरिकों का जीवन सब कानूनी अधिकारों से वंचित अपराधी जैसा होगा और उन्हें डिटेंशन कैंप में बंदी भी बनना पड़ सकता है। 

दिल्ली में 22 दिसम्बर के अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा की तरह झूठ बोलने की महारत का प्रदर्शन करते हुए कहा कि भारत में डिटेंशन सेंटर है ही नहीं। असलियत यह है कि असम में अब तक का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर गोलपाड़ा में बनकर तैयार हो गया है, और इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को ऐसे डिटेंशन सेंटर बनाने के आदेश दिये हैं। असम में जो डिटेंशन सेंटर बनकर तैयार हुआ है उसकी क्षमता 3000 लोगों की है। केवल असम में ही अभी दस और डिटेंशन सेंटर बनाने का आदेश है। एक सेंटर को बनाने में 45 करोड़ का ख़र्च आया है। सरल गणित लगाने पर समझ आ जाता है कि अगर मात्र 30,000 हज़ार लोगों के लिए भी डिटेंशन सेंटर बनाने होंगे तो उसमें 450 करोड़ का ख़र्च आयेगा। देश के स्तर पर यह ख़र्च अरबों में होगा। फिर इसे नियमित रूप से चलाने में जो अतिरिक्त ख़र्च आयेगा उसका अभी हिसाब ही नहीं है। और इस पूरी प्रक्रिया में लोगों को जिस मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ेगा उसका गणित से हिसाब भी नहीं किया जा सकता।

ग़ौरतलब है कि यह सब उस समय हो रहा है जब पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत संकट अपने चरम पर है और उसी की राजनीतिक अभिव्यक्ति फ़ासीवाद के रूप में सामने आ रही है। असम में एनआरसी की प्रक्रिया से सम्बन्धित डिजिटल और ऑनलाइन काम का कॉन्ट्रैक्ट अज़ीम प्रेमजी के कॉर्पोरेशन ‘विप्रो’ को मिला था जिसमें उसे करोड़ों की कमाई हुई थी। इसके अलावा, डिटेंशन सेंटरों को बनाने और बन जाने के बाद सुचारू रूप से चलाने का ठेका भी किसी ऐसी प्राइवेट कम्पनी को मिलेगा, जैसे हिटलर के समय में यातना शिविरों का ठेका आईबीएम जैसी कम्पनी को मिला था। जो लोग इन सेंटरों में रखे जायेंगे उनसे सस्ते में काम भी कराया जा सकेगा क्योंकि उनके पास कोई सामाजिक-राजनीतिक अधिकार नहीं होंगे। इस तरह यदि देशभर में ऐसी सस्ती श्रम-शक्ति की उपलब्धता होगी तो यह न केवल डिटेंशन सेंटरों में रह रहे लोगों के लिए नारकीय होगा बल्कि आम मज़दूर आबादी के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होगा। कारण यह कि इसके चलते आम मज़दूर का वेतन भी नीचे जायेगा क्योंकि उससे सस्ते में श्रम-शक्ति उपलब्ध होगी। इसीलिए एनआरसी का असर केवल मुसलमानों या जो लोग डिटेंशन सेंटर भेजे जायेंगे उन पर ही नहीं, पूरी मेहनतकश-मज़दूर आबादी पर ही भयंकर होगा। दूसरी ओर, पूँजीपति इससे भी मुनाफ़ा पीटेंगे।

इस सीधे हिसाब-किताब से ही पता चलता है कि एनआरसी – इसके सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं के अलावा भी – देश की आम जनता पर एक भयंकर बोझ डालेगा। वह भी ऐसे समय में, जब अर्थव्यवस्था की हालत ख़स्ता है, रोज़गार नहीं है, शिक्षा-स्वास्थ्य-सार्वजनिक सुविधाओं को लगातार पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए बेचा जा रहा है, और जनता बिल्कुल त्रस्त है। लोग इन मुद्दों पर सरकार से सवाल न करें, और बस हिन्दू-मुस्लिम में उलझे रहें, इसके लिए यह पूरा बवाल खड़ा किया गया है, जिससे आम जनता को हासिल कुछ नहीं होगा लेकिन वह अपनी ही नागरिकता साबित करने के लिए लाइन में ज़रूर लगी होगी। साथ ही जनता के बड़े पहले से ही वंचित शोषित हिस्सों को डरा और भयभीत कर उनके समस्त कानूनी अधिकारों यहाँ तक कि वोट देने तक के अधिकार से वंचित कर वर्तमान फासीवादी सरकार के लंबे समय तक सत्ता में रहने को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा।

क्या करें?
याद रहे कि अर्थव्यवस्था में बढ़ते संकट के कारण मोदी-शाह सरकार के पास इस मानवता विरोधी नफरत और विभाजन के फासिस्ट रास्ते से पीछे हटने का कोई विकल्प नहीं है। इसके लिये वे किसी भी स्तर के दुष्प्रचार और प्रपंच रचने तक जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में सच्चा देशप्रेम यही होगा कि 2003 व 2019 के नागरिकता कानून संशोधनों और नागरिकता रजिस्टर को रद्द कराने के लिए भारी संगठित जनप्रतिरोध खड़ा किया जाये। साथ ही श्रमिकों, गरीब किसानों, स्त्रियों, छात्रों-युवाओं व व्यापक तौर पर मेहनतकश जनता को इससे जोड़ने के लिये उनके जीवन के अहम मुद्दों को इससे जोड़ा जाये। साथ ही इस प्रतिरोध को मात्र चुनावी राजनीति का औज़ार बनने से बचाकर वास्तव में जनता का आंदोलन बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिये जरूरी हो जाता है कि स्थानीय स्तर से शुरू कर संघर्षशील जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की जिला, प्रदेश व देश स्तर तक की जन संघर्ष समितियाँ खड़ी की जायें जो इस प्रतिरोध का नेतृत्व कर सकें।

22-01-2020

1 comment:

  1. सही सुझाव है। जमीन पर उतर कर जनता के विभिन्न हिस्सों को गोलबंद करना हीसबसे जरुरी कार्यभार बनताहै।

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