Please Read

Financial Crisis In India - Brief Study

Thursday, December 5, 2019

अर्थव्यवस्था में संकट है तो शेयर बाजार ऊंचाइयां क्यों छू रहा है?



हाल के दिनों में एक और तो अर्थव्यवस्था में संकट – माँग, उत्पादन, बिक्री व मुनाफा दर में गिरावट - की खबरें आ रही हैं, दूसरी ओर शेयर बाजार के सूचकांक निरंतर नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। दोनों का यह विपरीत लगने वाला व्यवहार अधिकांश लोगों के लिए मुश्किल, अनसुलझी पहेली बना हुआ है। इस परिघटना को समझने के लिए इसके कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। फिर बीच बीच में कुछ अजीब खबरें भी आती रहती हैं। जैसे, एयरटेल को लगभग 25 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ, लेकिन उसके बाद उसके शेयर के दाम गिरने के बजाय उछल गये या बंद हो चुकी जेट एयरवेज़ के शेयर पिछले दिनों अचानक बढ़ने लगे। इसी तरह भारी घाटे से दिवालिया होने की स्थिति से जूझ रही अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इंफोकोम के शेयर कुछ दिन पहले तीन गुना तक चढ़ गये। हालाँकि आम तौर पर सब जानते हैं कि ऐसे मामलों में सट्टेबाजी की मुख्य भूमिका है पर सट्टेबाजी के पीछे भी कुछ आर्थिक कारण काम करते हैं जिन्हें समझना जरूरी है।
शेयर बाजार की हालिया तेजी के पीछे मुख्य तात्कालिक कारण तो सरकार द्वारा पिछले महीनों में घोषित आर्थिक नीतियाँ हैं अर्थात बैंक ऋण पर ब्याज दरों में कटौती, कॉर्पोरेट कर में छूट तथा व्यवसायियों को अन्य कई किस्म की राहत। इन सब का असर है कि कंपनी मालिक या शेयरधारक पूँजीपतियों के हाथ में बचे मुनाफे में वृद्धि। पूँजीपति अपने कारोबार में जो कुल मुनाफा अर्जित करते हैं उसमें से ही बैंक ऋण पर ब्याज व सरकार को दिया जाने वाला टैक्स चुकाते हैं। अगर इन दोनों को कम कर दिया जाये तो मुनाफा उतना ही रहने या कम होने पर भी पूँजीपति मालिकों के पास बच जाने वाला मुनाफे का अंश बढ़ जाता है। अभी आर्थिक संकट की वजह से कम माँग, उत्पादन व बिक्री के कारण कुल मुनाफा तो नहीं बढ़ रहा है पर उपरोक्त सरकारी कदमों की वजह से पूँजीपतियों के हाथ में रहने वाला मुनाफे का अंश बढ़ जाने से न सिर्फ औद्योगिक पूँजीपति वर्ग बल्कि कंपनियों में निवेश करने वाले वित्तीय पूँजीपति भी प्रसन्न हैं। साथ ही उन्हें सरकार की ओर से उनके मुनाफे को बढ़ाने वाले ऐसे ही ओर कदमों की भी आशा है। यह शेयर बाजार में उछाल की एक तात्कालिक वजह है।
किंतु इस परिघटना का मूल कारण समझने के लिये हमें और गहराई में जाने की जरूरत है। पूंजीवाद का संकट जैसे-जैसे बढ़ रहा है, पूंजी निवेश वास्तविक उपयोगिता मूल्य की वस्तुओं वाले मालों के उत्पादन में कम और वित्तीय पूंजी के बाजारों - करेंसी, शेयर, जिंसों के सट्टे - में लग रहा है; इनके सीधे दाम तो बहुत लोगों को पता चलते हैं पर असली सट्टा तो उन ऑप्शन, हेज, फॉरवर्ड रेट एग्रीमेंट, स्वैप - डिफ़ॉल्ट, इंटरेस्ट रेट, करेंसी, आदि में हो रहा है जिन्हें डेरीवेटिव कहा जाता है अर्थात असली व्यापार में क्या होगा, दाम किधर जायेंगे, इस पर होने वाला सट्टा। एक उदाहरण - आज पूरी दुनिया में करेंसी के जितने सौदे होते हैं (जैसे डॉलर-रूपया) उनका सिर्फ 1% ही वास्तविक व्यापार या लेन-देन से जुड़ा है, बाकी सब सट्टा बाजार से जुड़ा है। इस तरह बाजार के मांग-पूर्ति के नियम से इनके दाम बढ़ते जाते हैं जैसे अभी ही देखिये हर तिमाही में रिजर्व बैंक बताता है कि अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश कम हो रहा है पर शेयर बाजार उठ रहा है क्योंकि असली मालों की मांग में सिकुड़न है, उद्योग 70% क्षमता पर ही उत्पादन कर रहे हैं, वहां नए निवेश की गुंजाईश नहीं बन रही, वित्तीय पूंजी सट्टा बाजार में मुनाफा ढूंढ रही है, शेयरों के भाव ऊपर जा रहे हैं!
मार्क्स ने दिखाया था कि प्रत्येक पूंजीपति अधिकतम मुनाफे और दूसरे पूंजीपतियों को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ने हेतु निरंतर नई तकनीक और पूंजी में निवेश बढ़ाता है ताकि कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन कर बाजार के ज्यादा हिस्से पर काबिज हो सके। सब पूंजीपति यही करते हैं और उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाने से अति उत्पादन का संकट पैदा होता है जिसका समाधान कुछ पूंजीपतियों की बरबादी और बचे हुओं के बढे बाजार हिस्से में होता है। अधिक पूंजी निवेश की इसी जरुरत ने पहले व्यक्तिगत पूंजी से साझेदारी को जन्म दिया, पर साझेदार मुनाफे और घाटे दोनों के लिए जिम्मेदार है अतः प्रबंध में भी हिस्सेदारी रखता है। इसलिए इस की सीमा जल्दी ही आ गईं। इसके बाद आधुनिक संयुक्त पूंजी कंपनी का जन्म हुआ जिसमें प्रत्येक शेयर धारक लाभांश में हिस्सा प्राप्त करता है लेकिन घाटा होने पर अपने हिस्से या शेयर से ज्यादा का जिम्मेदार नहीं, इसलिए प्रबंध में भी हिस्सेदार नहीं। इससे कम पूंजी लगाकर भी कंपनी प्रमोटर प्रबंध पर एकाधिकार और मुनाफे में अधिक हिस्सा रख सकता है।
लेकिन शेयर धारक पूंजी डूबने के जोखिम के रहते भी निवेश क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें अपनी पूंजी बैंक, सोने या जमीन/मकान में लगाने से प्राप्त होने वाली आमदनी से अधिक दर पर लाभांश या डिविडेंड मिलने की उम्मीद होती थी। वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवाद के पहले के दौर में, मार्क्स के वक्त में, यही होता था - बहुत से मध्यमवर्गीय, पेशेवर, व्यापारी, आदि अपनी पूंजी बड़ी कंपनियों के शेयर में लगाकर साल दर साल अपेक्षित आमदनी पाते रहते थे, उस वक्त शेयरों के दाम भी अपेक्षित लाभांश की दर से तय होते थे। लेकिन वित्तीय पूंजीवाद के दौर में, अर्थात औद्योगिक और बैंक पूंजी के मिलन के बाद स्थिति बदल गई। आज जब कंपनी बनती है तो 2 किस्म के निवेशक होते हैं - प्रमोटर और वित्तीय निवेशक (बैंक, बीमा, तमाम किस्म फंड जैसे वेंचर फंड, आदि) - इन्हें शेयर अलॉटमेंट पूंजी के हिस्से के वास्तविक मूल्य (10 रु का शेयर 10 रु में) या रियायती/डिस्काउंट दाम (10 रु का शेयर 8 या 9 रु में) पर होता है। वित्तीय निवेशक का मकसद कंपनी के शेयरों के दाम बढ़ने पर मुनाफा कमा लेना होता है, इसलिए लाभांश की घोषित दर का फायदा सिर्फ प्रमोटर को होता है। कारोबार के थोड़ा बढ़ते ही इसके शेयर अन्य निवेशकों को बढे दामों पर बेचे जाने शुरू हो जाते हैं, बाजार में निर्गम निकालकर जिन्हें आईपीओ, एफपीओ, आदि कहा जाता है। नतीजा यह कि इन निर्गमों में मूल्य प्रति शेयर आमदनी का 15-20 गुना होता है अर्थात कंपनी को होने वाली कुल आय ही शेयर मूल्य पर 5% है जबकि सारी आय भी लाभांश में नहीं दी जाती, उसका एक बड़ा हिस्सा कंपनी के अन्य निवेश के लिए रखा जाता है। फिर ये शेयर स्टॉक एक्सचेंज में और बढे मूल्य पर ख़रीदे-बेचे जाते हैं। आज की स्थिति में सेंसेक्स-निफ़्टी के दाम प्रति शेयर आमदनी के 28-30 गुना हैं अर्थात अगर पूरा लाभ भी लाभांश के तौर पर मिले तो 3% अर्थात बैंक के बचत खाते बराबर। पर वास्तविक लाभांश तो बहुत अधिक लाभ कमाने वाली कंपनियों में भी अक्सर शेयर मूल्य पर 1% से भी नीचे है! कुछ छोटी कंपनियों के मामले में तो शेयर मूल्य प्रति शेयर आय के 100 गुना से ऊपर तक जा पहुंचे हैं। कहा जा सकता है कि शेयर बाजार और लाभांश की दर में आज कोई संबंध नहीं है।
सवाल उठता है कि इतने कम लाभ के बावजूद भी शेयर बाजार में निवेश किसलिए हो रहा है? वह इस उम्मीद में कि शेयर का मूल्य बढ़ने से मुनाफा होगा! उस उम्मीद पर सटोरिया पूंजी की मांग शेयर मूल्य बढाती जाती है, जब तक कि कोई कमजोर कड़ी टूटने से धड़ाम न हो! एक तरफ वास्तविक माल उत्पादन में मुनाफे की गिरती दर है, तो दूसरी ओर अधिकतम मुनाफे के पीछे भागती अधिक से अधिक वित्तीय पूंजी। वह फिर कहाँ जाये? इस स्थिति में शेयर बाजार में शेयर अब कंपनी द्वारा उत्पादन पर कमाये लाभ में हिस्सा पाने के लिए पूंजी निवेश न होकर खुद ही एक माल में परिवर्तित हो गए हैं जिनके दाम बाजार में प्रचुर नकदी तरलता और मांग-पूर्ति के नियम से बढ़ते जाते हैं। अर्थात पूंजीवाद का संकट ही शेयर बाजार के ऊपर चढ़ते जाने की वजह है।
2017 व 2018 के के दो साल में ही सेंसेक्स की 30 कंपनियों का कर पश्चात मुनाफा 7.3% कम हुआ है। निफ्टी की 50 कंपनियों के लिए यह गिरावट 3.3% है। उसके बाद तो संकट और भी तेजी से बढ़ा है। पर शेयर बाजार रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। अगर प्रति शेयर आय के मुक़ाबले दाम का अनुपात देखें - सेंसेक्स की 30 कंपनियों का आय/दाम अनुपात शेयर बाजार में गिरावट के वक्त सितंबर 2012 में 17.5 था अर्थात प्रति शेयर आय 10 रू हो तो शेयर का दाम 175 रू था। इसका मतलब है कि प्रति शेयर आय 6% से थोड़ी कम थी। अब यह अनुपात 28 है अर्थात 10 रू आय वाले शेयर का दाम 280 रू है - आय 4% से भी कम ही रह गई है अर्थात बैंक के बचत खाते के बराबर। यह स्थिति भी सबसे बड़ी कंपनियों की है, छोटी कंपनियों का हाल तो और बुरा है। जहां तक कंपनी के प्रोमोटर पूंजीपति और उनके करीबी या पृष्ठपोषक वित्तीय पूँजीपतियों का सवाल है उन्हें अधिकांशतः शेयर अंकित मूल्य पर (10 रू वाला 10 रू में) या कुछ प्रीमियम पर मिले होते हैं, इसलिए उनके लिए आय व लाभांश का अनुपात भिन्न है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें कई फायदे होते हैं - करोड़ों में वेतन, खर्च सब कंपनी के खाते में, कंपनी पर नियंत्रण है तो चोरी का मौका (कंपनी की संपत्ति को निजी में परिवर्तित कर लेना), आदि। शेयर के दाम बढ़ना उनके लिए मात्र एक अतिरिक्त लाभ है। पर शेयर बाजार में शेयर खरीदने वाले को तो पूरा 2-4% लाभ भी नहीं मिलता - इसका बड़ा हिस्सा तो कंपनी के रिजर्व में चला जाता है और लाभांश या डिविडेंड बहुत कम होता है - औसत शायद 1-2% या उससे भी नीचे।
कुछ दशक पहले तक शेयर में निवेश अर्थात कंपनी की पूंजी के एक हिस्से का मालिक बनने में निवेश करने का कारण यह था कि पूंजी पर मिलने वाला औसत लाभ हासिल हो। क्योंकि यही निवेश अगर बैंक के जरिये किया जाता तो इस औसत लाभ में से एक हिस्सा बिचौलिया बैंक रख लेता था, और पूंजी मालिक को मिलने वाला लाभ अर्थात जमाराशि पर ब्याज सीधे कंपनी के शेयर में निवेश करने पर मिलने वाले लाभ से कम होता था। इसलिए जो कंपनी अधिक लाभांश देती थी उसके शेयर के दाम अधिक हो जाते थे और सब पूंजी निवेशकों को एक औसत दर पर लाभ हासिल होता था। मगर अब उल्टा है - बैंक में बचत खाते में रखने पर ही 3.5% ब्याज मिलता है, एफड़ी में तो लगभग 6%
फिर भी लोग शेयर बाजार में पैसा क्यों लगाते हैं? मेहनतकश वर्ग की श्रम शक्ति खुद को मिलने वाले मूल्य अर्थात अर्जित की गई मजदूरी से फाजिल जो उत्पादन करती है वह पूँजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता है। यह लूटा गया फाजिल उत्पादन या अधिशेष ही पूंजी है। लंबे वक्त तक इस पूंजीवादी शोषण के चलते पूंजीपति वर्ग और उसके प्रबंधक उच्च मध्य वर्ग के पास बड़ी भारी मात्रा में पूंजी एकत्र हो गई है। पर पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के चलते अब इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी के लाभप्रद निवेश के विकल्प कम ही बचे हैं। इसलिए यह पूंजी शेयर बाजार व कई अन्य किस्म की सट्टेबाजी (जिंस, मुद्रा बाजार व उनके वायदा, ऑप्शन, फ्युचर, स्वैप जैसे डेरिवेटिव) में लग रही है। शेयर बाजार अब उद्योग-व्यापार से होने वाले औसत लाभ को पूंजी निवेशकों में वितरण का माध्यम नहीं रहा, बल्कि खुद मांग-पूर्ति के आधार पर शेयर के दामों में उतार-चढ़ाव का व्यापार से लाभ कमाना ही लक्ष्य बन गया है। पहले बड़ी पूंजी वाले वित्तीय निवेशक और दलाल चक्रीय व्यापार से शेयरों के दाम बढ़ाना शुरू करते हैं। इसके आधार पर इनके ही कर्मचारी विश्लेषक और कारोबारी मीडिया इसकी चर्चा कर माहौल तैयार करते हैं, जिससे निवेशक आकृष्ट होते हैं, जिससे मांग बढने से दाम बढ़ते हैं, उससे और माहौल बनता है, और निवेशक आकर्षित होते हैं, और मांग से और दाम बढ़ते हैं। इस तरह दाम बढ़ते जाते हैं और अपने मालिकाने के शेयर के बढ़ते दामों पर हिसाब लगाने से सबको संपन्नता भी बढ़ती नजर आती है। अभी तो जमीन/मकान वाला बाजार भी ढह गया है इसलिए उधर जाने वाला पैसा भी इधर ही आ रहा है। इसके चलते ऐसी स्थिति आ जाती है कि निवेशकों को सूद पर ऋण लेकर शेयर बाजार में लगाने में भी लाभ नजर आने लगता है। यह स्थिति अब तैयार हो रही है, बैंक व एनबीएफ़सी के फुटकर ऋण में कॉर्पोरेट ऋण के मुक़ाबले तेजी से इजाफा हो रहा है। यही एक दिन कहीं न कहीं किसी न किसी को भुगतान के संकट में पहुंचा देता है और एक जगह भुगतान का संकट पैदा होते ही नीचे की एक ईंट निकालने से इमारत के ढहने की तरह पूरी पोंजी स्कीम ढहने लगती है। तब उसकी नींव से कोई हर्षद मेहता, केतन परीख, आदि 'स्कैम' निकलता है।
शेयर बाजार की वर्तमान छलांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मजबूती का नहीं, उस पर छाए संकट का नतीजा है। पर जब भी यह संकट आता है उसका बोझ आखिर मेहनतकश जनता पर ही डाला जाता है।
आज अर्थव्यवस्था के संकट के कारण उत्पादक क्षमता में नया निवेश 16-17 सालों के निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है। बैंकों द्वारा कंपनियों को दिये जाने वाले ऋण में भी वृद्धि नहीं हो रही है। बैंकों के पास हर दिन माँग से औसतन दो लाख करोड़ रुपये अधिक मौजूद है और लघु अवधि मुद्रा बाजार में ब्याज दरें नीची हैं। इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध वित्तीय पूँजी आखिर जाये तो कहाँ? पूँजी को बिना कहीं निवेश के रखना भी हानि ही माना जाता है क्योंकि पूँजी का मूल चरित्र ही मुनाफा कमाना है। अतः यह अतिरिक्त पूँजी अभी शेयरों की सट्टेबाजी में लगकर उनकी कीमतों को उठा रही है। सच बात तो यही है कि अर्थव्यवस्था में संकट है ठीक इसीलिए अभी शेयर बाजार नई-नई ऊंचाइयां छू रहा है! यह पूँजीवाद के ढाँचागत संकट का ही एक चारित्रिक लक्षण है क्योंकि अब उत्पादक शक्ति बढने में नहीं उत्पादक शक्तियों और पूँजी के विनाश में ही संकट से तात्कालिक छुटकारा मिलने की राह दिखाई देती है। जैसे टेलीकॉम में संकट के बावजूद एयरटेल के शेयर इसलिये उछाल गये क्योंकि तीन में से एक कंपनी दिवालिया होगी तो शेष दो कुछ वक्त तक अधिक मुनाफा कमा सकेंगी। इससे शेयर बाजार के वित्तीय चमगादड़ प्रसन्न होते हैं। कुल मिलाकर कहें तो पूँजीवाद अब उत्पादक शक्तियों के विकास में मददगार नहीं, उसमें सबसे बडा रोडा बन गया है। उससे अब सामाजिक जीवन के किसी भी पहलू में कोई प्रगतिशील भूमिका निभाने की आशा सबसे बड़ा भ्रम है।
     
       28-11-2019

लाचार रिजर्व बैंक की लंगड़ी मौद्रिक नीति!

आज रिजर्व बैंक द्वारा इस वर्ष की अंतिम मौद्रिक नीति समीक्षा घोषणा में रेपो रेट अर्थात केंद्रीय बैंक द्वारा व्यवसायिक बैंकों को दिये जाने वाले अल्पकालीन ऋण की दर को कम नहीं करने से वित्तीय बाजारों को गहरा झटका लगा है क्योंकि सभी बैंक व आर्थिक विश्लेषक इस ब्याज दर में 0.25% की कमी का अनुमान लगाये बैठे थे।

इससे पहले रिजर्व बैंक लगातार 5 बार में इस दर में 6.5% से 5.15% अर्थात कुल 1.35% की कटौती कर चुका है। रिजर्व बैंक के आज के बयान से पता चलता है कि वह ब्याज दर घटाना चाहते हुए भी घटा नहीं पाया जबकि ऊर्जित पटेल को बाहर कर शक्तिकांत दास को अन्य के अतिरिक्त यह काम करने के लिये भी लाया गया था। किंतु अब दास की अध्यक्षता में इस सरकार द्वारा नामित मौद्रिक नीति समिति ने भी लगातार 5 बार ब्याज दर घटाने के बाद असमर्थता से हाथ खड़े करते पटेल वाली बात दोहरा दी कि सरकार ही पहले अपनी वित्तीय नीति को सँभाले! वास्तविकता तो यह है कि रिजर्व बैंक के घटाने से ब्याज दर वास्तव में घट भी नहीं पा रही है, मुद्रा बाजार में ब्याज दर तय होने के आर्थिक नियम का उल्लंघन कर सिर्फ घोषणा से घट भी नहीं सकती। पर उस पर बाद में आते हैं।

पर सबसे पहले सवाल यह कि कि वित्तीय बाजार की ओर से ब्याज दरों में कमी पर इतना जोर क्यों है? इसके लिए हमें ऋण व्यवस्था को समझना होगा। जिन पूँजीपतियों को उद्योग या व्यापार में निवेश करना होता है, वे उसके लिए उन पूँजीपतियों से ऋण लेते हैं जिनके पास किसी वजह से अतिरिक्त पूँजी है या उन से जिनके पास कुछ पूँजी है पर इतनी नहीं कि वे खुद औद्योगिक या व्यापारिक पूँजीपति बन सकें, उदाहरणार्थ मध्यम वर्ग के लोग या पेंशनर, आदि। बैंक इन सबसे पूँजी एकत्र कर निवेशक पूँजीपतियों को ऋण देते हैं। इसके बदले ये पूँजीपति इस पूँजी निवेश से हुए कुल लाभ का एक अंश बैंक को ब्याज के रूप में देते हैं जिसमें से एक हिस्सा अपने लाभ के लिए रख शेष को बैंक मूल बचत करने वाले को ब्याज के रूप में देते हैं।
किंतु 2007-08 से जारी आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप औद्योगिक पूँजीपतियों की मुनाफा दर गिरी है, जबकि उन्होंने ऋण लेकर बड़े पैमाने पर स्थायी पूँजी में निवेश किया था। प्रति इकाई पूँजी पर लाभ दर में हुई इस गिरावट के कारण औद्योगिक पूँजीपति ऊँची ब्याज दरों पर लिये गये ऋणों का ब्याज चुका पाने में असमर्थ हैं और बैंकिंग प्रणाली में डूबे ऋणों का भारी संकट कई वर्षों से मौजूद है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिए औद्योगिक पूँजीपतियों ने विशाल मात्रा में ऋण लेकर स्थाई पूँजी में खूब निवेश किया था। यही वजह है कि पिछले कई वर्षों से पूरा पूँजीपति वर्ग सरकार पर ब्याज दरों में कमी के लिए भारी दबाव बनाये हुए हैं।

लेकिन वास्तविकता यह है कि सिर्फ रिजर्व बैंक की घोषणा से ब्याज दरें घट नहीं सकतीं क्योंकि मुद्रा भी एक माल है और उसको उपयोग के लिए दूसरे को दिये जाने के लिए माँगा जाने वाला बाजार दाम अर्थात ब्याज की दर भी माल की माँग और पूर्ति की दर से तय होती है। हालांकि यह सच है कि रिजर्व बैंक ने बाजार में नकदी तरलता बढाने के लिए भी बहुत प्रयास किये हैं तथा कई महीने से अंतर्बैंक मुद्रा बाजार में दो लाख करोड़ रुपये इफरात मौजूद हैं। पर सच्चाई यह भी है कि यह तरलता सिर्फ तात्कालिक नकदी आवश्यकता को ही पूरा कर सकती है। बैंक इसके आधार पर मध्यम या दीर्घकालिक ऋण नहीं दे सकते। ऐसा कर वह पहले ही अपने हाथ जला चुके हैं।

किंतु पूँजी की आपूर्ति करने वाले एक मुख्य स्रोत परिवारों पर भी गिरती या ठहरी आय और बढते खर्चों की वजह से भारी दबाव है और उनकी बचत क्षमता तेजी से गिरी है। सरकार ने जन-धन खातों और नकद के बजाय डिजीटल लेनदेन को बढावा देकर परिवारों के पास मौजूद हर रुपये को बैंकों में लाने का प्रयास किया है किंतु उससे भी हालात में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है। दूसरी ओर बढते आर्थिक संकट और पूँजीपति वर्ग को दी गई भारी रियायतों के कारण सरकार का राजस्व गिरा है और राज्यों व सार्वजनिक क्षेत्र सहित उसके बजट घाटे में भारी वृद्धि होकर वह कुछ अनुमानों के अनुसार लगभग 10% पर पहुँच गया है।
 इसलिये स्वयं सरकार की ऋण आवश्यकता बहुत अधिक है, यहाँ तक कि उसने विदेशों में संप्रभु बॉंड जारी करने का प्रस्ताव भी किया था। परिवारों द्वारा की जाने वाली कुल बचत वर्तमान में सरकार की जरूरत को पूरा करने में भी असमर्थ है। इसीलिये सरकार बैंकों की माँग के बावजूद लघु जमा योजनाओं पर ब्याज दर में कटौती से हिचक रही है और परिणामस्वरूप बैंकों को भी जमा राशि पर ब्याज ज्यादा घटाने पर जमा राशि बढाने में दिक्कत हो रही है। एक और कारण यह है कि पिछले ऋणों के डूबने से बैंकों को जो हानि होती है उसकी भरपाई के लिए भी उन्हें नये ऋणों पर ब्याज दरों को ऊँचा रखना पडता है।

नतीजा यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा रिपो रेट में कटौती के बावजूद अल्पकालिक नकदी आवश्यकता को छोड़कर ब्याज दर में गिरावट दर्ज नहीं की गई है और बैंकों द्वारा दिये गए ऋणों पर औसत ब्याज दर में मामूली वृद्धि ही हुई है। खुद सरकार की हालत यह है कि उसे 10 वर्षीय ऋणपत्र पर सकल घरेलू उत्पाद में आंकिक वृद्धि दर से भी ऊपर ब्याज दर पर कर्ज लेना पड रहा है। साथ ही एक समस्या यह भी है कि पेट्रोलियम पदार्थों, खाद्य सामग्री व टेलीकॉम दरों आदि में वृद्धि से महँगाई दर भी बढकर 5% के पास पहुंच चुकी है तथा अल्पकालिक ब्याज दरों को घटाने से आढतियों द्वारा माल रोककर कीमतें बढाने की प्रवृत्ति को और भी बल मिलेगा तथा महँगाई नियंत्रण के बाहर हो सकती है। इस वजह से भी मौद्रिक नीति समिति ने इस बार ब्याज दरों में कटौती नहीं की है, हालांकि उसने स्थिति अनुकूल होने पर फिर से ब्याज दर कम करने का संकेत भी दिया है।

ब्याज दर कटौती के बजाय मौद्रिक नीति समिति ने सरकार को संकट से निपटने के लिए वित्तीय कदम उठाने का संकेत दिया है।.पर जैसा हम ऊपर ही कह चुके हैं खुद सरकार की वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि वह खर्च बढाने, पूँजी निवेश करने या कर रियायतें देने के लिए कोई बहुत बडे कदम उठा सके। असल बात यह है कि यह आर्थिक संकट ब्याज दर और ऋण के क्षेत्र में प्रकट होता दिखाई तो जरूर दे रहा है पर यह वहाँ से पैदा नहीं हुआ है। आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तेजी से बढती स्थायी पूँजी अर्थात मशीनों, तकनीक, इमारतों, कच्चा/सहायक माल और उसकी तुलना में घटती परिवर्तनशील पूँजी अर्थात श्रम शक्ति पर लगी पूँजी के कारण गिरती मुनाफा दर से पैदा हुआ है क्योंकि स्थाई पूँजी में जितनी भारी वृद्धि हुई है बिक्री उसके मुकाबले बहुत कम बढी है।
क्योंकि संकट उत्पादन के क्षेत्र में पैदा हुआ है अतः ब्याज दरों में हेरफेर से यह हल भी नहीं हो सकता। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था में तो इसका कोई स्थाई समाधान बचा ही नहीं है, मात्र पूँजी के एक हिस्से का विनाश अर्थात कुछ पूँजीपतियों का दिवालिया होना ही इस दौर में दिवालिया होने से बचे रहने वाले पूँजीपतियों को तात्कालिक तौर पर कुछ राहत दे सकता है, अगले संकट का इंतजार करने के लिए। इससे अधिक कुछ नहीं।

https://hindi.newsclick.in/helpless-monetary-policy-of-the-Reserve-Bank
05/12/2019