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Financial Crisis In India - Brief Study

Tuesday, March 24, 2020

कोविड 19, पूंजीवादी आर्थिक संकट और मेहनतकश जनता

कोविड 19 बीमारी ऐसे वक्त में दुनिया को अपनी चपेट में ले रही है जब 40 साल की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने एक ओर तो सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसी सेवाओं की कमर पहले ही तोड़ दी है, दूसरी ओर श्रमिकों का अधिकांश भाग अब बिना किसी श्रम क़ानूनों की सुरक्षा वाले 'शून्य' कांट्रैक्ट पर काम करता है अर्थात निर्धारित मजदूरी, छुट्टी, ESI मेडिकल -बीमा, कुछ नहीं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने श्रमिकों को 'स्वतंत्र' कर दिया है, जब जितना काम मिला तब उतनी मजदूरी अन्यथा भूखे मरने की पूर्ण आजादी, पूंजीपति की कोई ज़िम्मेदारी नहीं।

पर इन्हीं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने पूंजीवाद को गंभीर वैश्विक आर्थिक संकट के भंवर में भी फँसा दिया है क्योंकि अधिशेष अर्थात मुनाफा तो मजदूरों के श्रम से ही पैदा होता है। श्रमिकों की मजदूरी पर खर्च घटाने की कोशिश ने अधिशेष मूल्य अर्थात मुनाफे की दर को भी घटा दिया है। अब संकट चक्रीय नहीं निरंतर है और एक संकट से निकलने की कोशिश पूंजीवाद को और गहरे संकट में धकेल रही है।

लेकिन पूंजीवाद संकट में होने का अर्थ यह नहीं कि पूँजीपति लोग गरीबी और भुखमरी का शिकार होते हैं। कुछ दिवालिया जरूर होते हैं पर मुख्यतः उनकी कंपनियाँ, निजी तौर पर मालिक कम ही ऐसी स्थिति में जाते हैं। वर्ग के तौर पर पर देखें तो इतना ही होता है कि शेयर बाजार व अन्य संपत्ति के बाजार दाम गिरने से उनकी दौलत का आंकिक (nominal) मूल्य घट जाता है, वास्तविक संपत्ति में कमी नहीं आती। साथ ही संकट से राहत के नाम पर सरकारें जो राहत पैकेज लेकर आती हैं उनका अधिकांश लाभ भी पूँजीपति वर्ग को ही मिलता है। हर संकट के बाद पूँजीपतियों की संपत्ति की बाजार कीमतों को फिर से बढ़ाने की कोशिश होती है तथा कंपनियों के शीर्ष मालिकों-प्रबंधकों को इन राहत पैकेज के बल पर वेतन-बोनस में छप्पर फाड़ बढ़ोत्तरी भी मिल जाती है। उदाहरण के तौर पर गहन आर्थिक संकट के वक्त भी अमेरिका में राहत पैकेज की घोषणा होते ही गोल्डमैन सैक्स के CEO के वेतन में 19% वृद्धि हो भी गई है।

पूंजीवादी संकट की वास्तविक तकलीफ हमेशा श्रमिकों एवं अन्य मेहनतकश लोगों तथा निम्न-मध्यम या टटपूंजिया वर्ग को ही झेलनी होती है। श्रमिक और भी बेरोजगार होते हैं एवं उनकी मजदूरी और भी कम हो जाती है, जो थोड़ी बहुत सुविधायें उन्होने अपने संघर्षों से हासिल की हैं वे भी छीनी जाती हैं। साथ ही टटपूंजिया वर्ग का एक हिस्सा भी दिवालिया हो श्रमिक बनता जाता है। नतीजा यह कि हर पूंजीवादी संकट मेहनतकश जनता के हिस्से में और अधिक गरीबी, बेरोजगारी, भूख, बीमारी का कहर बन कर टूटता है।

पहले से ही वैश्विक आर्थिक संकट से जूझती पूंजीवादी व्यवस्था का संकट कोविड 19 की महामारी से उत्पादन और वितरण में आई रुकावट से भयानक रूप अख़्तियार कर रहा है। और उसी अनुपात में मेहनतकश जनता पर डाले जाने वाला कष्टों का बोझ भी बढ़ रहा है - बेरोजगारी, मजदूरी में कटौती, रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुओं का अभाव और महँगा होना, सार्वजनिक अस्पताल-दवा-इलाज की कमी से किसी तरह की गई थोड़ी बहुत बचत का भी निपट जाना, साथ में सरकारी मशीनरी का नृशंस दमन। ये सभी हम होते देख रहे हैं। दुनिया के पूँजीपतियों के एक बडे भोंपू वाल स्ट्रीट जर्नल ने तो पूरी बेशर्मी से ऐलान ही कर दिया है, "कोई समाज अपनी आर्थिक सेहत की कीमत पर लंबे अरसे तक सार्वजनिक सेहत की सुरक्षा नहीं कर सकता।"

साथ में भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से पिछड़े समाजों में जहाँ पूंजीवादी आर्थिक शोषण के साथ जाति, लिंग, धर्म, इलाकाई, भाषाई, राष्ट्रीयता आधारित जुल्म भी भारी परिमाण में मौजूद है, वहाँ इन दमित समुदायों के अधिकांश सदस्यों के लिए तकलीफ और भी बढ़ जाती है क्योंकि सरकारी व सामाजिक तंत्र दोनों ही उनके प्रति घोर नफरत से भी भरा हुआ है।

किंतु इस नग्न अन्याय से प्रतिवाद की संभावना भी पैदा होती है। इस प्रतिवाद को जड़ में निर्मूल करने के लिये पूंजीवादी राज्य व्यवस्था को उसके द्वारा खुद ही घोषित जनतांत्रिक, संविधानिक मूल्यों के आधार पर चलाना मुश्किल होता जाता है। अतः हर संकट राज्य व्यवस्था में जनतान्त्रिक मूल्यों को खोखला करता जाता है और अधिकाधिक दमनकारी व अधिनायकवादी बनाता जाता है। भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से पिछड़े तथा पहले से कमजोर अधूरे जनवाद वाले देशों में जहाँ जाति, धर्म, इलाकाई नफरत ऐतिहासिक रूप से ही मजबूत रही है, वहाँ इसके आधार पर संकटग्रस्त समाज में कम होते संसाधनों के बँटवारे में इसके आधार पर भी नफरत और अन्यीकरण के जरिये एक फासिस्ट मुहिम को खड़ा करना आसान होता है। खास तौर पर दिवालिया होते टटपूंजिया वर्ग के दिमाग में अपनी तकलीफ़ों का कारण इन अन्य समूहों एवं मजदूरों को बनाना तुलनात्मक रूप से आसान होता है।

कोविड 19 से इस आर्थिक संकट में जो तीव्रता आई है वह भी इन्हीं प्रवृत्तियों को और सशक्त करेगी। पहले ही ऐसा होता देखा जा सकता है। सरकारें अस्पताल-इलाज की व्यवस्था से अधिकाधिक पल्ला झाड रही हैं, स्वास्थ्य कर्मियों के लिये न्यूनतम सुरक्षा सुविधायें तक उपलब्ध नहीं हैं, सबके लिये निशुल्क टेस्टिंग से इंकार कर निजी टेस्टिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। बीमारी से निपटने के लिये मेडिकल विशेषज्ञों के व्यापकतम टेस्टिंग द्वारा रोगियों की पहचान तथा अलगाव द्वारा रोकथाम की बजाय पूरे देश को ही पुलिस डंडे से लॉकडाउन कर देने का विकल्प अपनाया जा रहा है। इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव मेहनतकश जनता के जीवन पर ही पड़ रहा है। इससे हमारे समाज में जो थोड़े बहुत जनवादी अधिकार व आजादी मौजूद है उसके भी खत्म हो जाने का खतरा आ खड़ा हुआ है। साथ ही राज्यसत्ता संकट के नाम पर हर व्यक्ति पर नजर रखने का अधिकार भी हासिल कर ले रही है।

इसके अतिरिक्त, जिस तरह से घर पर क्वारंटीन, मोहर लगाने या घरों पर पोस्टर लगाने जैसे फैसले किए जा रहे हैं वे छुआछूत व भेदभाव के इतिहास वाले हमारे समाज में अन्यीकरण व लिंचिंग जैसी प्रवृत्तियों को और भी बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण पहले ही सामने आ चुके हैं जिनका शिकार रोज़मर्रा के काम करने वाले जैसे अखबार डालने वाले हॉकर, डिलीवरी करने वाले, सब्जी-दूध पहुंचाने वाले, घरेलू नौकर, आदि ही नहीं सार्वजनिक यातायात के मुसाफिर, डॉक्टर-नर्स, आदि स्वास्थ्य कर्मी या विदेशों से भारतीय नागरिकों को वापस लाने भेजे गये विमानों के कर्मी तक भी हो रहे हैं। साथ ही ऐसा प्रचार भी किया जा रहा है कि इस वक्त में सरकार से सवाल करने के बजाय उसके हर कदम चाहे वे कितने भी दमनकारी क्यों न हों उनका समर्थन करना चाहिये और सवाल करने वाले शैतान या खलनायक हैं। इससे फासीवादी सत्ता और मजबूत होगी।

सर्वहारा वर्ग की निम्न वर्ग चेतना और उसके वर्गीय संगठनों का अभाव ही राजसत्ता को यह करने का मौका दे रहा है क्योकि वर्ग चेतना और संगठन के आधार पर ही इन नीतियों की वास्तविक समझ और इनका प्रतिरोध मुमकिन है, बुर्जुआ वर्ग के टुकडखोर बुद्धिजीवियों द्वारा दिये जा रहे वैश्विक एकजुटता और मानवीय सहयोग के खोखले नैतिक उपदेशों द्वारा नहीं। संकट के दौर में पूँजीपतियों और पूँजीपति देशों में बाजार पर आधिपत्य के लिये गलाकाट होड और तेज होगी, यह निजी संपत्ति और मुनाफा आधारित उत्पादन वाले पूंजीवाद के चरित्र में ही है। कोई भलमनसाहत भरे नैतिक उपदेश इसे नहीं रोक सकते क्योंकि पूंजीपति वर्ग की नैतिकता सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं, लगाई गई पूंजी से और अधिक पूंजी कमाना है।

खुद विकसित पूंजीवादी देशों में भी इस सच्चाई को महसूस किया जा रहा है कि बाजार आधारित निजी व्यवस्था नहीं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवायें ही कोविड 19 जैसी समस्याओं-संकटों से निपट सकती हैं। वहाँ भी इनके राष्ट्रीयकरण की जरूरत महसूस की जा रही है। पर ऐसा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सामूहिक श्रम आधारित नियोजित अर्थव्यवस्था में ही मुमकिन है। समाजवाद या बर्बरता - रोजा लक्ज़मबर्ग का यह कथन अपनी पूरी सच्चाई के साथ इस वक्त हमारे सामने आ खड़ा हुआ है।

Sunday, March 8, 2020

वित्तीय संकट का नया दौर क्यों?

सितंबर महीने के आर्थिक घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया है कि पिछले चार साल के चौतरफा प्रचार के धूम धड़ाके के असर के चलते ज़्यादातर लोगों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय संकट जितना समझा जा रहा था, उससे कहीं ज्यादा गहरा है वित्तीय बाज़ारों और सरकार दोनों मे घबराहट का ये हाल है कि 21 सितंबर को पूंजी बाज़ारों में 1500 अंक तक की गिरावट से मचे हाहाकार के बाद 23 सितंबर को इतवार के रोज बैंकिंग नियामक रिजर्व बैंक और पूंजी बाजार नियामक सेबी दोनों को अपने दफ्तर खोलकर संयुक्त वक्तव्य जारी करना पड़ा कि घबराएं नहीं,  उनकी घटनाक्रम पर पूरी तथा पैनी नजर है, कुछ गड़बड़ होते ही वे सब संभाल लेंगे। एसबीआई से भी बयान जारी करवाया गया कि वह वित्तीय कंपनियों को उधार देना जारी रखेगा। 24 सितंबर को सुबह सवेरे ही खुद वित्त मंत्री को बयान देना पड़ा कि बाजार में नकदी की कमी नहीं होने देंगे। मगर शेयर बाजार में फिर भी 536 अंकों की गिरावट हो गई। हालत यह है कि बाजार में किसी को किसी की साख पर कतई भरोसा नहीं रहा, औसतन रोजाना 1 लाख करोड़ रू नकदी की कमी है। बैंकों को छोड़कर सबको नकद की समस्या है। पेंशन-पीएफ से म्यूचुअल फ़ंड तक सब दिये गए उधार की समय पर वापसी न होने से हाथ जला चुके हैं, घबराए हुए हैं, सबसे अधिक साखदार मानी जाने वाली कंपनियों को भी एक साल के लिए 10-11% ब्याज पर उधार लेना पड़ रहा है, दोयम दर्जे की कंपनियों के लिए तो ब्याज दर 12% पार कर रही है।
 
पूंजी बाज़ारों में इस हाहाकार की तुरंत वजह इंफ्रास्ट्रक्चर लीज़िंग एंड फ़ाईनाइंसियल सर्विसेज (आईएलएफ़एस) नामक कंपनी है जो सिडबी को देय 450 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं कर पाई।  सितंबर के महीने में यह म्यूचुअल व पेंशन फंड्ज को देय कुछ और भुगतान भी करने में भी पहले ही असफल रही थी। 21 सितंबर को इसने बताया कि यह आईडीबीआई बैंक को एक साखपत्र का भुगतान करने में भी चूक गई। उसी दिन इसके प्रबंध निदेशक रवि बावा व 4 अन्य निदेशकों ने भी इस्तीफा दे दिया। इस कंपनी के ऊपर अनुमानतः 92 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है जिसमें से 26 हजार करोड़ का भुगतान एक वर्ष के अंदर ही किया जाना है। इससे म्यूचुअल फंड्ज में घबराहट फैल गई क्योंकि उन पर भी आगे देय भुगतान का दबाव था। डीएसपी नामक फ़ंड ने नकदी की कमी के दबाव में दीवान हाउसिंग फ़ाईनांस कंपनी के 300 करोड़ रुपये का कर्ज बहुत सस्ती कीमत में बेच दिया। इससे यह बात आग की तरह फैली कि बहुत सारी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ नकदी की कमी और भुगतान के दबाव का सामना कर रही हैं। दीवान के शेयर मूल्य में तो तुरंत 60% की गिरावट हो गई। शेयर बाजार के सूचकांक में भी कुछ मिनटों में ही 1500 अंक की गिरावट हो गई। हालांकि कुछ वक्त में इसमें 800 अंक की वापसी हुई मगर संकट तो खड़ा हो ही गया। इससे पूंजीपति तबके में ऐसी विकलता फैली कि हमेशा सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षमता का रोना रोने वाले कॉर्पोरेट कारोबारी विशेषज्ञ और भोंपू मीडिया भी बेचैन होकर सरकार द्वारा बचाव की ऐसी गुहार लगाने लगे कि 25 सितंबर की शाम तक सरकार की ओर से एलआईसी ने ऐलान कर दिया कि वह आईएलएफ़एस को संकट से बचाने में कोई कोर कसर न छोड़ेगी चाहे उसे कितनी ही पूंजी झोंकनी पड़े अर्थात इसका अप्रत्यक्ष राष्ट्रीयकरण ही क्यों न करना पड़े।

आईएलएफ़एस के घटनाक्रम ने अगर इतना बड़ा तूफान खड़ा किया तो इसकी वजह है कि वित्तीय बाज़ारों में चिंता का माहौल इससे पहले से ही बना हुआ था। 19 सितंबर को रिजर्व बैंक ने यस बैंक के मुखिया राणा कपूर का कार्यकाल दो साल कम करने का आदेश दिया था। वजह थी अनियमिततायें,   नियमों का उल्लंघन और डूबे कर्जों को छिपाना। इसके पहले एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा को भी हटाने का आदेश ऐसी ही वजहों और डूबे कर्ज या एनपीए छिपाने के लिए दिया गया था।
 
आईसीआईसीआई बैंक की मुखिया चंदा कोचर के खिलाफ जांच चल ही रही है; साथ ही खातों में एनपीए छिपाने का भी खुलासा आरबीआई कर ही चुका है। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था में गहराता संकट शुरू में सरकारी बैंकों में 12 लाख करोड़ रुपए के डूबे कर्ज के रूप में नजर जरूर आया था, मगर वहाँ तक सीमित रहने वाला नहीं है, बड़े निजी बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थान भी इसकी जद में तेजी से आ रहे हैं। वजह यह है कि संकट असल में पूंजीवादी व्यवस्था में है - निजी या सरकारी मालिकाने या प्रबंधन से इसका चरित्र और असर बदल नहीं सकता।

इस हालत में वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक किस बात का आश्वासन दे रहे थे? यही कि वह अपनी तिजोरी का मुंह सरमायेदारों के लिए खोल देंगे ताकि उन्हें सस्ती दरों पर पूंजी हासिल हो सके और उनके भुगतान वादों में कोई रुकावट न आने पाये पूंजीवादी आर्थिक विश्लेषक तो और भी हाय तौबा मचाए हुए हैं – कि आईएलएफ़एस पूरी वित्तीय व्यवस्था के लिए बड़ा अहम है, अगर यह डूबा तो संकट पूरी वित्तीय व्यवस्था को ले डूबेगा। इसलिए सरकार, रिजर्व बैंक व अन्य वित्तीय संस्थान मिलकर इसे तुरंत इसे विपत्ति से उबारें।  यही राजसत्ता का वर्ग चरित्र है - कभी आम लोगों की दुख-तकलीफ में इतनी जल्द मामला संभाल लेने का आश्वासन देते देखा गया है, नोटबंदी के वक्त नकदी की कमी दे जूझते लोगों का मज़ाक उड़ाते मोदी याद है ना! इसने 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद संकट के जिम्मेदार बैंकों और उनके मालिकों/प्रबंधकों के बारे में अमेरिका में चलन में आई कहावत – टू बिग टू फ़ेल, टू बिग टू जेल की याद फिर ताजा कर दी। 

इसके पहले कि हम इस संकट की वजहों की ओर गहराई से पड़ताल करें, हम आईएलएफ़एस नामक इस कंपनी के बारे में कुछ जान लेते हैं। आईएलएफ़एस समूह खुद में एक अजीब तरह की कंपनी है। इसमें सबसे ज्यादा 40% शेयर एलआईसी व सरकारी बैंको के हैं इसके 5 निदेशक भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा नियुक्त हैं और इनकी मर्जी के विपरीत कोई स्वतंत्र निदेशक नियुक्त नहीं किया जा सकता। किंतु इतनी सार्वजनिक पूंजी के बावजूद इसे निजी क्षेत्र की कंपनी की तरह चलाया जाता रहा है। 1992 में स्थापना के शुरू से अब दो महीने पूर्व तक रवि पार्थसारथी ही इसके मुख्य कार्याधिकारी रहे, पिछले वर्ष उनका सालाना वेतन ही 30 करोड़ रुपए से ऊपर था, भत्ते व अन्य सुविधाएं इसके अतिरिक्त। मगर जब कंपनी डूबने लगी तो इसी जुलाई के महीने में जनाब सेहत के बहाने सेवानिवृत्त हो गए!) शेयर पूंजी के अतिरिक्त भी सार्वजनिक क्षेत्र ने इसमें और भी तरह से निवेश किया, सरकारी विभागों ने इसे ठेके दिये, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप वाला ढर्रा इसने ही शुरू किया अर्थात सारा जोखिम तो सार्वजनिक रहा पर मुनाफे निजी क्षेत्र के पार्टनरों में बंटते गए आईएलएफ़एस मूल कंपनी ने 169 ज्ञात सहायक कंपनियों की एक वित्तीय भूलभुलैय्या या कहिए मकड़ी का जाला खड़ा किया जिसमें फंसाकर वह सार्वजनिक संपत्ति को लूटती आई है। इसके घातक पंजे सड़क, रेल, बंदरगाह, विद्युत, पुल, बांध जैसे हर आधारभूत उद्योग में फैले हैं। मोदी गुजरात में जो GIFT सिटी बना रहे हैं वहाँ भी इसे 880 एकड़ जमीन 1 रु प्रति एकड़ की दर पर दी गई है। यह कंपनी बैंकों, म्यूचुअल फंड, बीमा कंपनियों, आदि से कर्ज लेकर सड़क, हवाई अड्डा, बांध, विद्युत संयंत्र, आदि जैसे ढांचागत उद्योगों को कर्ज भी देती है, और खुद के मालिकाने में चलाती भी है। जहां यह कर्ज देती है, वहाँ इसके मूल्यांकन के बाद अन्य बैंक और भी कर्ज देते हैं। अब इसके प्रोजेक्ट कमाई नहीं कर पा रहे और नकदी तरलता के अभाव में यह डूबने के कगार पर है। कुछ दिन पहले भुगतान की तारीख पर यह कमर्शियल पेपर की किश्त नहीं चुका पा, इस महीने और भुगतान की तारीख है। इस पर खुद तो कुल कर्ज लगभग बानवे हजार करोड़ रु ही है, पर इससे भी बड़ी बात ये कि इसके प्रोजेक्ट्स को दिये गए बैंक कर्ज और भी बड़ी मात्रा में, संभवतः डेढ़ लाख करोड़ रु के फेर में हैं। अब इस कंपनी पर नकदी की कमी के संकट से ये प्रोजेक्ट भी संकट में पड़ेंगे, जिनसे बैंकों का अन्य कर्ज भी डूब जाएगा

आईएलएफ़एस द्वारा कर्ज के भुगतान में असफल रहने से कई सारे म्यूचुअल फ़ंड की स्थिति खराब है। पर और भी भयंकर स्थिति है  प्रोविडेंट फंड्ज, पेंशन और बीमा के पैसे की। इसे कर्ज देने वाले कुछ नाम देखिए नेशनल पेंशन स्कीम ट्रस्ट, एसबीआई एम्प्लॉई पेंशन फ़ंड, एसबीआई एम्प्लॉई पीएफ ट्रस्ट, डाक जीवन बीमा, एलआईसी, जीआईसी, ओरिएंटल इन्शुरेंस, आदि। अतः इसके डूबने से म्यूचुअल फ़ंड से लेकर पीएफ/पेंशन तक बहुत से मध्यवर्गीय निम्नमध्यवर्गीय लोगों की बचत और रिटायरमेंट के सपनों पर बुरी तरह चोट पड़ने वाली है। अभी आगामी चुनाव के पहले यह भांडा किसी तरह फूटने से रोकने के लिए एलआईसी को मैदान में उतारा गया है जो बीमा धारकों की बचत के पैसे से इसको तुरंत दिवालिया होने से बचाने के लिए कई हजार करोड़ रुपए की पूंजी और देगा, जिससे यह अपनी तुरंत की देनदारियाँ चुका सके। पर इससे यह संकट कब तक टलेगा?

रिजर्व बैंक इसके बाद इसके एक विशेष ऑडिट का भी आदेश दे चुका है। इसकी यातायात क्षेत्र की सहायक कंपनी पहले ही अपनी संपत्तियाँ बेचने के लिए बाजार में है। इसकी सलाहकार एसबीआई कैप्स ने इसे 6 योजनाएँ बंद कर देने और 10 को बेचने का सुझाव दिया है। यह अपनी वित्तीय सेवा और ऊर्जा क्षेत्र की सहायक कंपनियां भी बेचकर नकदी जुटाने का प्रयास कर रही है। सितंबर के अंत में यह 1000 करोड़ के कमर्शियल पेपर के ऋण का भुगतान भी नहीं कर पाएगी। 28 सितंबर को खुद रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर का आईएलएफ़एस के शेयरहोल्डरों से बैठक कर उसे बचाने की चर्चा करने का कार्यक्रम है। शायद उसकी सलाह या निर्देश के अनुसार ही शेयर धारक 29 सितंबर को होने वाली इसकी वार्षिक आम सभा में इसके भविष्य के बारे में कोई निर्णय लेंगे। लेकिन मीडिया में खबर है कि आईएलएफ़एस ने एलआईसी को 4500 करोड़ और एसबीआई को 3500 करोड़ रुपए की फौरी मदद का इंतजाम करने के लिए भी कहा है। इसके अतिरिक्त शेयर धारकों को भी 4500 करोड़ रुपये की और पूंजी लगाने के लिए कहा गया है अर्थात यहाँ भी लगभग 2000 करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र से आएंगे।

मगर संकटमोचक की भूमिका निभा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े वित्तीय संस्थान एलआईसी की खुद की स्थिति जान लेना भी जरूरी है। अभी कुछ दिन पहले ही दिवालिया हो चुके आईडीबीआई बैंक को उबारने के लिए भी सरकार एलआईसी को ही आगे लाई थी। संकट के घेरे में आए निजी क्षेत्र के एक्सिस बैंक में भी इसकी पूंजी लगी है। इसके अतिरिक्त शेयर बाजार में गिरावट रोकने के लिए भी समय-समय पर इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है। एलआईसी की स्थिति यह है कि इसने पहले ही 45 ऐसी कंपनियों में 3800 करोड़ रु का निवेश किया है जिनकी आय या तो शून्य है या वे लगातार घाटे में हैं। 3 साल में इस निवेश की कीमत घट कर 780 करोड़ रु रह गई है इधर इसकी बीमा पॉलिसी खरीदने वाले लोग इस इंतजार में बैठे हैं कि शेयर बाजार बहुत तेज है, अर्थव्यवस्था बड़ी मजबूत हैं, एलआईसी बोनस के रूप में जबर्दस्त मुनाफा बांटेगा मगर इसके पैसे का इस्तेमाल सरकार निजी वित्तीय पूँजीपतियों को संकट से उबारने में कर रही है, जिससे एक दिन खुद इसके ही संकट में आ जाने का अंदेशा खड़ा हो गया है।

आईएलएफ़एस के मामले से दो बातें स्पष्ट पता चलती हैं - एक तो यह कि समाजवाद के नाम पर बनाए गए सार्वजनिक क्षेत्र के ढांचे का मुख्य काम निजी पूँजीपतियों को मालामाल करने का रहा है। यही सार्वजनिक क्षेत्र में घाटे का मुख्य कारण है। पिछले 70 साल में खड़े हुए बहुत सारे पूँजीपतियों के दौलत के अंबारों के पीछे सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही है हालांकि हमारे देश के संसदीय वामपंथी दलों और उनसे जुड़े बुद्धिजीवियों ने इसके पक्ष में समाजवाद के निर्माण के भ्रम का जाल खड़ा करने में शासक वर्ग की महती सेवा की। दूसरे, संकटग्रस्त पूंजीवाद अब मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से को कुछ सुविधाएं देने की स्थिति में नहीं रहा है और अब उनके द्वारा संचित रकम पर डाका डालना उसकी जरूरत बन गया है। इसके लिए अब बैंक, बीमा, पीएफ, पेंशन की बचतों पर निशाना साधा जा रहा है।

पर संकट की असली वजह एक आईएलएफ़एस या एक आईडीबीआई बैंक या एक यस बैंक नहीं हैं। इसकी असली वजह पूंजीवादी व्यवस्था के मूल चरित्र में है। अधिकतम मुनाफे के लिए पूंजीपति मालिक अचल पूंजी (मशीन, तकनीक) में इजाफा कर उत्पादन प्रक्रिया में लगी चल पूंजी या वास्तविक मजदूरी कम करता है, कम मजदूरों से अधिक उत्पादन कराता है पर मजदूर वर्ग के पास पैसा न होने से उसकी क्रय क्षमता या खपत कम होती है, जरूरत होते हुए भी लोग आवश्यक वस्तुएँ खरीद नहीं पाते, बाजार में मांग कम होती है; अनबिके उत्पादों से गोदाम पटने लगते हैं, कारखानों में उत्पादन स्थापित क्षमता से कम होने लगता है, पूंजीपति उदयोगों में नया निवेश बंद कर देते हैं; मशीनों, बिजली, जैसे पूंजीगत उत्पादों का उत्पादन घटाना पड़ता है, विद्युत उत्पादन फालतू हो तो संयंत्र बंद और दिवालिय होते हैं, उन्हें दिया बैंकों का कर्ज डूबता है, उनमें निवेश करने वाली वित्तीय कंपनियों के पास नकदी का टोटा पड़ जाता है; वह कर्ज देने वाले म्यूचुअल फंड, आदि को भुगतान नहीं कर पाती, म्यूचुअल फ़ंड को भी आगे भुगतान करना होता है, वह सैंकड़ों करोड़ के शेयर/बॉन्ड एकदम से बेचता है, बाजार में घबराहट फैल जाती है। धड़ाम से बाजार गिर जाता है। पिछले दिनों जो हुआ यह उसका बहुत सरलीकृत वर्णन है, पर मकसद ये दिखाना है कि कारोबारी मीडिया वाले 'विशेषज्ञ' कुछ भी बोलें पर इन संकटों के मूल में मुनाफे के लिए चलने वाले पूंजीवाद का व्यवस्थागत संकट होता है। ऐसी स्थिति में सरकार क्या करती है? वही जो वह पहले ही करना शुरू कर चुकी है - विद्युत कंपनियों को राहत देकर दिवालिया होने से बचाना, आईएलएफ़एस और आईडीबीआई बैंक को बचाने के लिए एलआईसी से नकदी दिलवाना, दिवालिया होते छोटे बैंक को बड़े मे विलय करना, खुद भारी अप्रत्यक्ष कर लगाकर जनता से वसूला लाखों करोड़ रुपया बैंकों को देना, सरकारी वित्तीय संस्थानों को शेयर खरीदने के लिए कहना, रिजर्व बैंक को आसान शर्तों पर नकदी का प्रवाह बढ़ाने के लिए कहना, आदि।

2 साल पहले एसबीआई के सहायक बैंक डूबे कर्जों तले दिवालिया होने की हालत में आ गए तो इसे छिपाने के वास्ते उन्हें एसबीआई में विलय कर दिया गया। फिर आईडीबीआई बैंक डूबा तो एलआईसी का सहारा लिया गया। देना बैंक भी दिवालिया होने के कगार पर था, उसे बैंक ऑफ बड़ोदा में विलय कर बात टाल दी गई। पहले भी बैंक डूबते और दूसरे बैंकों में विलय किए जाते रहे, पर पहले यह कुछ सालों में एक घटना होती थी, वहीं अब इसकी कतार लग गई है। और कुछ विलय आगे भी होने वाले हैं। इस विलय से लाभ क्या है? मुख्य लाभ है बड़ी तादाद में शाखाओं/दफ्तरों की बंदी से जरूरी कर्मचारियों की संख्या और अन्य खर्चों में कमी। एसबीआई विलय से करीब 4 हजार शाखाएं बंद होने की प्रक्रिया जारी है। बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय होने वाले विजया बैंक के प्रबंध निदेशक के अनुसार उसकी 500 शाखाएं बंद होने वाली हैं। पर पूंजीवादी संकट अब कोई चक्रीय संकट होने के बजाय एक निरंतर गहराता संकट है और इस से पैदा होने वाले वित्तीय संकट में पहले डूबने वाले छोटे बैंकों को विलय कर संकट को कुछ वक्त तक छिपाया जा सकता है, हल नहीं किया जा सकता। संकट का अगला शिकार ये एसबीआई, एलआईसी, पीएनबी, बीओबी जैसे संस्थान ही होने वाले हैं। जब तक पूंजीवाद में संकट से निपटने की थोड़ी बहुत क्षमता थी, वो बैंकों को डूबने दे सकता था और कारोबार के विलय की प्रक्रिया सरकार द्वारा नहीं, बाजार प्रक्रिया द्वारा होती थी। इस तरह छोटे-कमजोर बैंक बंद होते गए और कुछ बैंक बड़े वित्तीय इजारेदार बन कर उभरे। 2008 में भी अमेरिका में लीमान ब्रदर्स और ब्रिटेन में नॉर्दर्न रॉक को ऐसे ही दिवालिया हो जाने दिया गया था। पर तब पाया गया कि इतने बड़े बैंक को ऐसे ही डूबने देने से पूरी पूंजीवादी व्यवस्था में ही संकट फैल जा सकता है। तब इन बड़े बैंकों को टू बिग टू फ़ेल घोषित कर दिया गया और इन बैंकों को बचाने के लिए सरकारों ने सैंकड़ों अरब डॉलर/पाउंड की पूंजी लगानी शुरू की, जो सरकारों द्वारा कर्ज लेकर और शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारों की मदद, गरीबों के लिए अन्य कार्यक्रमों पर खर्च की कटौती से जुटाई गई। इस तरह इन बैंकों को डूबने से बचाने पर इनके द्वारा दिये गए कर्जों और इनके निवेश के डूबने के कारणों को छिपा लिया जाता है और इनके उच्च प्रबंधकों और पूँजीपतियों के मिलीभगत वाले अपराध भी छिप जाते हैं। इससे वहाँ कहावत चली - टू बिग टू फ़ेल, टू बिग टू जेल! बैंकों के हो रहे विलयों के पीछे भारत में भी ऐसे ही कारण हैं और इन पर होने वाला लाखों करोड़ का बिल मेहनतकश जनता के नाम पर ही फाड़ा जाना है।
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फिलहाल हालत यह है कि सालों तक अर्थव्यवस्था की मजबूती का झूठ बोलने के बाद अब सरकार खुद को इस झूठ को छिपाने में पूरी तरह नाकामयाब पा रही है। 14-15 सितंबर को दो दिन तक मोदी अपने वजीरों, अफसरों और सलाहकारों के साथ घबराहट भरी बैठकें करते रहे। दो बार जेटली ने बंद कमरों की गुप्त वार्ताओं से निकलकर कैमरों के सामने आकर बयान दिया कि सरकार अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए जुटी है, फैसले लिए जा रहे हैं। पर आत्ममुग्ध हुक्मरान अपने आका सरमायेदारों के स्वार्थों की हिफाजत के बजाय जनता की दुख तकलीफ के बारे में कैसे सोच पाते? अपने ही प्रचार के खिलाफ अब कैसे मान लेते कि उनकी नीतियाँ विकास नहीं जनजीवन में विनाश ढा रही हैं।  इन दो दिन में जो भी ऐलान हुए हैं वे सिर्फ वित्तीय पूँजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाले हैं, आम जनता के लिए कुछ नहीं।

14 सितंबर को पेट्रोल-रुपये के मुद्दे पर भी मोदी जी ने अर्थव्यवस्था पर चर्चा की, और पाया कि जनता बेकार में ही शोर मचा रही है, कहीं कोई तकलीफ नहीं है, उसे राहत की कतई कोई जरूरत नहीं। पर हाँ, कुछ 'निवेशकों' को बड़ी तकलीफ है! उन्हें राहत देने के लिए जेटली कैमरों के सामने आए और 5 कदमों का ऐलान कर गए। इस शोर के बीच सबसे बड़ी राहत पोर्टफोलियो निवेशकों को मिली। ये वही पोर्टफोलियो निवेशक हैं जो अपनी पहचान बताने के सख्त खिलाफ हैं, जिनकी कोई केवाईसी, आधार-पासपोर्ट छोड़िए नाम तक नहीं पूछा जाता। इस वजह से यही अंदाज किया जाता है कि यह निवेश उसी धन का है जो अंडरइन्वोइसिंग / ओवरइन्वोइसिंग आदि के जरिये देश से बाहर ले जाया जाता है और फिर विदेशी निवेश बनकर वापस आ जाता है।

अब 4 लाख करोड़ के और कर्ज एनपीए होने की ओर हैं और इन्हें चुनाव तक किसी तरह खींचना है क्योंकि एनपीए का बढ़ता संकट पूरी बैंकिंग और आर्थिक व्यवस्था में संकट को ओर गहरा करेगा जिसका बोझ हमेशा की तरह मेहनतकश जनता पर ही डाला जाना है। आईएलएफ़एस के अतिरिक्त इनमें ढाई लाख करोड़ तो सिर्फ विद्युत उत्पादन क्षेत्र का है। पूंजीवाद के अतिउत्पादन के संकट की वजह से उद्योग पहले ही 70-72% क्षमता पर काम कर रहे हैं इससे बिजली की मांग अनुमान के मुक़ाबले कम है, िजली बिक नहीं पा रही है (निर्यात के बावजूद भी फालतू है), इसलिए लगभग 40 संयंत्र संकट में हैं। रिजर्व बैंक के 12 फरवरी के सर्कुलर के मुताबिक बैंकों को अब तक इनके खिलाफ दिवालिया होने की कार्रवाई शुरू करनी थी, पर उसके बाद इन कर्जों को एनपीए दिखाना पड़ता जो अभी तक नहीं किया गया है। पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट से इसको रुकवाने का प्रयास हुआ, जो असफल रहा। पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बिना कारण बताए एक 3 पंक्ति के आदेश से इसे रोक दिया है।
 
लेकिन यहाँ इस सवाल का जवाब देना जरूरी है कि अगर अर्थव्यवस्था में संकट है तो समस्त पूंजी बाजार इतनी ऊँचाइयाँ क्यों छु रहे थे और अब संकट क्यों शुरू हुआ। असल में इस ऊंचाई का कारण ही आर्थिक संकट से पूंजी बाज़ारों में पैदा सट्टेबाजी है। जैसा मार्क्स ने बताया था कि अचल पूंजी में निवेश के बढ़ते जाने से एक समय बाद प्रति इकाई पूंजी पर लाभ की दर नीचे जाने लगती है। भारत में ऐसा होता देखा जा सकता है। हाल के वक्त में ही देखें तो पिछले दस साल में इसमें गिरावट आई है। जून 2016 से दो साल में ही सेंसेक्स की 30 कंपनियों का कर पश्चात मुनाफा 7.3% कम हुआ है। निफ्टी की 50 कंपनियों के लिए यह गिरावट 3.3% है। पर शेयर बाजार रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। अगर हम प्रति शेयर आय के मुक़ाबले दाम का अनुपात देखें - सेंसेक्स की 30 कंपनियों का आय/दाम अनुपात शेयर बाजार में गिरावट के वक्त सितंबर 2012 में 17.5 था अर्थात प्रति शेयर आय 10 रू हो तो शेयर का दाम 175 रू था। इसका मतलब है कि प्रति शेयर आय 6% से थोड़ी कम थी। मगर शेयर बाजार की ताजा गिरावट के पहले यह अनुपात 25 तक पहुँच गया अर्थात 10 रू आय वाले शेयर का दाम 250 रू है अर्थात इससे प्राप्त आय इसके मूल्य का 4% ही रह गई है। ये स्थिति सबसे बड़ी कंपनियों की है, छोटी कंपनियाँ देखें तो हाल और भी बुरा है - निफ्टी की 500 कंपनियों के लिए ये अनुपात 30 है और सेंसेक्स/निफ्टी पर खरीदे/बेचे जाने वाले 2400 कंपनियों के लिए ये अनुपात 48.7% है अर्थात प्रति शेयर आय मात्र 2% है। जहां तक कंपनी के प्रोमोटर पूंजीपति और उनके करीबी या पृष्ठपोषक वित्तीय पूँजीपतियों का सवाल है उन्हें अधिकांशतः शेयर अंकित मूल्य पर (10 रू वाला 10 रू में) या कुछ प्रीमियम पर मिले होते हैं, इसलिए उनके लिए आय व लाभांश का अनुपात भिन्न है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें कई फायदे होते हैं - करोड़ों में वेतन, खर्च सब कंपनी के खाते में, कंपनी पर नियंत्रण है तो चोरी का मौका (कंपनी की संपत्ति को निजी में परिवर्तित कर लेना), आदि। शेयर के दाम बढ़ना उनके लिए मात्र एक अतिरिक्त लाभ है। पर शेयर बाजार में शेयर खरीदने वाले को तो पूरा 2-4% लाभ भी नहीं मिलता - इसका बड़ा हिस्सा तो कंपनी के रिजर्व में चला जाता है और लाभांश या डिविडेंड बहुत कम होता है - औसत शायद 1-2% या उससे भी नीचे।
 
कुछ दशक पहले तक शेयर में निवेश अर्थात कंपनी की पूंजी के एक हिस्से का मालिक बनने में निवेश करने का कारण यह था कि पूंजी पर मिलने वाला औसत लाभ हासिल हो। क्योंकि यही निवेश अगर बैंक के जरिये किया जाता तो इस औसत लाभ में से एक हिस्सा बिचौलिया बैंक रख लेता था, और पूंजी मालिक को मिलने वाला लाभ अर्थात जमाराशि पर ब्याज सीधे कंपनी के शेयर में निवेश करने पर मिलने वाले लाभ से कम होता था। इसलिए जो कंपनी अधिक लाभांश देती थी उसके शेयर के दाम अधिक हो जाते थे और सब पूंजी निवेशकों को एक औसत दर पर लाभ हासिल होता था।
 
मगर अब उल्टा है - बैंक में बचत खाते में रखने पर ही 3.5% ब्याज मिलता है, एफड़ी में तो 6-7%। फिर भी लोग शेयर बाजार में पैसा क्यों लगाते हैं? मेहनतकश वर्ग की श्रम शक्ति खुद को मिलने वाले मूल्य अर्थात अर्जित की गई मजदूरी से फाजिल जो उत्पादन करती है वह पूँजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता है। यह लूटा गया फाजिल उत्पादन या अधिशेष ही पूंजी बन जाता है। लंबे वक्त तक इस पूंजीवादी शोषण के चलते पूंजीपति वर्ग और उसके ख़िदमतगार प्रबंधक उच्च मध्य वर्ग के पास बड़ी भारी मात्रा में पूंजी एकत्र हो गई है। पर पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के चलते अब इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी के लाभप्रद निवेश के विकल्प कम ही बचे हैं। इसलिए यह पूंजी शेयर बाजार व कई अन्य किस्म की सट्टेबाजी (कोमोडिटी, मुद्रा बाजार व उनके वायदा, ऑप्शन, फ्युचर, स्वैप जैसे डेरिवेटिव) में लग रही है। शेयर बाजार अब उद्योग-व्यापार से होने वाले औसत लाभ को पूंजी निवेशकों में वितरण का माध्यम नहीं रहा, बल्कि खुद मांग-पूर्ति के आधार पर शेयर के दामों में उतार-चढ़ाव का व्यापार से लाभ कमाना ही लक्ष्य बन गया है। पहले बड़ी पूंजी वाले वित्तीय निवेशक और दलाल चक्रीय व्यापार से शेयरों के दाम बढ़ाना शुरू करते हैं। इसके आधार पर इनके ही कर्मचारी विश्लेषक और कारोबारी मीडिया इसकी चर्चा कर माहौल तैयार करते हैं, जिससे निवेशक आकृष्ट होते हैं, जिससे मांग बढने से दाम बढ़ते हैं, उससे और माहौल बनता है, और निवेशक आकर्षित होते हैं, और मांग से और दाम बढ़ते हैं। इस तरह दाम बढ़ते जाते हैं और अपने मालिकाने के शेयर के बढ़ते दामों पर हिसाब लगाने से सबको संपन्नता भी बढ़ती नजर आती है। अभी तो जमीन/मकान वाला बाजार भी ढह गया है इसलिए उधर जाने वाला पैसा भी इधर ही आ रहा है। इसके चलते ऐसी स्थिति आ जाती है कि निवेशकों को सूद पर ऋण लेकर शेयर बाजार में लगाने में भी लाभ नजर आने लगता है। कुछ दिन से यह स्थिति तैयार हो रही थी, बैंक व एनबीएफ़सी के फुटकर ऋण में कॉर्पोरेट ऋण के मुक़ाबले तेजी से इजाफा हो रहा था। यही एक दिन कहीं न कहीं किसी न किसी को भुगतान के संकट में पहुंचा देता है और एक जगह भुगतान का संकट पैदा होते ही नीचे की एक ईंट निकालने से इमारत के ढहने की तरह पूरी पोंजी स्कीम ही ढहने लगती है। तब उसकी नींव से कोई हर्षद मेहता, केतन परीख, आदि 'स्कैम' निकलता है। शेयर बाजार की पिछले दिनों की छलांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मजबूती का नहीं, उस पर छाए संकट का नतीजा थी, और उसी संकट से गिरावट का दौर भी आना अनिवार्य है। पर जब भी यह दौर आता है तो उसका बोझ आखिर मेहनतकश जनता पर ही डाला जाता है। वही काम अब फिर से शुरू हो गया है।

25-09-2018