मुझे अपूर्वानंद से गहरी हमदर्दी है क्योंकि लेनिन के नाम से उनको लगने वाला डर भयानक पर सच्चा एवं वास्तविक है। उनका यह डर हर रंगे सियार लिबरल के मन के एक कोने में छिपा वह डरावना स्वप्न है जिसके अब वास्तविकता में बदल जाने की आशंका से वह थर-थर काँप रहा है। उनके ही शब्दों में यह डर है सर्वहारा द्वारा अपने 'वर्ग शत्रुओं' को दिया जाने वाला त्वरित दंड। उनकी नजर में अपने वर्ग शत्रुओं को ऐसा दंड देकर सर्वहारा वर्ग पशुवत कठोर कातिल बन जाता है।
पर बहुत दिनों से मृततुल्य बताये जा रहे वामपंथी आंदोलन से अपूर्वानंद को अचानक इतना डर क्यों? उनका यह डर पैदा हुआ है मोदी सरकार द्वारा कोरोना से निपटने के नाम पर की गई तालाबंदी के खिलाफ फूट पड़े मजदूरों के भारी गुस्से और विद्रोह - असंगठित, अचेतन, बिखराव भरा, हताशा जनित ही सही पर फिर भी फासिस्ट सत्ता के पुलिसिया डंडे और बूटों के खिलाफ एक विशाल संख्या में विद्रोह और उस बिखरे विद्रोह और भयानक कष्टों के बीच में भी दिखाई दे रही दुनिया का निर्माण करने वाले मजदूर वर्ग की असीम ऊर्जा व दृढ़ इच्छाशक्ति से।
एक रंगे सियार लिबरल की पूरी धूर्तता से मेहनतकश अवाम पर फासिस्ट हुकूमत द्वारा ढाये जा रहे इस जुल्म की तुलना अपूर्वानंद संघी फासिस्टों के सुविज्ञात वैचारिक-सांगठनिक पुरखों हिटलर-मुसोलिनी के अत्याचारों से नहीं, लेनिन के नेतृत्व में रूस में मजदूर वर्ग द्वारा की गई ऐतिहासिक नवंबर क्रांति से करते हैं। यही दिखा देता है कि एक 'सच्चे लिबरल' होने के नाते अपूर्वानंद अच्छी तरह जानते हैं कि उनके असली रिश्ते-नातेदार कौन हैं और वास्तविक दुश्मन कौन। उनका डर है कि जिस दिन उन्हें सारे सियारों की हुआं-हुआं की पुकार पर अपना चढ़ाया हुआ नकली रंग उतारकर अपने असली रूप मे आना पड़ा तो सब पायेंगे कि वे हिटलर-मुसोलिनी-मोदी-भागवत के कुनबे वाले ही हैं, जिनके असली, सबसे बड़े दुश्मन मजदूर वर्ग की राजनीति करने वाले वामपंथी हैं।
ऐसे रंगे सियार लिबरल अब तक हमें ही नहीं खुद को भी समझा रहे थे कि पिछले दशकों के तकनीकी विकास और उत्पादन प्रक्रिया के नवोन्मेष ने एक वर्ग के तौर पर सर्वहारा को तितर-बितर व समाप्त कर दिया है, वह अब 'आंत्रप्रेन्योर' बनकर प्रगति में पूँजीपति वर्ग का हिस्सेदार हो गया है; मजदूर वर्ग के जुझारू आंदोलनों का समय समाप्त हो गया, तीव्र वर्ग संघर्षों का डर अब नहीं रहा, क्रांतिकारी वामपंथ अब नहीं रहा। ऐसे भ्रम के माहौल में रंगे सियार लिबरलों के लिए मुमकिन हो गया था कि वे अपने असली रंग-रूप, किरदार को छिपा लें, जनवादी समाजवाद-अस्मितावाद-नारीवाद-सामाजिक न्याय-यौनिक स्वतंत्रता वगैरह वगैरह के तमाम उत्तरआधुनिकतावादी ढोंगों के नाम का फर्जी रंग चढ़ा खुद को मजलूम अवाम का एनजीओवादी प्रगतिशील हितैषी होने का दिखावा करें, और इसके बदले में तमाम देशी-विदेशी पूँजीपतियों-सरकारों के ट्रस्टों-फाउंडेशनों, कॉर्पसों से बड़ी-बड़ी ग्रांट और अकादमियों, थिंकटैंकों, विश्वविद्यालयों, आयोगों-समितियों में पद-पुरस्कार, घोडा-गाड़ी पायें।
क्योंकि मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी चेतना के भोथरा होने से पैदा विभ्रम के इस दौर में पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच स्पष्ट वर्ग अवस्थिति लिए बगैर रहा जा सकता था, मजदूर वर्ग का 'हितैषी' होने का ढोंग करते हुये उन्हें मौजूदा 'जनतंत्र' में ही सुधारों और कुछ रूपल्ली की भीख मांगने तक सीमित रहने के लिए जाल में फंसाया जा सकता था, अतः ऐसे रंगे सियार लिबरल पूँजीपति वर्ग के लिए सेवक की हैसियत रखते और अपनी वाजिब कीमत पाते थे। इसी नाते इन अभिजात वर्गीय जनवाद प्रेमी लिबरल रंगे सियारों को भारत के पूँजीपति वर्ग की गुजारिश पर लागू किए नेहरूवादी 'समाजवाद' से गहरी मुहब्बत थी और उसके साथ पूंजीवादी राजसत्ता द्वारा तेलंगाना-तिभागा-नक्सलबाड़ी से उत्तर पूर्व, असम, पंजाब, कश्मीर, आदि में किए गए जुल्मों, अपने ही देश के नागरिकों पर सैनिक दमन, एयर फोर्स तक से कराई गई बमबारी, यातना शिविरों, अहमदाबाद-मुरादाबाद, मेरठ मलियाना हाशिमपुरा, दिल्ली, नेल्ली के सांप्रदायिक जनसंहारों, कितने सारे जातिगत सामूहिक हत्याकांडों और पूंजीवादी 'सुधारों' के जरिये करोड़ों मेहनतकश लोगों की लूट, भूख, कंगाली, कुपोषण, बीमारी से करोड़ो मौतों, आदि में कभी भी कुछ भी गैरजनवादी नजर नहीं आया।
यहीं यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि लिबरल का अर्थ बहुत सारे लोग उदार हृदय व्यक्ति से लेते हैं किंतु यह शब्द वास्तव में उदारता की भावना से जुड़ा हुआ है ही नहीं, बल्कि इसका वास्तविक अर्थ है मुक्त पूंजीवादी बाजार में 'समान अधिकार' वाले पूँजीपति और सारी संपत्ति विहीन जीविका के लिए अपनी श्रम शक्ति बेचने को मजबूर सर्वहारा के बीच बराबरी के आधार पर संविदा की स्वतंत्रता (लिबर्टी) को सर्वोपरि मानने वाली व्यवस्था का समर्थक व्यक्ति। पर हम समझ सकते हैं कि इन दोनों के बीच कैसी समानता संभव है। अतः लिबरल मूलतः पूंजीवादी शोषण पर किसी प्रकार की भी रोक-रुकावट का विरोधी होता है।
पिछले दो दशकों में वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट जिस तेजी से गहराया है उससे पूँजीपति वर्ग अब मजदूरों की श्रमशक्ति से पहले जितना सरप्लस नहीं निचोड़ पा रहा है। नतीजतन मुनाफे की दर नीचे जा रही है जिससे पूंजीपति वर्ग जनवाद के इस विभ्रम को ज्यादा दूर तक चला पाने में सक्षम नहीं रहा है। अतः वह भारत सहित दुनिया भर में जनवाद की नौटंकी पर पर्दा गिरा, अधिकाधिक नग्न फासीवादी-अधिनायकवादी दमन का रास्ता अख़्तियार कर रहा है। कोरोना वाइरस से जो संकट पैदा हुआ है उससे यह प्रवृत्तियाँ और भी तेज हुई हैं। ऐसे में मजदूर वर्ग के समक्ष भी यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जाएगा कि जनवाद और सुधार की बातें पूरी तरह खोखली हैं और उसे क्रांतिकारी वर्ग चेतना से लैस व संगठित होकर अपने संघर्षों को तेज करना होगा। ऐसे में एक ओर तो पूँजीपति वर्ग के पास इन रंगे सियारों को पाले रखने की क्षमता घट रही है दूसरी ओर उनकी उपयोगिता भी। अतः इनके सामने संकट खड़ा हो गया है कि आने वाले तीखे वर्ग संघर्षों में उन्हें 'तटस्थता' के बजाय एक वर्ग के पक्ष में अपनी अवस्थिति लेनी होगी और यह वर्ग शासक पूँजीपति वर्ग और उनके फासिस्ट गुर्गे ही होंगे। इन रंगे सियारों के भारी गुस्से की असली मूल वजह यही है।
पर यह गुस्सा लेनिन के ही खिलाफ क्यों? क्योंकि मार्क्स-एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग की शोषण मुक्ति के लिए वैज्ञानिक समाजवाद का जो सिद्धांत दिया, उसे अपूर्वानंद के प्रिय मार्तोव जैसे सुधारवादियों से मुक्त करते हुये उसके आधार पर मजदूर वर्ग की क्रांति का सशक्त पैना औज़ार अर्थात एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण ही लेनिन ने नहीं किया बल्कि उस क्रांति को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हुये सारे रंगे सियार लिबरलों के सबसे बड़े दुश्मन भी बन गए। आज के युग में लेनिनवाद को जान-समझकर ही वास्तव में मार्क्सवादी बना जा सकता है, लेनिन को छोड़कर मार्क्सवाद की बात करना उसे क्रांतिकारी ऊर्जाविहीन कर देना है। इसीलिए लेनिन के खिलाफ उनका गुस्सा पूरे ज़ोर से फट पड़ा है। जहाँ तक रोजा लक्जेम्बर्ग की बात है उस महान क्रांतिकारी की हत्या अपूर्वानंद के ही वैचारिक पुरखों जर्मन सामाजिक-जनवादियों ने उस स्थिति में की थी जब मजदूर वर्ग के संघर्षों की तीव्रता के कारण उन्हें अपना असली रंग दिखाते हुये पूँजीपति वर्ग के समर्थन में खुल कर आना पड़ा था।
क्या हम कह रहे हैं कि गोर्की ने लेनिन की आलोचना की ही नहीं थी? नहीं, गोर्की ने लेनिन की आलोचना की थी, दोनों के बीच कई बार कटु आलोचना-प्रतिआलोचना, नाराजी का दौर चला था। पर गोर्की कभी मजदूर वर्ग क्रांति और सोवियत समाजवाद के शत्रु नहीं बने। जिस मुकदमे का जिक्र अपूर्वानंद ने किया है उस पर भी बाद में उन्होने अपनी राय बदली, और अंत में खुद स्टालिन व अन्य सोवियत नेताओं की गुजारिश पर वे सोवियत संघ लौटे और मृत्यु तक वहीं रहे और अपूर्वानंद अपने झूठ से कुछ भी इंगित करें वे सोवियत जनता के लिए अत्यंत सम्मानित रहे। और कुछ कहे बिना ही हम लेनिन की मृत्यु पर गोर्की द्वारा दी गई श्रद्धांजलि से एक अंश उद्धृत कर रहे हैं जो अपूर्वानंद द्वारा रचे-गढ़े गए चित्र के झूठ को साफ कर देता है।
"निकोलाई लेनिन, वो महान, असली इंसान, अब नहीं रहे। उनकी मृत्यु की खबर उन्हें जानने वालों के दिल में दर्द की छुरी जैसी है। किन्तु दुनिया के लिए उनकी मृत्यु की यह खबर उनकी अहमियत - मेहनतकश अवाम के नेता के तौर पर उनकी अहमियत - को और भी खास बना रही है। अगर उनके नाम पर फैलाये गये नफरत के बादल, झूठ और मिथ्यारोपों के बादल, और भी अधिक घने होते, तब भी ऐसी कोई ताकत न थी जो पागलपन से भरे इस विश्व में लेनिन द्वारा प्रज्वलित मशाल को बुझा सकती। आज तक उनसे बेहतर ऐसा कोई इंसान नहीं हुआ जिसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखा जाये। निकोलाई लेनिन अब नहीं रहे, किन्तु उनकी बुद्धिमत्ता तथा इच्छाशक्ति के वारिस अभी जीवित हैं। अंत में इंसान द्वारा निर्मित सच्चाई व ईमानदारी की जीत निश्चित है। लेनिन जैसे सच्चे इंसान को गढ़ने वाले गुणों के सामने हर चीज को झुकना ही होगा।"
No comments:
Post a Comment