आज
रिजर्व बैंक द्वारा इस वर्ष की अंतिम मौद्रिक नीति समीक्षा घोषणा में रेपो
रेट अर्थात केंद्रीय बैंक द्वारा व्यवसायिक बैंकों को दिये जाने वाले
अल्पकालीन ऋण की दर को कम नहीं करने से वित्तीय बाजारों को गहरा झटका लगा
है क्योंकि सभी बैंक व आर्थिक विश्लेषक इस ब्याज दर में 0.25% की कमी का
अनुमान लगाये बैठे थे।
इससे पहले रिजर्व बैंक लगातार 5 बार में इस दर में 6.5% से 5.15% अर्थात कुल 1.35% की कटौती कर चुका है। रिजर्व बैंक के आज के बयान से पता चलता है कि वह ब्याज दर घटाना चाहते हुए भी घटा नहीं पाया जबकि ऊर्जित पटेल को बाहर कर शक्तिकांत दास को अन्य के अतिरिक्त यह काम करने के लिये भी लाया गया था। किंतु अब दास की अध्यक्षता में इस सरकार द्वारा नामित मौद्रिक नीति समिति ने भी लगातार 5 बार ब्याज दर घटाने के बाद असमर्थता से हाथ खड़े करते पटेल वाली बात दोहरा दी कि सरकार ही पहले अपनी वित्तीय नीति को सँभाले! वास्तविकता तो यह है कि रिजर्व बैंक के घटाने से ब्याज दर वास्तव में घट भी नहीं पा रही है, मुद्रा बाजार में ब्याज दर तय होने के आर्थिक नियम का उल्लंघन कर सिर्फ घोषणा से घट भी नहीं सकती। पर उस पर बाद में आते हैं।
पर सबसे पहले सवाल यह कि कि वित्तीय बाजार की ओर से ब्याज दरों में कमी पर इतना जोर क्यों है? इसके लिए हमें ऋण व्यवस्था को समझना होगा। जिन पूँजीपतियों को उद्योग या व्यापार में निवेश करना होता है, वे उसके लिए उन पूँजीपतियों से ऋण लेते हैं जिनके पास किसी वजह से अतिरिक्त पूँजी है या उन से जिनके पास कुछ पूँजी है पर इतनी नहीं कि वे खुद औद्योगिक या व्यापारिक पूँजीपति बन सकें, उदाहरणार्थ मध्यम वर्ग के लोग या पेंशनर, आदि। बैंक इन सबसे पूँजी एकत्र कर निवेशक पूँजीपतियों को ऋण देते हैं। इसके बदले ये पूँजीपति इस पूँजी निवेश से हुए कुल लाभ का एक अंश बैंक को ब्याज के रूप में देते हैं जिसमें से एक हिस्सा अपने लाभ के लिए रख शेष को बैंक मूल बचत करने वाले को ब्याज के रूप में देते हैं।
किंतु 2007-08 से जारी आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप औद्योगिक पूँजीपतियों की मुनाफा दर गिरी है, जबकि उन्होंने ऋण लेकर बड़े पैमाने पर स्थायी पूँजी में निवेश किया था। प्रति इकाई पूँजी पर लाभ दर में हुई इस गिरावट के कारण औद्योगिक पूँजीपति ऊँची ब्याज दरों पर लिये गये ऋणों का ब्याज चुका पाने में असमर्थ हैं और बैंकिंग प्रणाली में डूबे ऋणों का भारी संकट कई वर्षों से मौजूद है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिए औद्योगिक पूँजीपतियों ने विशाल मात्रा में ऋण लेकर स्थाई पूँजी में खूब निवेश किया था। यही वजह है कि पिछले कई वर्षों से पूरा पूँजीपति वर्ग सरकार पर ब्याज दरों में कमी के लिए भारी दबाव बनाये हुए हैं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि सिर्फ रिजर्व बैंक की घोषणा से ब्याज दरें घट नहीं सकतीं क्योंकि मुद्रा भी एक माल है और उसको उपयोग के लिए दूसरे को दिये जाने के लिए माँगा जाने वाला बाजार दाम अर्थात ब्याज की दर भी माल की माँग और पूर्ति की दर से तय होती है। हालांकि यह सच है कि रिजर्व बैंक ने बाजार में नकदी तरलता बढाने के लिए भी बहुत प्रयास किये हैं तथा कई महीने से अंतर्बैंक मुद्रा बाजार में दो लाख करोड़ रुपये इफरात मौजूद हैं। पर सच्चाई यह भी है कि यह तरलता सिर्फ तात्कालिक नकदी आवश्यकता को ही पूरा कर सकती है। बैंक इसके आधार पर मध्यम या दीर्घकालिक ऋण नहीं दे सकते। ऐसा कर वह पहले ही अपने हाथ जला चुके हैं।
किंतु पूँजी की आपूर्ति करने वाले एक मुख्य स्रोत परिवारों पर भी गिरती या ठहरी आय और बढते खर्चों की वजह से भारी दबाव है और उनकी बचत क्षमता तेजी से गिरी है। सरकार ने जन-धन खातों और नकद के बजाय डिजीटल लेनदेन को बढावा देकर परिवारों के पास मौजूद हर रुपये को बैंकों में लाने का प्रयास किया है किंतु उससे भी हालात में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है। दूसरी ओर बढते आर्थिक संकट और पूँजीपति वर्ग को दी गई भारी रियायतों के कारण सरकार का राजस्व गिरा है और राज्यों व सार्वजनिक क्षेत्र सहित उसके बजट घाटे में भारी वृद्धि होकर वह कुछ अनुमानों के अनुसार लगभग 10% पर पहुँच गया है।
इसलिये स्वयं सरकार की ऋण आवश्यकता बहुत अधिक है, यहाँ तक कि उसने विदेशों में संप्रभु बॉंड जारी करने का प्रस्ताव भी किया था। परिवारों द्वारा की जाने वाली कुल बचत वर्तमान में सरकार की जरूरत को पूरा करने में भी असमर्थ है। इसीलिये सरकार बैंकों की माँग के बावजूद लघु जमा योजनाओं पर ब्याज दर में कटौती से हिचक रही है और परिणामस्वरूप बैंकों को भी जमा राशि पर ब्याज ज्यादा घटाने पर जमा राशि बढाने में दिक्कत हो रही है। एक और कारण यह है कि पिछले ऋणों के डूबने से बैंकों को जो हानि होती है उसकी भरपाई के लिए भी उन्हें नये ऋणों पर ब्याज दरों को ऊँचा रखना पडता है।
नतीजा यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा रिपो रेट में कटौती के बावजूद अल्पकालिक नकदी आवश्यकता को छोड़कर ब्याज दर में गिरावट दर्ज नहीं की गई है और बैंकों द्वारा दिये गए ऋणों पर औसत ब्याज दर में मामूली वृद्धि ही हुई है। खुद सरकार की हालत यह है कि उसे 10 वर्षीय ऋणपत्र पर सकल घरेलू उत्पाद में आंकिक वृद्धि दर से भी ऊपर ब्याज दर पर कर्ज लेना पड रहा है। साथ ही एक समस्या यह भी है कि पेट्रोलियम पदार्थों, खाद्य सामग्री व टेलीकॉम दरों आदि में वृद्धि से महँगाई दर भी बढकर 5% के पास पहुंच चुकी है तथा अल्पकालिक ब्याज दरों को घटाने से आढतियों द्वारा माल रोककर कीमतें बढाने की प्रवृत्ति को और भी बल मिलेगा तथा महँगाई नियंत्रण के बाहर हो सकती है। इस वजह से भी मौद्रिक नीति समिति ने इस बार ब्याज दरों में कटौती नहीं की है, हालांकि उसने स्थिति अनुकूल होने पर फिर से ब्याज दर कम करने का संकेत भी दिया है।
ब्याज दर कटौती के बजाय मौद्रिक नीति समिति ने सरकार को संकट से निपटने के लिए वित्तीय कदम उठाने का संकेत दिया है।.पर जैसा हम ऊपर ही कह चुके हैं खुद सरकार की वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि वह खर्च बढाने, पूँजी निवेश करने या कर रियायतें देने के लिए कोई बहुत बडे कदम उठा सके। असल बात यह है कि यह आर्थिक संकट ब्याज दर और ऋण के क्षेत्र में प्रकट होता दिखाई तो जरूर दे रहा है पर यह वहाँ से पैदा नहीं हुआ है। आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तेजी से बढती स्थायी पूँजी अर्थात मशीनों, तकनीक, इमारतों, कच्चा/सहायक माल और उसकी तुलना में घटती परिवर्तनशील पूँजी अर्थात श्रम शक्ति पर लगी पूँजी के कारण गिरती मुनाफा दर से पैदा हुआ है क्योंकि स्थाई पूँजी में जितनी भारी वृद्धि हुई है बिक्री उसके मुकाबले बहुत कम बढी है।
क्योंकि संकट उत्पादन के क्षेत्र में पैदा हुआ है अतः ब्याज दरों में हेरफेर से यह हल भी नहीं हो सकता। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था में तो इसका कोई स्थाई समाधान बचा ही नहीं है, मात्र पूँजी के एक हिस्से का विनाश अर्थात कुछ पूँजीपतियों का दिवालिया होना ही इस दौर में दिवालिया होने से बचे रहने वाले पूँजीपतियों को तात्कालिक तौर पर कुछ राहत दे सकता है, अगले संकट का इंतजार करने के लिए। इससे अधिक कुछ नहीं।
https://hindi.newsclick.in/helpless-monetary-policy-of-the-Reserve-Bank
05/12/2019
इससे पहले रिजर्व बैंक लगातार 5 बार में इस दर में 6.5% से 5.15% अर्थात कुल 1.35% की कटौती कर चुका है। रिजर्व बैंक के आज के बयान से पता चलता है कि वह ब्याज दर घटाना चाहते हुए भी घटा नहीं पाया जबकि ऊर्जित पटेल को बाहर कर शक्तिकांत दास को अन्य के अतिरिक्त यह काम करने के लिये भी लाया गया था। किंतु अब दास की अध्यक्षता में इस सरकार द्वारा नामित मौद्रिक नीति समिति ने भी लगातार 5 बार ब्याज दर घटाने के बाद असमर्थता से हाथ खड़े करते पटेल वाली बात दोहरा दी कि सरकार ही पहले अपनी वित्तीय नीति को सँभाले! वास्तविकता तो यह है कि रिजर्व बैंक के घटाने से ब्याज दर वास्तव में घट भी नहीं पा रही है, मुद्रा बाजार में ब्याज दर तय होने के आर्थिक नियम का उल्लंघन कर सिर्फ घोषणा से घट भी नहीं सकती। पर उस पर बाद में आते हैं।
पर सबसे पहले सवाल यह कि कि वित्तीय बाजार की ओर से ब्याज दरों में कमी पर इतना जोर क्यों है? इसके लिए हमें ऋण व्यवस्था को समझना होगा। जिन पूँजीपतियों को उद्योग या व्यापार में निवेश करना होता है, वे उसके लिए उन पूँजीपतियों से ऋण लेते हैं जिनके पास किसी वजह से अतिरिक्त पूँजी है या उन से जिनके पास कुछ पूँजी है पर इतनी नहीं कि वे खुद औद्योगिक या व्यापारिक पूँजीपति बन सकें, उदाहरणार्थ मध्यम वर्ग के लोग या पेंशनर, आदि। बैंक इन सबसे पूँजी एकत्र कर निवेशक पूँजीपतियों को ऋण देते हैं। इसके बदले ये पूँजीपति इस पूँजी निवेश से हुए कुल लाभ का एक अंश बैंक को ब्याज के रूप में देते हैं जिसमें से एक हिस्सा अपने लाभ के लिए रख शेष को बैंक मूल बचत करने वाले को ब्याज के रूप में देते हैं।
किंतु 2007-08 से जारी आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप औद्योगिक पूँजीपतियों की मुनाफा दर गिरी है, जबकि उन्होंने ऋण लेकर बड़े पैमाने पर स्थायी पूँजी में निवेश किया था। प्रति इकाई पूँजी पर लाभ दर में हुई इस गिरावट के कारण औद्योगिक पूँजीपति ऊँची ब्याज दरों पर लिये गये ऋणों का ब्याज चुका पाने में असमर्थ हैं और बैंकिंग प्रणाली में डूबे ऋणों का भारी संकट कई वर्षों से मौजूद है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिए औद्योगिक पूँजीपतियों ने विशाल मात्रा में ऋण लेकर स्थाई पूँजी में खूब निवेश किया था। यही वजह है कि पिछले कई वर्षों से पूरा पूँजीपति वर्ग सरकार पर ब्याज दरों में कमी के लिए भारी दबाव बनाये हुए हैं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि सिर्फ रिजर्व बैंक की घोषणा से ब्याज दरें घट नहीं सकतीं क्योंकि मुद्रा भी एक माल है और उसको उपयोग के लिए दूसरे को दिये जाने के लिए माँगा जाने वाला बाजार दाम अर्थात ब्याज की दर भी माल की माँग और पूर्ति की दर से तय होती है। हालांकि यह सच है कि रिजर्व बैंक ने बाजार में नकदी तरलता बढाने के लिए भी बहुत प्रयास किये हैं तथा कई महीने से अंतर्बैंक मुद्रा बाजार में दो लाख करोड़ रुपये इफरात मौजूद हैं। पर सच्चाई यह भी है कि यह तरलता सिर्फ तात्कालिक नकदी आवश्यकता को ही पूरा कर सकती है। बैंक इसके आधार पर मध्यम या दीर्घकालिक ऋण नहीं दे सकते। ऐसा कर वह पहले ही अपने हाथ जला चुके हैं।
किंतु पूँजी की आपूर्ति करने वाले एक मुख्य स्रोत परिवारों पर भी गिरती या ठहरी आय और बढते खर्चों की वजह से भारी दबाव है और उनकी बचत क्षमता तेजी से गिरी है। सरकार ने जन-धन खातों और नकद के बजाय डिजीटल लेनदेन को बढावा देकर परिवारों के पास मौजूद हर रुपये को बैंकों में लाने का प्रयास किया है किंतु उससे भी हालात में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है। दूसरी ओर बढते आर्थिक संकट और पूँजीपति वर्ग को दी गई भारी रियायतों के कारण सरकार का राजस्व गिरा है और राज्यों व सार्वजनिक क्षेत्र सहित उसके बजट घाटे में भारी वृद्धि होकर वह कुछ अनुमानों के अनुसार लगभग 10% पर पहुँच गया है।
इसलिये स्वयं सरकार की ऋण आवश्यकता बहुत अधिक है, यहाँ तक कि उसने विदेशों में संप्रभु बॉंड जारी करने का प्रस्ताव भी किया था। परिवारों द्वारा की जाने वाली कुल बचत वर्तमान में सरकार की जरूरत को पूरा करने में भी असमर्थ है। इसीलिये सरकार बैंकों की माँग के बावजूद लघु जमा योजनाओं पर ब्याज दर में कटौती से हिचक रही है और परिणामस्वरूप बैंकों को भी जमा राशि पर ब्याज ज्यादा घटाने पर जमा राशि बढाने में दिक्कत हो रही है। एक और कारण यह है कि पिछले ऋणों के डूबने से बैंकों को जो हानि होती है उसकी भरपाई के लिए भी उन्हें नये ऋणों पर ब्याज दरों को ऊँचा रखना पडता है।
नतीजा यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा रिपो रेट में कटौती के बावजूद अल्पकालिक नकदी आवश्यकता को छोड़कर ब्याज दर में गिरावट दर्ज नहीं की गई है और बैंकों द्वारा दिये गए ऋणों पर औसत ब्याज दर में मामूली वृद्धि ही हुई है। खुद सरकार की हालत यह है कि उसे 10 वर्षीय ऋणपत्र पर सकल घरेलू उत्पाद में आंकिक वृद्धि दर से भी ऊपर ब्याज दर पर कर्ज लेना पड रहा है। साथ ही एक समस्या यह भी है कि पेट्रोलियम पदार्थों, खाद्य सामग्री व टेलीकॉम दरों आदि में वृद्धि से महँगाई दर भी बढकर 5% के पास पहुंच चुकी है तथा अल्पकालिक ब्याज दरों को घटाने से आढतियों द्वारा माल रोककर कीमतें बढाने की प्रवृत्ति को और भी बल मिलेगा तथा महँगाई नियंत्रण के बाहर हो सकती है। इस वजह से भी मौद्रिक नीति समिति ने इस बार ब्याज दरों में कटौती नहीं की है, हालांकि उसने स्थिति अनुकूल होने पर फिर से ब्याज दर कम करने का संकेत भी दिया है।
ब्याज दर कटौती के बजाय मौद्रिक नीति समिति ने सरकार को संकट से निपटने के लिए वित्तीय कदम उठाने का संकेत दिया है।.पर जैसा हम ऊपर ही कह चुके हैं खुद सरकार की वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि वह खर्च बढाने, पूँजी निवेश करने या कर रियायतें देने के लिए कोई बहुत बडे कदम उठा सके। असल बात यह है कि यह आर्थिक संकट ब्याज दर और ऋण के क्षेत्र में प्रकट होता दिखाई तो जरूर दे रहा है पर यह वहाँ से पैदा नहीं हुआ है। आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में तेजी से बढती स्थायी पूँजी अर्थात मशीनों, तकनीक, इमारतों, कच्चा/सहायक माल और उसकी तुलना में घटती परिवर्तनशील पूँजी अर्थात श्रम शक्ति पर लगी पूँजी के कारण गिरती मुनाफा दर से पैदा हुआ है क्योंकि स्थाई पूँजी में जितनी भारी वृद्धि हुई है बिक्री उसके मुकाबले बहुत कम बढी है।
क्योंकि संकट उत्पादन के क्षेत्र में पैदा हुआ है अतः ब्याज दरों में हेरफेर से यह हल भी नहीं हो सकता। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था में तो इसका कोई स्थाई समाधान बचा ही नहीं है, मात्र पूँजी के एक हिस्से का विनाश अर्थात कुछ पूँजीपतियों का दिवालिया होना ही इस दौर में दिवालिया होने से बचे रहने वाले पूँजीपतियों को तात्कालिक तौर पर कुछ राहत दे सकता है, अगले संकट का इंतजार करने के लिए। इससे अधिक कुछ नहीं।
https://hindi.newsclick.in/helpless-monetary-policy-of-the-Reserve-Bank
05/12/2019
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