हाल के दिनों में एक और तो अर्थव्यवस्था में संकट –
माँग, उत्पादन, बिक्री व मुनाफा दर में गिरावट
- की खबरें आ रही हैं, दूसरी ओर शेयर बाजार के सूचकांक
निरंतर नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। दोनों का यह विपरीत लगने वाला व्यवहार अधिकांश
लोगों के लिए मुश्किल, अनसुलझी पहेली बना हुआ है। इस परिघटना
को समझने के लिए इसके कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। फिर बीच बीच में कुछ
अजीब खबरें भी आती रहती हैं। जैसे, एयरटेल को लगभग 25 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ, लेकिन उसके बाद उसके शेयर के
दाम गिरने के बजाय उछल गये या बंद हो चुकी जेट एयरवेज़ के शेयर पिछले दिनों अचानक
बढ़ने लगे। इसी तरह भारी घाटे से दिवालिया होने की स्थिति से जूझ रही अनिल अंबानी
की कंपनी रिलायंस इंफोकोम के शेयर कुछ दिन पहले तीन गुना तक चढ़ गये। हालाँकि आम
तौर पर सब जानते हैं कि ऐसे मामलों में सट्टेबाजी की मुख्य भूमिका है पर सट्टेबाजी
के पीछे भी कुछ आर्थिक कारण काम करते हैं जिन्हें समझना जरूरी है।
शेयर बाजार की हालिया तेजी के पीछे मुख्य तात्कालिक
कारण तो सरकार द्वारा पिछले महीनों में घोषित आर्थिक नीतियाँ हैं अर्थात बैंक ऋण
पर ब्याज दरों में कटौती, कॉर्पोरेट कर में छूट तथा
व्यवसायियों को अन्य कई किस्म की राहत। इन सब का असर है कि कंपनी मालिक या
शेयरधारक पूँजीपतियों के हाथ में बचे मुनाफे में वृद्धि। पूँजीपति अपने कारोबार
में जो कुल मुनाफा अर्जित करते हैं उसमें से ही बैंक ऋण पर ब्याज व सरकार को दिया
जाने वाला टैक्स चुकाते हैं। अगर इन दोनों को कम कर दिया जाये तो मुनाफा उतना ही
रहने या कम होने पर भी पूँजीपति मालिकों के पास बच जाने वाला मुनाफे का अंश बढ़
जाता है। अभी आर्थिक संकट की वजह से कम माँग, उत्पादन व
बिक्री के कारण कुल मुनाफा तो नहीं बढ़ रहा है पर उपरोक्त सरकारी कदमों की वजह से
पूँजीपतियों के हाथ में रहने वाला मुनाफे का अंश बढ़ जाने से न सिर्फ औद्योगिक
पूँजीपति वर्ग बल्कि कंपनियों में निवेश करने वाले वित्तीय पूँजीपति भी प्रसन्न
हैं। साथ ही उन्हें सरकार की ओर से उनके मुनाफे को बढ़ाने वाले ऐसे ही ओर कदमों की
भी आशा है। यह शेयर बाजार में उछाल की एक तात्कालिक वजह है।
किंतु इस परिघटना का मूल कारण समझने के लिये हमें और
गहराई में जाने की जरूरत है। पूंजीवाद का संकट जैसे-जैसे बढ़ रहा है, पूंजी निवेश
वास्तविक उपयोगिता मूल्य की वस्तुओं वाले मालों के उत्पादन में कम और वित्तीय
पूंजी के बाजारों - करेंसी, शेयर, जिंसों
के सट्टे - में लग रहा है; इनके सीधे दाम तो बहुत लोगों को
पता चलते हैं पर असली सट्टा तो उन ऑप्शन, हेज, फॉरवर्ड रेट एग्रीमेंट, स्वैप - डिफ़ॉल्ट, इंटरेस्ट रेट, करेंसी, आदि में
हो रहा है जिन्हें डेरीवेटिव कहा जाता है अर्थात असली व्यापार में क्या होगा,
दाम किधर जायेंगे, इस पर होने वाला सट्टा। एक
उदाहरण - आज पूरी दुनिया में करेंसी के जितने सौदे होते हैं (जैसे डॉलर-रूपया)
उनका सिर्फ 1% ही वास्तविक व्यापार या लेन-देन से जुड़ा है,
बाकी सब सट्टा बाजार से जुड़ा है। इस तरह बाजार के मांग-पूर्ति के
नियम से इनके दाम बढ़ते जाते हैं जैसे अभी ही देखिये हर तिमाही में रिजर्व बैंक
बताता है कि अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश कम हो रहा है पर शेयर बाजार उठ रहा है
क्योंकि असली मालों की मांग में सिकुड़न है, उद्योग 70%
क्षमता पर ही उत्पादन कर रहे हैं, वहां नए
निवेश की गुंजाईश नहीं बन रही, वित्तीय पूंजी सट्टा बाजार
में मुनाफा ढूंढ रही है, शेयरों के भाव ऊपर जा रहे हैं!
मार्क्स ने दिखाया था कि प्रत्येक पूंजीपति अधिकतम
मुनाफे और दूसरे पूंजीपतियों को प्रतिद्वंद्विता में पछाड़ने हेतु निरंतर नई तकनीक
और पूंजी में निवेश बढ़ाता है ताकि कम लागत पर अधिक से अधिक उत्पादन कर बाजार के ज्यादा
हिस्से पर काबिज हो सके। सब पूंजीपति यही करते हैं और उत्पादन बाजार मांग से अधिक
हो जाने से अति उत्पादन का संकट पैदा होता है जिसका समाधान कुछ पूंजीपतियों की
बरबादी और बचे हुओं के बढे बाजार हिस्से में होता है। अधिक पूंजी निवेश की इसी
जरुरत ने पहले व्यक्तिगत पूंजी से साझेदारी को जन्म दिया, पर साझेदार
मुनाफे और घाटे दोनों के लिए जिम्मेदार है अतः प्रबंध में भी हिस्सेदारी रखता है। इसलिए
इस की सीमा जल्दी ही आ गईं। इसके बाद आधुनिक संयुक्त पूंजी कंपनी का जन्म हुआ
जिसमें प्रत्येक शेयर धारक लाभांश में हिस्सा प्राप्त करता है लेकिन घाटा होने पर
अपने हिस्से या शेयर से ज्यादा का जिम्मेदार नहीं, इसलिए
प्रबंध में भी हिस्सेदार नहीं। इससे कम पूंजी लगाकर भी कंपनी प्रमोटर प्रबंध पर
एकाधिकार और मुनाफे में अधिक हिस्सा रख सकता है।
लेकिन शेयर धारक पूंजी डूबने के जोखिम के रहते भी निवेश
क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें अपनी पूंजी बैंक, सोने
या जमीन/मकान में लगाने से प्राप्त होने वाली आमदनी से अधिक दर पर लाभांश या
डिविडेंड मिलने की उम्मीद होती थी। वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवाद के पहले के दौर में,
मार्क्स के वक्त में, यही होता था - बहुत से
मध्यमवर्गीय, पेशेवर, व्यापारी,
आदि अपनी पूंजी बड़ी कंपनियों के शेयर में लगाकर साल दर साल अपेक्षित
आमदनी पाते रहते थे, उस वक्त शेयरों के दाम भी अपेक्षित
लाभांश की दर से तय होते थे। लेकिन वित्तीय पूंजीवाद के दौर में, अर्थात औद्योगिक और बैंक पूंजी के मिलन के बाद स्थिति बदल गई। आज जब कंपनी
बनती है तो 2 किस्म के निवेशक होते हैं - प्रमोटर और वित्तीय
निवेशक (बैंक, बीमा, तमाम किस्म फंड
जैसे वेंचर फंड, आदि) - इन्हें शेयर अलॉटमेंट पूंजी के हिस्से
के वास्तविक मूल्य (10 रु का शेयर 10 रु
में) या रियायती/डिस्काउंट दाम (10 रु का शेयर 8 या 9 रु में) पर होता है। वित्तीय निवेशक का मकसद
कंपनी के शेयरों के दाम बढ़ने पर मुनाफा कमा लेना होता है, इसलिए
लाभांश की घोषित दर का फायदा सिर्फ प्रमोटर को होता है। कारोबार के थोड़ा बढ़ते ही
इसके शेयर अन्य निवेशकों को बढे दामों पर बेचे जाने शुरू हो जाते हैं, बाजार में निर्गम निकालकर जिन्हें आईपीओ, एफपीओ,
आदि कहा जाता है। नतीजा यह कि इन निर्गमों में मूल्य प्रति शेयर
आमदनी का 15-20 गुना होता है अर्थात कंपनी को होने वाली कुल
आय ही शेयर मूल्य पर 5% है जबकि सारी आय भी लाभांश में नहीं
दी जाती, उसका एक बड़ा हिस्सा कंपनी के अन्य निवेश के लिए रखा
जाता है। फिर ये शेयर स्टॉक एक्सचेंज में और बढे मूल्य पर ख़रीदे-बेचे जाते हैं। आज
की स्थिति में सेंसेक्स-निफ़्टी के दाम प्रति शेयर आमदनी के 28-30 गुना हैं अर्थात अगर पूरा लाभ भी लाभांश के तौर पर मिले तो 3% अर्थात बैंक के बचत खाते बराबर। पर वास्तविक लाभांश तो बहुत अधिक लाभ
कमाने वाली कंपनियों में भी अक्सर शेयर मूल्य पर 1% से भी
नीचे है! कुछ छोटी कंपनियों के मामले में तो शेयर मूल्य प्रति शेयर आय के 100
गुना से ऊपर तक जा पहुंचे हैं। कहा जा सकता है कि शेयर बाजार और लाभांश
की दर में आज कोई संबंध नहीं है।
सवाल उठता है कि इतने कम लाभ के बावजूद भी शेयर बाजार
में निवेश किसलिए हो रहा है? वह इस उम्मीद में कि शेयर का मूल्य
बढ़ने से मुनाफा होगा! उस उम्मीद पर सटोरिया पूंजी की मांग शेयर मूल्य बढाती जाती
है, जब तक कि कोई कमजोर कड़ी टूटने से धड़ाम न हो! एक तरफ
वास्तविक माल उत्पादन में मुनाफे की गिरती दर है, तो दूसरी
ओर अधिकतम मुनाफे के पीछे भागती अधिक से अधिक वित्तीय पूंजी। वह फिर कहाँ जाये?
इस स्थिति में शेयर बाजार में शेयर अब कंपनी द्वारा उत्पादन पर कमाये
लाभ में हिस्सा पाने के लिए पूंजी निवेश न होकर खुद ही एक माल में परिवर्तित हो गए
हैं जिनके दाम बाजार में प्रचुर नकदी तरलता और मांग-पूर्ति के नियम से बढ़ते जाते
हैं। अर्थात पूंजीवाद का संकट ही शेयर बाजार के ऊपर चढ़ते जाने की वजह है।
2017 व 2018 के के दो साल में ही सेंसेक्स की 30 कंपनियों का कर
पश्चात मुनाफा 7.3%
कम हुआ है। निफ्टी की 50 कंपनियों के लिए यह गिरावट 3.3%
है। उसके बाद तो संकट और भी तेजी से बढ़ा है। पर शेयर बाजार
रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। अगर प्रति शेयर आय के मुक़ाबले दाम का अनुपात देखें - सेंसेक्स की 30 कंपनियों का आय/दाम अनुपात शेयर बाजार में गिरावट के वक्त सितंबर 2012 में 17.5 था अर्थात प्रति शेयर आय 10 रू हो तो शेयर का दाम 175 रू था। इसका
मतलब है कि प्रति शेयर आय 6% से थोड़ी कम थी। अब यह अनुपात 28 है अर्थात 10 रू आय वाले शेयर का दाम 280 रू है - आय 4% से भी कम ही रह
गई है अर्थात बैंक के बचत खाते के बराबर। यह स्थिति भी सबसे बड़ी कंपनियों की है, छोटी कंपनियों का हाल तो और बुरा है। जहां तक कंपनी के प्रोमोटर पूंजीपति और
उनके करीबी या पृष्ठपोषक वित्तीय पूँजीपतियों का सवाल है उन्हें अधिकांशतः शेयर अंकित मूल्य
पर (10 रू वाला 10 रू में) या कुछ प्रीमियम पर मिले होते हैं, इसलिए उनके लिए आय व लाभांश का अनुपात भिन्न है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें कई फायदे होते हैं - करोड़ों में वेतन, खर्च सब कंपनी के खाते में, कंपनी पर नियंत्रण है तो चोरी का मौका (कंपनी की संपत्ति को निजी में परिवर्तित कर लेना), आदि। शेयर के
दाम बढ़ना उनके लिए मात्र एक अतिरिक्त लाभ है। पर शेयर बाजार में शेयर खरीदने वाले को तो पूरा 2-4% लाभ भी नहीं मिलता - इसका बड़ा हिस्सा तो कंपनी के रिजर्व में चला जाता है और लाभांश या डिविडेंड बहुत कम होता है - औसत शायद 1-2%
या उससे भी नीचे।
कुछ दशक पहले तक शेयर में निवेश अर्थात कंपनी की पूंजी के एक हिस्से का मालिक बनने में निवेश करने का कारण यह था कि पूंजी पर मिलने वाला औसत लाभ हासिल हो। क्योंकि यही निवेश अगर बैंक के जरिये किया जाता तो इस औसत लाभ में से एक हिस्सा बिचौलिया बैंक रख लेता था, और पूंजी मालिक
को मिलने वाला लाभ अर्थात जमाराशि पर ब्याज सीधे कंपनी के शेयर में निवेश
करने पर मिलने वाले लाभ से कम होता था। इसलिए जो कंपनी अधिक लाभांश देती थी
उसके शेयर के दाम अधिक हो जाते थे और सब पूंजी निवेशकों को एक औसत दर पर
लाभ हासिल होता था। मगर अब उल्टा है - बैंक में बचत खाते में रखने पर ही 3.5% ब्याज मिलता है, एफड़ी में तो
लगभग 6%।
फिर भी लोग शेयर बाजार में पैसा
क्यों लगाते हैं? मेहनतकश वर्ग की श्रम शक्ति खुद को मिलने वाले मूल्य अर्थात अर्जित की गई मजदूरी से
फाजिल जो उत्पादन करती है वह पूँजीपतियों द्वारा हथिया लिया जाता है। यह लूटा गया
फाजिल उत्पादन या अधिशेष ही पूंजी है। लंबे वक्त तक इस पूंजीवादी शोषण के
चलते पूंजीपति वर्ग और उसके प्रबंधक उच्च मध्य वर्ग के पास बड़ी भारी मात्रा में पूंजी एकत्र हो गई है। पर पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के चलते अब इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी के लाभप्रद निवेश के विकल्प कम ही बचे हैं। इसलिए यह पूंजी शेयर बाजार व कई अन्य किस्म की सट्टेबाजी (जिंस, मुद्रा बाजार व उनके वायदा, ऑप्शन, फ्युचर, स्वैप जैसे डेरिवेटिव) में लग रही है। शेयर बाजार अब
उद्योग-व्यापार से होने वाले औसत लाभ को पूंजी निवेशकों में वितरण का माध्यम
नहीं रहा, बल्कि खुद मांग-पूर्ति के आधार पर शेयर के दामों में उतार-चढ़ाव
का व्यापार से लाभ कमाना ही लक्ष्य बन गया है। पहले बड़ी पूंजी वाले
वित्तीय निवेशक और दलाल चक्रीय व्यापार से शेयरों के दाम बढ़ाना शुरू करते हैं। इसके आधार पर इनके ही कर्मचारी विश्लेषक और कारोबारी मीडिया इसकी चर्चा कर माहौल तैयार करते हैं, जिससे निवेशक आकृष्ट होते हैं, जिससे मांग बढने से दाम बढ़ते हैं, उससे और माहौल बनता है, और निवेशक
आकर्षित होते हैं, और मांग से और दाम बढ़ते हैं। इस तरह दाम बढ़ते जाते हैं और अपने मालिकाने के शेयर के बढ़ते दामों पर हिसाब लगाने से सबको संपन्नता भी बढ़ती नजर आती है। अभी तो जमीन/मकान वाला बाजार भी ढह गया है इसलिए उधर जाने वाला पैसा भी इधर ही आ रहा है। इसके चलते ऐसी स्थिति आ जाती है कि निवेशकों को सूद पर ऋण लेकर शेयर बाजार में लगाने में भी लाभ नजर आने लगता है। यह स्थिति अब तैयार हो रही है, बैंक व एनबीएफ़सी के फुटकर ऋण में कॉर्पोरेट ऋण के मुक़ाबले तेजी से इजाफा हो रहा है। यही एक दिन कहीं न कहीं किसी न किसी को भुगतान के संकट में पहुंचा देता है और एक जगह भुगतान का संकट पैदा होते ही नीचे की एक ईंट निकालने से इमारत के ढहने की तरह पूरी पोंजी स्कीम ढहने लगती है। तब उसकी नींव से कोई हर्षद मेहता, केतन परीख, आदि 'स्कैम' निकलता है।
शेयर बाजार की वर्तमान छलांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मजबूती का नहीं, उस पर छाए संकट का नतीजा है। पर जब भी यह संकट आता है उसका बोझ आखिर मेहनतकश जनता पर ही डाला जाता है।
शेयर बाजार की वर्तमान छलांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मजबूती का नहीं, उस पर छाए संकट का नतीजा है। पर जब भी यह संकट आता है उसका बोझ आखिर मेहनतकश जनता पर ही डाला जाता है।
आज अर्थव्यवस्था के संकट के कारण उत्पादक क्षमता में
नया निवेश 16-17 सालों के निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है। बैंकों द्वारा कंपनियों
को दिये जाने वाले ऋण में भी वृद्धि नहीं हो रही है। बैंकों के पास हर दिन माँग से
औसतन दो लाख करोड़ रुपये अधिक मौजूद है और लघु अवधि मुद्रा बाजार में ब्याज दरें
नीची हैं। इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध वित्तीय पूँजी आखिर जाये तो कहाँ? पूँजी को बिना
कहीं निवेश के रखना भी हानि ही माना जाता है क्योंकि पूँजी का मूल चरित्र ही
मुनाफा कमाना है। अतः यह अतिरिक्त पूँजी अभी शेयरों की सट्टेबाजी में लगकर उनकी
कीमतों को उठा रही है। सच बात तो यही है कि अर्थव्यवस्था में संकट है ठीक इसीलिए
अभी शेयर बाजार नई-नई ऊंचाइयां छू रहा है! यह पूँजीवाद के
ढाँचागत संकट का ही एक चारित्रिक लक्षण है क्योंकि अब उत्पादक शक्ति बढने में नहीं उत्पादक शक्तियों और पूँजी के विनाश में ही संकट से तात्कालिक छुटकारा मिलने की राह दिखाई देती है। जैसे टेलीकॉम में संकट के बावजूद एयरटेल
के शेयर इसलिये उछाल गये क्योंकि तीन में से एक कंपनी दिवालिया होगी तो शेष दो कुछ वक्त तक अधिक मुनाफा कमा सकेंगी। इससे शेयर बाजार के वित्तीय
चमगादड़ प्रसन्न होते हैं। कुल मिलाकर कहें तो पूँजीवाद अब उत्पादक शक्तियों के विकास में
मददगार नहीं, उसमें सबसे बडा रोडा बन गया है। उससे अब सामाजिक जीवन के किसी भी पहलू में कोई प्रगतिशील भूमिका निभाने की आशा सबसे बड़ा भ्रम है।
28-11-2019
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